वैज्ञानिकों ने आरोपित विकृति के अंतर्गत 2-डी पदार्थों के परमाण्विक गुणों का सैद्धांतिक परीक्षण किया है।

वांछित झुर्रियाँ

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Mumbai
11 जुलाई 2018
Fluid and crystalline phases of colloidal membranes from Nature Communications

एक अध्ययन में दर्शाया गया है कि क्रिस्टलीकरण से कैसे किसी पदार्थ का आकार  बदला जा सकता है। 

लचीली सतहें जैसे पत्तियाँ और पंखुड़ियाँ, हर ओर नज़र आती हैं। जैसे जैसे वे पनपती हैं, सपाट नहीं रहतीं बल्कि सिकुड़ जाती हैं या टेढ़ी मेढ़ी हो जाती हैं। ऐसा इसलिए होता है कि पत्तों या पंखुड़ियों को सपाट रखने में कहीं ज़्यादा ऊर्जा लगती है बजाय मोड़ने के। वाहनों में लगने वाली धातु की चादर जैसी कई वस्तुओं के लिए  सिकुड़ापन और टेढ़ा मेढ़ा पन अनुपयुक्त होगा, पर कई दूसरे इस्तेमालों के लिए ऐसे टेढ़े और सिकुड़ेपन की ही आवश्यकता हो सकती है। नेचर कम्युनिकेशन्स नामक जर्नल में, भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc), भारतीय प्रौद्योगिक संसथान (IIT) मुंबई और रामन रिसर्च इंस्टिट्यूट (RRI) के शोधकर्ताओं के द्वारा किये गए अनुसंधान से  पता लगाया गया है कि कैसे पदार्थ इस तरह से विकृत हो जाते हैं और किस प्रकार से नियंत्रण करके वांछित गुणों के पदार्थों का निर्माण किया जा सकता है।  

अनुसंधानकर्ताओं ने छड़ों  के आकार के वायरस का अध्ययन किया जो अपने आप पास में आकर एक मोनोलेयर (एक इकाई मोटाई यानी एक माइक्रोन की  एक महीन चादर का  तकनीकी नाम) बन जाते है।  आरम्भ में यह छड़ियाँ मोनोलेयर के अंदर कहीं भी इधर उधर आ जा सकती हैं जिससे ‘कोलाइडल मेम्ब्रेन’ बन जाता है। तापमान घटाने से मोनोलेयर घनीकृत होकर क्रिस्टलीय स्वरूप ले लेते है। मगर बजाय इसके कि मोनोलेयर एक चिकनी और सपाट सतह बनायें, वे एक खुरदुरी और वक्र सतह बनाते हैं। ऐसा तब होता है जब मूल इकाई (वायरस), कायरल हो। कायरल उस वस्तु को कहते हैं जो अपने और दर्पण के अपने ही प्रतिबिम्ब से अलग थलग पहचाना जाये, जैसे कि अपना हाथ। दाहिने और बाएँ  हाथों को दर्पण के सामने रखने पर भली भाँति पहचाना जा सकता कि कौन सा बायाँ है और कौन सा दायाँ।

भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) की डॉ प्रेमा शर्मा ने  प्रयोगात्मक कार्य करने वाले इस दल का नेतृत्व किया है। उनका कहना है कि हमारा काम बुनियादी है और अलाइन्ड नैनोरॉड्स (aligned nanorods) के मोनोलेयर बनाने के काम से सम्बन्ध रखता है। भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान  (IIT) मुंबई के डॉ अनिर्बान साईं  के नेतृत्व की एक टीम ने इस परिणाम का सैद्धांतिक मॉडेलिंग किया है  जिससे इन प्रायोगिक नतीजों को समझने और उनकी व्याख्या करने में मदद मिली है।

अनुसन्धानकर्ताओं को पता चला कि क्रिस्टलीकरण से रचित खुरदुरापन और वक्रता को जितना चाहो उतना  ठीक  किया जा सकता है। ये दोनों अभिलक्षण इस चीज़ पर निर्भर करते हैं कि कितने न्यूक्लिएशन  साइट्स (nucleation sites) (कोलॉइडल मेमब्रेन्स  के  घनीकरण होने की जगह) हैं। “हम प्रत्यक्ष रूप से न्यूक्लिएशन सेंटर की संख्या नहीं नियंत्रित कर रहे हैं। मगर बड़े कोलॉइडल मेम्ब्रेन्स के कारण अधिक न्यूक्लिएशन सेंटर बनते देखे गए हैं। न्यूक्लिएशन सेंटर नियंत्रित करने का दूसरा तरीका  है कि सुपरकूलिंग के परिमाण को नियंत्रित करें, अर्थात ये नियंत्रित करें कि तरल मेम्ब्रेन्स को क्रिस्टलीकरण के तापमान से  कितना नीचे लाया जाए।”, डॉ शर्मा कहती हैं।

प्रयोगों से प्राप्त और परिणामों को समझने और विवेचना करने के लिए भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान (IIT) मुंबई  के डॉ साईं के अनुसन्धान दल ने इस प्रणाली का कम्प्यूटर अनुकरण किया। एक परत के रूप में  व्यवस्थित छड़ सरीखे परमाणुओं का एक द्वि आयाम का मॉडल बनाया और उन्हें परस्पर प्रतिक्रिया करने दिया गया। ये निष्कर्ष निकला कि छड़ों की सम व्यवस्था अस्थाई होती है और इस तरह डॉ शर्मा के प्रयोगात्मक परिणामों को सफलतापूर्वक प्रतिपादित कर सके। डॉ साईं कहते हैं, “हम मेमब्रेन्स के घनीकरण से बनने वाले किसी भी ढाँचे के विशिष्ट स्वरूप की प्रतिलिपि की  रचना कर सकते हैं।”

द्रव से क्रिस्टलीकरण की अवस्थान्तर के अध्ययन में यह अनुसन्धान वैज्ञानिक दृष्टि से सहायक सिद्ध होगा। “नैनो रॉड्स के संयोजन से मनचाही गुणोंवाली परतों के बनाने की संभावित तकनीकी उपयोगों के क्षेत्र में भी ये काम आएगा। सौर सेल और LED जैसे उपकरणों में नैनोरोड अरे ज्योमेट्री काफी प्रचलित है अतः इन क्षेत्रों में कुछ अप्रत्यक्ष दूरगामी प्रभाव भी हो सकते हैं।”, डॉ शर्मा कहते हैं। वे आगे कहते हैं, “मगर ध्यान रहे कि अभी तक हमारे काम का सौर सेल पर  प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं  देखा गया है।”