चित्र: वी श्रीनिवासन
अगस्त 2018 में, केरल राज्य के लोगों ने साल 1924 में आई विनाशक बाढ़ के बाद सबसे भीषण बाढ़ में से एक को देखा। राज्य में पूर्वानुमान की तुलना में 96% अधिक बारिश हुई जिससे राज्य के अधिकांश क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बाढ़ की स्थिति पैदा हो गयी। कृषि, आवास, मत्स्य पालन, पशुपालन, अन्य व्यवसायों और राज्य के प्राकृतिक वनस्पतियों और जीवों को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा। राज्य के भू-राजस्व विभाग ने लगभग 330 भूस्खलन की सूचना दी, और आर्थिक नुकसान अनुमानित रूप से 31,000 करोड़ रुपये के पार पहुँच गया। राज्य में भूस्खलन के कारण 100 से अधिक लोग मारे गए। भूस्खलन के परिणामस्वरूप फसलों को भी नुकसान पहुंचा जिसमें राज्य के 300 एकड़ से अधिक कॉफी और चाय बागान प्रभावित हुए।
अत्यधिक बाढ़ के दौरान ऊपरी सतह का मृदा अपरदन सामान्य है। लेकिन यह मृदा क्षरण, अंतर्निहित मृदा को और अधिक क्षरण की ओर अग्रसित करता है जो विशाल भूस्खलन को उत्प्रेरित कर सकता है। अध्ययनों से पता चला है कि भारत भर में, विशेषकर केरल जैसे राज्यों में जहां भारी वर्षा होती है एवं जिनकी स्थलाकृति में खड़ी ढाल और ऊबड़ - खाबड़ सतह है , के कारण बाढ़ से संबंधित मृदा अपरदन की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग के जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई और ग्रामीण डेटा रिसर्च एंड एनालिसिस (आरयूडीआरए), मुंबई के शोधकर्ताओं ने 2018 की केरल बाढ़ के पहले, दौरान और बाद में मृदा अपरदन की दर का आकलन किया। इस डेटा ने राज्य में बाढ़ से भूमि और मिट्टी प्रणाली को होने वाली क्षति की सीमा को समझने में सहायता की और साथ ही साथ ये प्राकृतिक संसाधनों के समग्र संरक्षण में सुधार के लिए आवश्यक राहत उपायों का मार्गदर्शन भी कर सकता है।
पिछले कुछ दशकों में अत्यधिक बाढ़ और प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति में वृद्धि हुई है। इसके लिए कई कारण बताये गए है, जिसमे जलवायु परिवर्तन बारम्बार रूप से आता है। "बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन से प्रेरित कारकों, भू-उपयोग, भूमि आछादन परिवर्तन, मानवजनित कारण (कुप्रबंधन) और पूर्वपद जलवैज्ञानिक (हाइड्रोलॉजिकल) परिस्थितियों (जैसे भारी वर्षा दर) यथा कई भिन्न कारकों पर निर्भर करते हैं,"चिन्नास्वामी सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी अल्टरनेटिव फॉर रूरल एरियाज़ (CTARA),” भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई के प्राध्यापक पेनन कहते हैं।
शोधकर्ताओं ने वृष्टि और वर्षा, डिजिटल मिट्टी के मानचित्र, भूमि में उठान और दूरस्थ संवेदी प्लेटफार्मों से प्राप्त उपग्रह चित्रों जैसे डेटा का उपयोग करके मिट्टी के क्षरण दर को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन किया। उन्होंने राज्य भर में मृदा अपरदन की दर में भिन्नता का भी विश्लेषण किया जिससे प्राप्त परिणाम चौंकाने वाले थे।
जनवरी 2018 की तुलना में 2018 में केरल बाढ़ के दौरान औसत मृदा अपरदन की दर 80% बढ़ गई। यह 2018 में केरल सरकार के अध्ययन के अनुरूप है, जिसका अनुमान था कि बाढ़ के दौरान राज्य के कुल क्षेत्रफल का 71% तक का अपरदन हो गया था।
पश्चिमी घाट के आसपास के केरल के जिलों में अधिक मात्रा में वर्षा होती है, जिसमें इडुक्की क्षेत्र में वर्षा की मात्रा सबसे अधिक है। पर्वत श्रृंखला नम गर्म हवा उठाती है, जिसके कारण संक्षेपण होता है और अंततः वर्षा होती है, जिसे पर्वतकृत वर्षा के रूप में जाना जाता है। वर्षा कटाव कारक मिट्टी के कटाव के लिए संवेदनशीलता का अनुमान देता है। इसकी संख्या जून से अगस्त तक की अवधि में 133 से 179 तक पहुँच गयी थी, जो भारी वर्षा और संबंधित मिट्टी के अपरदन का संकेत देती है साथ ही इसमें अलग अलग जिलों के बीच बड़ा परिवर्तन देखने को मिला है।
"केरल राज्य में बारिश हमेशा पश्चिमी घाटों के पर्वतीय प्रभाव के कारण औसत रूप से अधिक होती है, जिसका कारण वहाँ की ऊबड़ -खाबड़ स्थलाकृति है। साथ ही साथ, केरल में उच्च वर्षा दर होने के कारण, भूमि को अतिरिक्त मृदा अपरदन से बचाना आवश्यक है क्योंकि बारिश मिट्टी की सतह पर प्रभाव का मात्रात्मक प्रतिनिधित्व करती है," प्राध्यापक चिन्नास्मी कहते है।
मृदा क्षरण कारक, कटाव के लिए मिट्टी की संवेदनशीलता का अनुमान लगाते हुए,जो अलप्पुझा जिले में उच्चतम था, यह दर्शाता है कि राज्य भर में मौजूद रेतीली मिट्टी क्षरण प्रवृत्त है। इस कारक ने पश्चिमी घाटों की अत्यधिक ऊबड़ -खाबड़ स्थलाकृति की ओर भी संकेत दिया। ऐसे घुमाव और ढलान वाली स्थलाकृति एवं ढीली ऊपरी मिट्टी की सतह कटाव को बढ़ाती है।
कवर प्रबंधन कारक विश्लेषण से पता चला है कि जनवरी 2018 से अगस्त 2018 तक वनस्पति क्षेत्र लगभग 63% कम हो गया। बाढ़ के कारण वनस्पति भूमि बंजर स्थिति में बदल गई, जिससे यह मृदा अपरदन के लिए और अधिक संवेदनशील हो गया।
इसी तरह, औसत संरक्षण विधि कारक, जो मिट्टी के क्षरण को कम करने के लिए मिट्टी और जल संरक्षण उपायों के प्रभाव की कमी की मात्रा को बताता है,जो जनवरी 2018 में 0.8 से बढ़कर अगस्त 2018 में 0.89 हो गया। इसमें उच्चतम वृद्धि, 0.5 से 1 तक इडुक्की, कोट्टायम, एर्नाकुलम और त्रिशूर क्षेत्रों में देखी गई। यह वृद्धि बाढ़ के कारण अत्यधिक जल-भराव और ऊपरी सतह की मिट्टी अपरदन से फसलों में बहुत अधिक क्षति की तरफ इंगित करती है ।
शोधकर्ताओं ने पाया कि इडुक्की जिले में बाढ़ के दौरान मृदा अपरदन की दर में 220% की वृद्धि हुई, जबकि एर्नाकुलम जिले में 95% की वृद्धि देखी गई। दोनों जिलों में पश्चिमी घाटों से निकटता के परिणामस्वरूप अत्याधिक वर्षा, और साथ ही शहरीकरण में भारी वृद्धि का दोहरा अंतर है है। 2017 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि इडुक्की में वन क्षेत्र 1925 और 2012 के बीच 44% से अधिक कम हो गया, जबकि बस्तियों की आबादी में 400% की वृद्धि हुई।
इसी प्रकार से, 2018 में बाढ़ के दौरान तलछट जमाव की दर और कुल जमा मात्रा अत्याधिक रूप से बढ़ी, जिससे राज्य का इडुक्की क्षेत्र सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ। तलछट नदियों से लाई गई मिट्टी और भूमि से समुद्र में जाती हुई अन्य जल धाराओं द्वारा आती है। चूंकि ये जिला और उसके आसपास के क्षेत्र कई नदियों और जल धाराओं के उद्गम स्थल है, इसलिए उच्च क्षरण दर भी बहाव का कारण बनती हैं क्योंकि अधिक पानी जमा हो जाता है और तेज गति के साथ बह जाता है, जिससे जमाव की मात्रा बढ़ जाती है।
चित्र: 2018 की केरल बाढ़ के पहले और बाद में मिट्टी का कटाव दर [स्रोत]
आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि अधिक कटाव की दर केवल भारी वर्षा के कारण ही नहीं है, बल्कि प्राकृतिक भूमि के मानव बस्तिकरण में अस्थिर रूपांतरण के कारण भी हुई है।
“कुछ क्षेत्रों में, मानसून चक्र में परिवर्तन देखा गया है अथवा वर्षा संकेंद्रण में वृद्धि हुई है, जिसके कारण जलक्षेत्र में पानी का भंडारण कम हो रहा है और और अधिक बाढ़ की समस्या पैदा हो गयी है। प्राध्यापक चिन्नास्मी कहते हैं कि,” अन्य क्षेत्रों में, हमने भूमि उपयोग और भूमि आछादन स्वरूप में भारी बदलाव देखा है, जो कि जलवैज्ञानिक प्रणाली को परिवर्तित कर देता है और जिससे आकस्मिक बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।”
अतः स्थायी एवं जलवायुअनुकूल भविष्य के लिए मानव बस्तिकरण और मिट्टी प्रबंधन के तरीकों को समझना और इनमें सुधार करना आवश्यक है।
"इन संवेदनशील मुद्दों से निपटने के लिए तलछट डेटा और मिट्टी पोषक तत्वों के डेटा के संग्रह के लिए निगरानी केन्द्रों की स्थापना और मिट्टी संरक्षण गतिविधियों की आवश्यकता पर स्थानीय लोगों को शिक्षित करना आवश्यक है," प्राध्यापक चिन्नास्मी निष्कर्ष निकालते है।