शोधकर्ताओं ने द्वि-आयामी पदार्थों पर आधारित ट्रांजिस्टर निर्मित किये हैं एवं ऑटोनॉमस रोबोट हेतु अत्यंत अल्प-ऊर्जा के कृत्रिम तंत्रिका कोशिका परिपथ निर्मित करने में इनका उपयोग किया है।

आर्किमिडीस और भास्कर की पद्धतियों से गणित के शिक्षण में मदद मिल सकती है !

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मुंबई
29 जुलाई 2019
आर्किमिडीस और भास्कर की पद्धतियों से गणित के शिक्षण में मदद मिल सकती है !

शोधकर्ताओं ने तुलना की है कि कैसे ग्रीक और भारतीय गणितज्ञों ने एक गोले का तल -क्षेत्रफल मापा

स्कूल के दिनों में ज़्यादातर लोगों के लिए गणित सीखने का मतलब था रटना और गोले का तल-क्षेत्रफल निकालने का सूत्र, हमारे रटे हुए अनेकों सूत्रों में से एक था। इस सूत्र को जब ज़रुरत पड़े इस्तेमाल कर लिया करते थे बिना ये समझे कि आखिर इस जादुई सूत्र तक हम पहुँचे कैसे। मगर प्राचीन गणितीय अध्ययनों में अनेक विधियाँ बताई गई हैं जिनकी सहायता से हम विद्यार्थियों को एक गोले के सतही भाग की विभिन्न तरीकों से कल्पना करवा सकते हैं और सतह के क्षेत्रफल का हिसाब एक सहज ज्ञान से समझा सकते हैं।

प्राध्यापक के. रामसुब्रमण्यम के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने ‘जर्नल ऑफ द इंडियन मैथेमैटिकल सोसाइटी’ में एक अध्ययन प्रकाशित किया है जिसमें उन्होंने प्राचीन समय के ग्रीक एवं भारतीय गणितज्ञों के एक गोले के क्षेत्रफल पता लगाने की तरीकों की तुलना की है। इन तरीकों से इस विषय को पढ़ाने में कैसे  सहायता मिल सकती है? शोधकर्ताओं ने इनके कुछ दिलचस्प पहलुओं पर  प्रकाश डाला।

आधुनिक गणित में एक गोले का क्षेत्रफल इंटीग्रल कैलकुलस का उपयोग करके निकाला जाता है परन्तु इसको पता करने का सूत्र, सत्रहवीं शताब्दी में न्यूटन और लेब्नीट्ज़  के कैलकुलस के विकास करने से पहले ही ज्ञात था। आर्किमिडीस ऐसे पहले व्यक्ति समझे जाते हैं जिन्होनें तीसरी शताब्दी ई. पू.  में अपनी रचना ‘ऑन द स्फीयर एंड सिलिंडर’ में गोले के  क्षेत्रफल की गणना की।

ये बात उल्लेखनीय है कि प्राचीन ग्रीकों की तरह, भारत के गणितज्ञों ने भी ज्यामितीय आकृतियों का क्षेत्रफल और आयतन मालूम करने की कोशिश की थी। शुल्व सूत्र ग्रंथों में (लगभग ८०० ईसा पूर्व), जो मूलतः वेदिकाओं के निर्माण से सम्बन्ध रखते हैं, क्षेत्र का मापन और क्षेत्र संरक्षण रूपांतरण के प्रयत्न का अतिप्राचीन सन्दर्भ पाया जाता है।

कम से कम पाँचवीं शताब्दी से भारतीय गणितज्ञों ने वृत्त और गोले से सम्बंधित मसलों को सुलझाया है, जब आर्यभट्ट १  ने आर्यभटीय  में एक वृत्त के क्षेत्रफल का सही सूत्र प्रतिपादित किया। परन्तु पहला भारतीय ग्रन्थ, जिसमें एक गोले का तल क्षेत्रफल पता करने की पहल की गई, ८ वीं शताब्दी में लिखा गया लल्ला द्वारा रचित पाटीगणित  माना  जाता है।

यह ग्रन्थ अब गुम हो चुका है परन्तु भास्कर ने इसका हवाला दिया है और लल्ला के परिणामों की आलोचना की है और उन्हें गलत ठहराया हैं। दसवीं शताब्दी के मध्य में आर्यभट्ट २ ने महा-सिद्धांत  में एक गोले का तल क्षेत्रफल पता करने लिए एक दिलचस्प व्याख्या दी है जिसमें उन्होंने बताया है कि पृथ्वी का तल क्षेत्रफल पता करने के लिए हम एक ऐसे विस्तृत जाल की कल्पना कर सकते हैं जिसे पृथ्वी पर लपेट दिया गया हो। उन्होंने कहा कि परिधि को व्यास से गुणा करके क्षेत्रफल निकाला जा सकता है, पर इसको कैसे प्रदर्शित किया, इस बात का कोई सुराग नहीं मिला है।एक जाली को एक गेंद पर लपेटने के सिद्धांत को लेकर भास्कर ने अपने सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ लीलावती  में  एक गोले के तल क्षेत्रफल मालूम करने का सही सूत्र सुझाया। इसी सिद्धांत को लेकर आगे प्रतिपादित करते हुए सिद्धांतशिरोमणि और उसकी स्वरचित टीका वासनाभाष्य  में दो विभिन्न विधियों का प्रतिपादन किया। ये केवल गणित के विचार से ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि गणित को सिखाने के तरीकों के दृष्टिकोण से भी सहायक हैं। 

 

वासनाभाष्य  में दिए गए पहले तरीक़े के अनुसार एक गोले को कई पट्टियों में विभाजित किया जाता है जैसे टमाटर को काटते हैं। गोले के मध्य के पास के टुकड़े बड़े होंगे बनिस्बत उनके जो ध्रुव के पास होते हैं। प्रत्येक पट्टी को अलग करके खोलने पर समलम्ब चतुर्भुज बन जाता है जिसका क्षेत्रफल एक ज्ञात सूत्र की सहायता से जाना जा सकता है। हर एक टुकड़े की चौड़ाई टुकड़ों की संख्या पर निर्भर करती है और लम्बाई उसके मध्य भाग से दूरी पर।

टुकड़े की मध्य से दूरी और उसके माप के बीच के ज्ञात सम्बन्ध को लेकर उसका क्षेत्रफल निकाला जा सकता है। सारे टुकड़ों के क्षेत्रफलों का योग गोले की सतह का क्षेत्रफल होगा। ये बिलकुल वैसा ही है जैसा अगर हम पृथ्वी को अक्षांश रेखाओं पर काटें.

दूसरा तरीका जो कि सिद्धांत शिरोमणि  में वर्णित है और वासनाभाष्य  में और अधिक विस्तृत रूप से समझाया गया है, सिद्धांत में समान है। मगर यहाँ, बजाय गोले को टमाटर की तरह काटने के, सेब की तरह काटते हैं और अगर हम भास्कर की मिसाल लें तो आमले की तरह टुकडों में काटा जाता है। हर टुकड़ा अर्ध चंद्राकार का आकार लेगा और एक ही माप का होगा। भास्कर ने इन अर्धचन्द्राकार टुकड़ों को अक्षांश की लकीरों के बराबर काटा जिससे एक छोर पर त्रिकोण बना और बीच में समलम्ब चतुर्भुज, और फिर विदित सूत्रों का उपयोग करके उनका क्षेत्रफल निकाला। सारे त्रिकोणों और समलम्ब चतुर्भुजों के क्षेत्रफल को जोड़ कर गोले का क्षेत्रफल निकाला। यह पृथ्वी की सतह को देशांतर रेखाओं पर काटने के समान हुआ।

और दूसरी ओर अगर हम ग्रीस की ओर चलें तो पता चलता है कि वहाँ आर्किमिडीस ने बताया कि एक गोले का आयतन एक शंकु, जिसका तला गोले के बड़े घेरे के बराबर  हो और जिसकी ऊँचाई गोले के अर्धव्यास के बराबर हो, के चौगुने के बराबर होता है। 

उन्होंने अपने सूत्र का, असंगति - प्रदर्शन (reductio ad absurdum) नामक एक तकनीक द्वारा एक परिशुद्ध प्रमाण प्रस्तुत किया। शोधकर्ता कहते हैं, “आर्किमिडीस ने पहले कई सूक्तियों और अनुमानों को लेकर अपनी दलील का सतर्कता से निर्माण किया और बाद में तेंतीस प्रस्तावों को लेकर, हर एक को एक के बाद सिद्ध करके, गोले के तल क्षेत्रफल का आकलन किया।”

पहले उन्होंने दिखाया कि कई सतहोँ वाली कोई भी ठोस वस्तु, जो किसी गोले के अंदर समा सके, की पूरी सतह का  क्षेत्रफल, गोले में निहित सबसे बड़े वृत्त के क्षेत्रफल के चार गुने से कम होगा। अतः गोले का क्षेत्रफल गोले में निहित सबसे  बड़े वृत्त, जो उसपर खींचा जा सकता है, के क्षेत्रफल के चौगुने से कम नहीं हो सकता। आगे उन्होंने दिखाया कि कई सतहों वाली एक ठोस का क्षेत्रफल, उसमें निहित गोल के सबसे बड़े वृत्त के क्षेत्रफल के चौगुने से अधिक होगा। अतः गोले का क्षेत्रफल, सबसे बड़ा वृत्त, जो उसपर खींचा जा सकता है, के क्षेत्रफल के चौगुने से अधिक नहीं हो सकता। इससे ये सिद्ध होता है कि गोले का क्षेत्रफल, उसपर खींचे जानेवाले सबसे बडे वृत्त के क्षेत्रफल के चौगुने के बराबर होगा।

दोनों तरीकों के अंतर को समझाते हुए शोधकर्ता सुझाते हैं कि भास्कर का तरीका प्रयोगात्मक और प्रदर्शनात्मक है जब कि आर्किमिडीस इसे सैद्धांतिक रूप से समझाते हैं। भास्कर के तरीके में गोले की सतह को विदित ज्यामितीय आकारों में विभाजित करके उसके बाद उनके क्षेत्रफलों को जोड़ते हैं जो कि बच्चों के लिए समझने और कल्पना करने में अधिक सरल होंगे और यही नहीं, व्यावहारिक प्रश्नों का हल ढूंढनें में भी सहायक होंगे। भास्कर सरल गुणक और योगात्मक पदों का उपयोग करते हैं जो कि विद्यार्थियों के लिए समझने में आसान सिद्ध होंगे क्यों कि क्षेत्रफल मालूम करने के सामान्य तरीकोंसे विद्यार्थी परिचित हैं।

शोधकर्ताओं को लगता है इन दोनों तरीकों में से भास्कर का बताया तरीका विद्यार्थियों को विषय को समझाने में अधिक उपयुक्त है। क्योंकि भास्कर की कृतियों में सहज सुबोध गम्यता है, उनका प्रस्ताव है कि इन्हें गणित के पाठ्यक्रम में सम्मिलित करना चाहिए। आर्किमिडीस के तरीके उच्च स्तरीय गणित के विद्यार्थियों के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध होंगे क्योंकि इसमें सूक्तियों से शुरू करके एक के बाद एक अनुमानों को लेकर आगे बढ़ते हैं। “आर्किमिडीस के  तरीके सिखाते हैं कि गणित के चुनौतीपूर्ण प्रश्नों को कैसे हल करें,” ऐसा लेखकों का अभिप्राय है।

“प्राचीन गणितज्ञों ने जीवंत और काव्यात्मक कल्पना का उपयोग करके गणित के सिद्धांत और संबंधों को विद्यार्थियों को समझाया है। उन्होंने युवा मन में दिलचस्पी जगाने के लिए प्रचलित तहज़ीब का सहारा लिया और प्रमाणों को समझाने के लिए प्रयोगात्मक गतिविधियों पर विशेष ज़ोर दिया। ऐसी तकनीकों को फिर से अंगीकार करके, संस्कृति को शिक्षा का आधार बनाकर और रोज़मर्रा की भाषा का उपयोग करने से गणित में दिलचस्पी जगाई जा सकती है और शिक्षा के परिणामों में उन्नति लाई जा सकती है”, ऐसा डा कोलाचना ने कहा, जो इस अध्ययन के लेखकों में से एक हैं।

शोधकर्ताओं का मानना है जितना अध्ययन आर्किमिडीस पर किया गया है उतना भास्कर की कृतियों पर नहीं किया गया है अतः इस ओर और शोध की आवश्यकता है।