पिछले कुछ महीनों में, फ्रांस, न्यूजीलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों में खसरे के प्रकोप देखा गया जिन्हें पहले खसरा-मुक्त देश माना जाता था। विशेषज्ञों ने अनुसार "एंटी-वैक्स" आंदोलन इसका मुख्य कारण है, जिसमें माता-पिता ऑटिज़म (जिसे खसरे के टीकाकरण से अनुचित रूप से जोड़ा गया है) के डर से अपने बच्चों का टीकाकरण नहीं करवाते हैं। डर के ऐसे माहौल में, विज्ञान एक अलग कहानी बताता है।
टोरंटो विश्वविद्यालय के एक प्रमुख महामारीविद् डॉ प्रभात झा कहते हैं कि, "एंटी-वैक्स समुदाय, गैर-जिम्मेदार फेसबुक पोस्ट, और अन्य सोशल मीडिया के अनियत्रित प्रयोग के कारण ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है ।”
हाल ही के अध्ययन में, डॉ झा, किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी, लखनऊ के अन्य शोधकर्ता; स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय; पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ़ और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने भारत में राष्ट्रीय खसरा टीकाकरण अभियान के प्रभाव का विश्लेषण किया है। अध्ययन के निष्कर्ष ई-लाइफ पत्रिका में प्रकाशित किए गए है।
खसरा वायरस के कारण होने वाला एक बेहद संक्रामक और संभवतः घातक रोग है। इसके लक्षणों में बुख़ार, नाक बहना, एवं शरीर पर लाल चकत्ते दिखाई देना शामिल हैं। हवा या सीधे संपर्क के माध्यम से फैलते हुए, यह बीमारी एक कमरे में उपस्थित दस में से नौ ऐसे लोग को संक्रमित कर सकती है जिन्होंने खसरे का टीकाकरण न कराया हो। पांच साल से कम उम्र के बच्चों को इस बीमारी से सबसे अधिक ख़तरा है। दुनिया भर में खसरे से होने वाली मृत्युओं में एक तिहाई से अधिक भारतीय बच्चे शामिल हैं। सरकार ने इससे निपटने के लिए २००५ में व्यापक टीकाकरण अभियान शुरू किया था।
डॉ झा बताते हैं, "नियमित टीकाकरण ज्यादातर एकीकृत बाल विकास सेवा (आई सी डी एस) और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय योजनाओं के माध्यम से किया जाता है। हालाँकि इसमें बहुत कमियाँ हैं और टीकाकरण अभियान मुख्य रूप से परिवार के स्वयं स्वास्थ्य केंद्र आने पर आश्रित है। २००५ में शुरू किए गए अभियान ने नियमित टीकाकरण को मजबूत किया, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अभियान का प्रारम्भ एक विशेष दिन किया गया, जब टीकाकरण टीम योग्य बच्चों को खोजने के लिए निकली जिन्हें पहले दो खुराक दी गई थी। यह एक 'सक्रिय' तरीका है।” डॉ झा का मानना है कि टीकाकरण व्यवस्था में बदलाव के लिए उसके बारे में बात करना जरूरी है।
शोधकर्ताओं ने देश भर में खसरे के २७,००० मामलों का अध्ययन किया और एक सांख्यिकीय विश्लेषण के माध्यम से इस अभियान के प्रभाव का विश्लेषण किया। उन्होंने अभियान के प्रारम्भ के बाद, २००५ से २०१५ तक ६२,००० एवं २४,०००, १-५९ महीने की आयु के शिशुओं में खसरा से संबंधित मृत्युओं की संख्या में उल्लेखनीय कमी पाई। अनुमानित रूप से लगभग ४१,००० से ५६,००० खसरा से मौतें २०१० से २०१३ के बीच पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में हुई थीं। पूरे भारत में इस अभियान से पहले खसरे में कमी की औसत वार्षिक दर १२% से बढ़कर २२% हो गई। इस सफलता का श्रेय लक्षित राज्यों जैसे मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और गुजरात में बढ़ते अभियान को दिया जा सकता है। दिलचस्प बात यह है कि अभियान के कारण लड़कों की तुलना में कम उम्र की लड़कियों की संख्या कम थी।
यह सोचने की बात है कि हम भारत से इस बीमारी को खत्म करने से कितना दूर हैं?
डॉ. झा कहते है कि "खसरा से होने वाली मौतों को खत्म किया जा सकता है, लेकिन खसरे के मामलों को नहीं"। “इसके लिए टीकाकरण अभियान को एक ऐसे स्तर तक पहुँचना होगा जब कोई भी संक्रमित व्यक्ति किसी अन्य को खसरा फैलाने में असमर्थ हो, क्योंकि उनका टीकाकरण किया जा चुका है। आपको एक बीमारी का सफ़ाया करने के लिए हस्तक्षेप और निगरानी दोनों की आवश्यकता है|”, कहते हैं। उदाहरण के तौर पर पोलियो एक ऐसी बीमारी है, जिसे टीकाकरण से सफलतापूर्वक मिटा दिया गया है।
अध्ययन के नतीजे न केवल यह दर्शाते हैं कि टीकाकरण से खसरे को रोका जा सकता है, बल्कि "सक्रिय" टीकाकरण योजनाओं के महत्व पर भी रोशनी डालते हैं, जिन्हें जनता के लिए अधिक सुलभ बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है। एक ऐसे युग में जहां विज्ञान के खिलाफ दुष्प्रचार तेजी से बढ़ रहा है, जो संभावित रूप से जीवन के लिए ख़तरनाक है, यह अध्ययन आधुनिक समाज में टीकाकरण के महत्व पर प्रकाश डालता है।