शोधकर्ताओं ने द्वि-आयामी पदार्थों पर आधारित ट्रांजिस्टर निर्मित किये हैं एवं ऑटोनॉमस रोबोट हेतु अत्यंत अल्प-ऊर्जा के कृत्रिम तंत्रिका कोशिका परिपथ निर्मित करने में इनका उपयोग किया है।

कोरोना विषाणु के जीवित रहने में विभिन्न सतहों का प्रभाव

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Mumbai
25 सितंबर 2020
कोरोना विषाणु के जीवित रहने में विभिन्न सतहों का प्रभाव

अनसप्लेश पर वेन्गंग झाई द्वारा फोटो

जब से कोविड-१९ की महामारी ने दुनिया में दहशत फैलायी  है, तब से दिशा-निर्देशों की जैसे बाढ़ आ गयी है जो हमें 'संपर्कहीन' होने की वकालत कर रही है। हमें मास्क का उपयोग करने, दूसरों से शारीरिक दूरी बनाए रखने और घर से बाहर कुछ भी छूने से बचने का आग्रह किया जा रहा है। यह श्वसन बीमारी एक प्रकार के कोरोना विषाणु से संक्रमित लोगों के सांस की बूंदों के माध्यम से फैलती है जो इनके छींकने, खांसने या बात करने पर निकलती है। ये बूंदें सतहों पर रह सकती हैं और दूसरों के लिए खतरा बन सकती हैं। इसके संपर्क में आने से लोग संक्रमण के शिकार हो सकते हैं। इसलिए, अक्सर स्पर्श किये जाने वाले सतहों, जैसे  दरवाजे का हत्था (हैंडल) और एलेवेटर (लिफ़्ट) बटन को पोंछना और कीटाणुरहित करने एवं बार-बार हाथ धोने जैसे सुझाव, रोग को दूर रखने के लिए दिये  जा रहे हैं।

एक नए अध्ययन में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुम्बई (आई आई टी बॉम्बे) के शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि इस तरह की श्वसन बूंदों को विभिन्न सतहों से लुप्त होने में कितना समय लगता है। उन्होंने पाया कि नमी (आर्द्रता), तापमान और सतह के गुण बूंदों के सूखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अध्ययन को एक पीयर-रिव्यूड पत्रिका 'फिजिक्स ऑफ फ्लूइड्स' में प्रकाशित किया गया है।

कई श्वसन बीमारियों की तरह, कोविड-१९ श्वसन बूंदों के माध्यम से फैलता है। इन बूंदों का आकार मनुष्य के बालों की मोटाई से लगभग दोगुना होता है। अध्ययन का नेतृत्व करने वाले प्राध्यापक रजनीश भारद्वाज कहते हैं, "छोटी बूंदों के अंदर के विषाणु का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि ये बूंदें कितनी तेजी से सूखती हैं।" वे आईआईटी बॉम्बे के यांत्रिक अभियांत्रिकी विभाग में प्राध्यापक हैं। अतीत में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि कोरोना विषाणु को जीवित रहने के लिए लार की बूंदों की तरह एक माध्यम की आवश्यकता होती है। " बूंदों के वाष्पीकरण के कारण जब कोई माध्यम नहीं होता है तो विषाणुओं  के जीवित रहने की संभावना बहुत कम होती जाती है", उन्होंने बताया।

शोधकर्ताओं ने यह अनुमान लगाने के लिए कि श्वसन की बूंदों को वाष्पित होने में कितना समय लगता है, एक गणितीय मॉडल का निर्माण किया जो पिछले प्रयोगों द्वारा सत्यापित था। इस मॉडल ने परिवेश के तापमान, सतह के प्रकार, छोटी बूंद के आकार और इसकी गणना में सापेक्ष आर्द्रता पर विचार किया। उन्होंने पाया कि जिन सतहों पर पानी नहीं चिपकता है जैसे कि हमारे फोन की टच स्क्रीन, कांच या स्टील जैसी सतहों की तुलना में वाष्पीकरण का समय 60% तक धीमा हो जाता है। जल-विकर्षक सतहों पर, बूंदें सपाट रूप से नहीं फैलती हैं और इसलिए वाष्पित होने में अधिक समय लेती हैं। इसके अलावा, छोटी बूंदों का आकार भी सूखने में लगने वाले समय को प्रभावित करता है।

आईआईटी बॉम्बे के प्राध्यापक अमित अग्रवाल, जो इस अध्ययन का हिस्सा थे, कहते हैं, "हमारा अध्ययन बताता है कि स्मार्टफोन की स्क्रीन और लकड़ी से बनी सतहों को कांच और स्टील की सतहों की तुलना में अधिक बार साफ करने की आवश्यकता है।" उन्होंने सुझाव दिया कि कम आर्द्रता वाले स्थानों पर सूर्य की गर्मी से सूखने वाली सतहों पर विषाणु नष्ट हो जाते हैं जैसा कि अन्य अध्ययनों द्वारा बताया गया है।

वर्तमान अध्ययन में यह भी पाया गया है कि वाष्पीकरण के समय को तापमान और आर्द्रता प्रभावित करते हैं। प्रत्येक १५ डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि के लिए वाष्पीकरण समय आधा हो जाता है। जब शोधकर्ताओं ने सापेक्ष आर्द्रता को १०% से ९०% तक परिवर्तित किया, तो वाष्पीकरण का समय लगभग सात गुना बढ़ गया।

“परिवेश का उच्च तापमान, छोटी बूंदों को तेजी से सूखने में मदद करता है और विषाणु के जीवित रहने की संभावना को काफी कम कर देता है। उच्च आर्द्रता पर, छोटी बूंदें लंबे समय तक सतह पर रह सकती हैं और इसलिए विषाणु के पास अधिक देर तक जीवित रहने का मौका रहता है," प्राध्यापक अग्रवाल ने विस्तारपूर्वक बताया।

शोधकर्ताओं ने छोटी बूंदों के सूखने के समय और अलग-अलग आर्द्रता एवं तापमान वाले पांच शहरों में कोविड-१९ के संक्रमणों की वृद्धि दर के बीच संबंधों की खोज की। उन्होंने न्यूयॉर्क, शिकागो, लॉस एंजिल्स, मियामी, सिडनी और सिंगापुर का चयन किया और पाया कि इन शहरों में महामारी की वृद्धि दर अधिक है जैसे की न्यूयॉर्क, जहां वाष्पीकरण समय (सूखने की दर) काफी अधिक है। दूसरी ओर सिंगापुर, जहां उच्च आर्द्रता के बावजूद परिवेश का तापमान उच्चतम था, संक्रमणों की संख्या सबसे कम है।

प्राध्यापक भारद्वाज भारत में एक समान प्रवृत्ति की ओर इशारा करते हैं। मुंबई, जहां की आर्द्रता अधिक है, की तुलना में दिल्ली में उच्च तापमान संक्रमण की दर को धीमा कर सकता है। हालांकि वे स्वीकार करते हैं कि सरकारों ने महामारी से निपटने में भूमिका निभाई हो सकती है, "परिवेशीय मौसम को एक महत्वपूर्ण कारक माना जा सकता है," उन्होंने बताया।

भारत में दक्षिण-पश्चिम मानसून के आगमन के साथ, इन निष्कर्षों का देश में कोविड-१९ के प्रबंधन में निहितार्थ है। "इस बात की संभावना है कि आर्द्रता बूंदों में विषाणु को लंबे समय तक जीवित रहने में मदद कर सकती है।" डॉ भारद्वाज ने चेतावनी दी। वे अधिकारियों से उच्च आर्द्रता वाले क्षेत्रों में मास्क का उपयोग करने के लिए एक कड़े नियम को लागू करने का आग्रह करते  हैं। शोधकर्ताओं का ऐसा कहना है कि सूखने वाली बूंदों में विषाणु के जीवित रहने का अनुमान लगाने का प्रस्तावित मॉडल, श्वसन की बूंदों के माध्यम से फैलने वाली अन्य बीमारियों को समझने में भी मदद कर सकता है, जैसे कि इन्फ्लूएंजा-ए (ज्वर)।