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प्रतिबंध के बावजूद, भारत में पशु चिकित्सा के उपयोग में आने वाली गिद्ध घातक दवा डाइक्लोफेनाक व्यापक रूप से बेची जाती है

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बेंगलुरु
11 जनवरी 2021
प्रतिबंध के बावजूद, भारत में पशु चिकित्सा के उपयोग में आने वाली गिद्ध घातक दवा डाइक्लोफेनाक व्यापक रूप से बेची जाती है

भारत में एक राष्ट्रीय उद्यान में गिद्धों  का एक झुण्ड [चित्र श्रेय: चित्र २०१६ / सीसी बीवाई-एसए ४.०]

वैज्ञानिकों को प्रायः अपने शोध का अनुसरण करने वाले और दुनिया के तरीकों के बारे में सच्चाई का पता लगाने  वाला जन समूह माना जाता है। क्या आप जानते हैं कि वे वैज्ञानिक जासूसी करते हुए अन्य लोगों के संदिग्ध कार्यों  का पता भी कर सकते हैं? ऐसा ही काम कुछ उन अंतर राष्ट्रीय   वैज्ञानिकों ने कर दिखाया है जो विश्व में गिद्धों की आबादी को बचाने का जुनून रखते हैं। हाल के एक अध्ययन में, उन्होंने पाया कि गिद्ध- घातक दवा डाइक्लोफेनाक, जो अब पशु चिकित्सा के उपयोग के लिए प्रतिबंधित है, भारत में आसानी से उपलब्ध थी। डाइक्लोफेनाक के अधिकांश उपलब्ध विकल्प भी इन पक्षियों के लिए  घातक थे, जो इस बात को  रेखांकित करते हैं कि उन पर प्रतिबंध लगाने की तत्काल आवश्यकता है। 

2012 और 2018 के बीच  संपन्न छह वर्षीय अध्ययन में इंग्लैंड, भारत, नेपाल, बांग्लादेश और ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ता शामिल थे। स्थानीय स्वयंसेवकों ने छिपे तौर पर भारत, नेपाल और बांग्लादेश की  फार्मेसियों से बिना प्रिस्क्रिप्शन के पशु चिकित्सा उपयोग में आने वाली डाइक्लोफेनाक की उच्च खुराक खरीदने का काम किया। यह दवा भारत और नेपाल में वर्ष 2006 से और बांग्लादेश में वर्ष 2010 से प्रतिबंधित है।

"हम इस बात से अवगत थे कि प्रतिबंध के बावजूद, डाइक्लोफेनाक भारत में पशु चिकित्सकों  और पशुओं के मालिकों के लिए उपलब्ध था," जॉन मलॉर्ड, जो अध्ययन के संबंधित लेखक हैं, बताते हैं । वे आरएसपीबी सेंटर फॉर कंजर्वेशन साइंस, इंग्लैंड में एक संरक्षण वैज्ञानिक हैं। वर्तमान अध्ययन जो , मलोर्ड ने  बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस ) के  अन्य संरक्षणवादी  वैज्ञानिकों के साथ  किया , बर्ड कंजर्वेशन इंटरनैशनल पत्रिका में प्रकाशित  हुआ है ।

अध्ययन के बारे में बात करते हुए, मलार्ड ने कहा, "2006 में डाइक्लोफेनाक पर प्रतिबंध के बावजूद  पशु चिकित्सा के लिए फार्मेसियों में आसानी से उपलब्ध गैर-स्टेरायडल सूजनरोधी दवाओं  पर कड़ी नजर रखना ही हमारी प्राथमिकता थी ।"

डाइक्लोफेनाक और गिद्ध: एक तकलीफ देह  संबंध

धरती को साफ रखने वाले सफाई कर्मचारियों की तरह , गिद्ध प्रकृति के ' सफाई कर्मचारी ' हैं, जो मृत जानवरों के शवों को खाते हैं,  ताकि संक्रामक रोगों  का प्रसार रुक सके । एक समय था जब भारत नौ प्रजातियों से संबंधित लगभग 4 करोड़ गिद्धों का घर हुआ करता था। पिछले चार दशकों में,  इनकी संख्या केवल कुछ हज़ार तक ही सिमट कर रह गई  है । चार प्रजातियां - सफ़ेद-रंप्ड गिद्ध (जिप्स बेंगालेंसिस), भारतीय गिद्ध (जिप्स इंडिकस ), पतली कद काठी के गिद्ध (जिप टेन्युरोस्ट्रिस), और लाल सिर वाले गिद्ध (सरकॉजिप्स  कैल्वस) - आज लुप्तप्राय से हो गये हैं।


भारत के बाजारों में उपलब्ध डाइक्लोफेनाक! छवि श्रेय : जैकब ग्राहम सावोई / सीसी बाय-एसए 3.0]

2006 में, दक्षिण एशिया में गिद्ध संख्या में भारी गिरावट की जांच कर रहे वैज्ञानिकों ने एक चौंकाने वाली खोज की। उन्होंने पाया कि डाइक्लोफेनाक, जो कि आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली गैर-स्टेरायडल सूजन रोधी दवा (एनएसएआईडी) है, गिद्धों के कम होने का सबसे बड़ा कारण है। मृत्यु की ओर अग्रसर मवेशियों के दर्द को कम करने के लिए प्रायः इस दवा का उपयोग किया जाता है। यह मानव और पशुधन द्वारा उपभोग के लिए सुरक्षित है, लेकिन गिद्धों के लिए घातक है जो मवेशियों के शवों (जिनमें अल्प मात्रा में डाइक्लोफेनाक भी मौजूद होता है ) को अपना आहार बनाते हैं। “डाइक्लोफेनाक को थोड़ी मात्रा में सेवन करने से भी  गिद्धों के खून में यूरिक एसिड का स्तर बढ़ जाता है। इसके बाद यूरिक एसिड के  क्रिस्टल आंतरिक अंगों पर जमा  होने लगते हैं और  जिसके परिणाम स्वरुप गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं और अंततः गिद्धों की मौत हो जाती है” ऐसा मेलॉर्ड समझाते हैं।

इस खोज के नतीजे सामने आने के बाद पशु चिकित्सा के लिए डाइक्लोफेनाक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया गया जिससे लुप्तप्राय जिप्स गिद्धों की तीन प्रजातियों की संख्या में गिरावट में कमी आई। हालांकि, लोग प्रतिबंध को दरकिनार करते हुए मनुष्यों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा की कई कई खुराक अपने मवेशियों के लिए खरीदने लगे। वर्ष  2015 में, इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए डाइक्लोफेनाक की बहु-खुराक शीशियों की बिक्री पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया । लेकिन, क्या इन  प्रतिबंधों ने इस गिद्ध- घातक दवा के उपभोग पर कोई अंकुश लगाने में सफलता पाई ? क्या भारत के गिद्ध पहले से ज्यादा सुरक्षित हैं? शायद नहीं।

अन्य एनएसएआईडी के अदृष्य खतरे

डाइक्लोफेनाक ही नहीं, बल्कि केटोप्रोफेन, एसेक्लोफेनैक, निमेसुलाइड और कैरिफेन जैसे पशु चिकित्सा में व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले अधिकांश एनएसएआईडी गिद्धों के लिए विषाक्त  माने जाते हैं । "फ्लूनिक्सिन नामक  एक और एनएसएआईडी जो अब भारत में उपलब्ध है, स्पेन में यूरेशियन ग्रिफ़ोंस की मृत्यु का  कारण बनी थी," मलॉर्ड कहते हैं। मीलॉक्सिकेम एकमात्र एनएसएआईडी है जो अब तक गिद्धों के लिए सुरक्षित साबित हुई है। संरक्षणकर्ता इस दवा को एनएसएआईडी के अन्य  विकल्प के रूप में देखते हैं तथा इसके उपयोग की  जोरदार पैरवी करते हैं।

वर्तमान अध्ययन में पाया गया कि प्रतिबंध के बावजूद, वास्तव में फार्मेसियों से डाइक्लोफेनाक  की उपलब्धता समाप्त करने में बहुत कम सफलता  प्राप्त हुई है । उत्तर प्रदेश, गुजरात, असम, मध्य प्रदेश, झारखंड और उत्तराखंड में किए गए व्यापक सर्वेक्षण के दौरान पाया गया है कि एनएसएआईडी की उपलब्धता हर राज्य में अलग  है । 2012 में, डाइक्लोफेनाक भारत में सबसे अधिक बिकने वाला एनएसएआईडी था। हालांकि इसके उपयोग के विरुद्ध जागरूकता अभियानों के परिणाम स्वरुप इसकी बिक्री समय के साथ कम हो गई, परंतु वे अभी भी खुलेआम बेचे जाते हैं। इसके विपरीत, डाइक्लोफेनाक नेपाल और बांग्लादेश से लगभग गायब हो गया है; पर भारत से दवा का आयात  अभी भी प्राथमिक चिंता का विषय बना हुआ  है।

भारत में, वैज्ञानिकों ने देखा कि डाइक्लोफेनाक की बहु-खुराक शीशियों के प्रतिबंध के एक वर्ष के बाद भी , वे अध्ययन किए गए सभी राज्यों में खरीदे जा सकते हैं। 2017 में, गुजरात में फार्मेसियों द्वारा बेचे गए लगभग आधे NSAIDs डाइक्लोफेनाक थे। 2015 में प्रतिबंध के बावजूद, इन शीशियों  को काफी मात्रा में दवा कंपनियों द्वारा अवैध रूप से उत्पादित किया जा रहा था। 2017 में भारत में गिद्धों के लिए सुरक्षित साबित होने वाला मेलोक्सिकैम की बिक्री एनएसएआईडी की कुल बिक्री का मात्र 36 प्रतिशत था। गिद्धों के लिए विषैले माने जाने वाले निमेसूलाइड, की उपलब्धता भी लगभग इसके बराबर है। हरियाणा में भी जहां, एक समर्पित  “गिद्ध सुरक्षित क्षेत्र” के आसपास के 100 किलो मीटर के दायरे में  सभी गिद्ध-विषैले एनएसएआईडी प्रतिबंधित हैं, मेलोक्सिकैम की बिक्री केवल 40% ही हुई थी।

गिद्धों के लिए एनएसएआईडी का खतरा दक्षिण एशिया तक ही सीमित नहीं है । "NSAIDs, वास्तव में, एक वैश्विक मुद्दा है," मैलॉर्ड  मानते हैं। अफ्रीका और यूरोपीय संघ के देशों में गिद्धों की आबादी  कई कारणों से  वैसे ही कम हो रही है और विषाक्त एनएसएआईडी की व्यापक उपलब्धता समस्या को संभावित रूप से बढ़ा सकती है। मैलॉर्ड  कहते हैं “अब तक, डाइक्लोफेनाक विषाक्तता के कारण गिद्धों की मौत की पुष्टि केवल दक्षिण एशिया में की गई है। हालांकि, हम जानते हैं कि इस दवा का उपयोग दुनिया के अन्य जगहों, जहाँ पर गिद्ध होते हैं , पर पशु चिकित्सकों द्वारा किया जाता है”।

भारत की गिद्ध आबादी लगभग विलुप्त होने के कगार पर है, उस पर विषैले एनएसएआईडी की आसानी से उपलब्धता, जैसा कि अध्ययन में पाया गया है, एक टाइम बम जैसा है।

"अगर ऐसा चलता रहा तो दो दशकों से किया गया अथक परिश्रम और अमूल्य संरक्षण उपलब्धियों के परिणाम सब व्यर्थ हो जाएंगे," मलॉर्ड ने व्यथा जताई । "भारत सरकार को गिद्धों को विलुप्त होने से रोकने के लिए अब तुरंत कोई ठोस कदम उठाने पड़ेंगे," वे आग्रह  करते हैं ।

विज्ञान और जागरूकता समय की जरूरत है

पिछले दो दशकों में, कठोर वैज्ञानिक साक्ष्य भारत के गिद्धों के लिए वरदान साबित हुए हैं। अध्ययनों ने न केवल  डाइक्लोफेनाक को  गिद्धों की संख्या में भारी गिरावट के कारण के रूप में पहचानने में मदद की है, बल्कि एक गिद्ध-सुरक्षित दवा विकल्प के रूप में मेलॉक्सिकैम की पहचान की है। गिद्ध आबादी की निरंतर निगरानी ने गिद्धों की बढ़ती आबादी के आंशिक संकेत  दर्शाये हैं। "हालांकि, विज्ञान केवल पहला कदम है," मल्फोर्ड कहते हैं, जो सेव (एसएवीई) में तकनीकी सलाहकार समिति के सदस्य भी हैं। यह दक्षिण एशिया में गिद्धों की  विलुप्ति को रोकने की दिशा में काम करने वाला एक अंतर्राष्ट्रीय संघ है।

" जिस चीज की अभी जरूरत है वह है प्रभावी वकालत," वह बताते हैं।

अध्ययन में सरकार को सभी गिद्ध- घातक एनएसएआईडी पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून लाने और उन्हें कठोरता पूर्वक लागू करने का आह्वान किया गया है यह हानिकारक दवाओं के उपयोग को कम करने के लिए पशुधन मालिकों, पशु चिकित्सकों, और फार्मासिस्ट सहित स्थानीय हितधारकों के लिए जागरूकता अभियान चलाने का भी सुझाव देता है।

क्या इन कदमों से भारतीय गिद्धों की संख्या बढ़ाते हुए उन्हें आसमान को फिर से छूने के सपने को पूरा करने में मदद मिल सकती है? यह एक दुर्गम रास्ता है और हमें तुरंत कार्रवाई करने की आवश्यकता है। “1990 के दशक से लेकर 2000 के दशक के प्रारंभिक काल तक, गिद्ध विलुप्ति संकट अपनी चरम सीमा पर था, और उस  दौरान गिद्धों की आबादी लगभग 50% प्रति वर्ष की दर से कम हो  रही थी। एक समय था जब उनकी संख्या लाखों  में हुआ करती थी परंतु आज सिर्फ कुछ हजार ही रह गयी है और वह समय दूर नहीं जब गिद्ध प्रजाति विलुप्त हो जाएगी, ”मैलोर्ड ने चेतावनी दी है।

शायद, हम नेपाल से एक या दो  पाठ सीख सकते हैं, जहां गिद्ध की आबादी को बढ़ाने के लिए सरकार ने मेलोक्सिकैम को प्रभावी  बढ़ावा  दिया है।

"लेकिन, हाँ, बहुत बड़ी चुनौतियाँ हैं," मल्फोर्ड  स्वीकार करते हैं। "सरकार की नीति को बदलना एक धीमी प्रक्रिया है और गिद्धों की आबादी बढ़ाने के लिए भारत जैसे विशाल देश में स्थानीय लोगों को अपने व्यवहार को बदलने के लिए समझाना एक बहुत कठिन कार्य है।"