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सूक्ष्मशैवाल बायोरिफाइनरी कैसे फायदे में चलाएँ

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मुंबई
4 मार्च 2019
सूक्ष्मशैवाल बायोरिफाइनरी कैसे फायदे में चलाएँ

आईआईटी बॉम्बे के वैज्ञानिकों ने सूक्ष्मजीव बायोरिफाइनरीज़ के लाभप्रदता का आंकलन उसके सहउत्पाद के बाज़ार की मांग और कार्बन कैप्चर के आधार पर किया

ऊर्जा के लिए हमारी बढ़ती ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सूक्ष्म शैवाल पर चलने वाली बायोरेफाइनरी अपरंपरागत विकल्पों में से एक है। पिछले अध्ययनों ने यह साबित किया है कि सूक्ष्मजीव बायोमास से केवल बायोडीजल का उत्पादन लाभदायक नहीं हैहालांकि, बायोडीजल बनाने की प्रक्रिया में  बनने वाले  उत्पादों की भारी माँग है । एक नए अध्ययन में, प्राध्यापक  योगेंद्र शास्त्री और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बॉम्बे (आईआईटी बॉम्बे) में  उनकी टीम ने एक कंप्यूटर सिमुलेशन टूल तैयार किया है जो उत्पादों और रिफाइनरी के सह-उत्पादों की मांग और बाजार मूल्य को ध्यान में रख कर, प्रक्रिया में बदलाव के साथ उनके आउटपुट वॉल्यूम्स की सलाह देता है जो रिफाइनरी को लाभप्रद तरीके से चलाने के लिए अत्यंत आवश्यक  है।

सूक्ष्म-शैवाल वह जीव  हैं जो प्रकाश संश्लेषण  तो करते है परन्तु  उनको पौधों की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। वे जैव ईंधन के उत्पादन के लिए पसंद किये जाते हैं क्योंकि उन्हें आसानी से गैर-कृषि भूमि पर उगाया जा सकता है और वह  बहुत तेजी से बढ़ते हैं, जो पौधों में सम्भव  नहीं है।  सूक्ष्म-शैवाल  अपशिष्ट जल से पोषक तत्वों  एवं  औद्योगिक फ़्लू गैसों से कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग कर जैव ईंधन के साथ-साथ अन्य उपयोगी उत्पादों जैसे लिपिड्स, प्रोटीन और कुछ शुगर तत्त्व का उत्पादन कर सकते हैं।

प्राध्यापक  शास्त्री कहते हैं, "वनस्पति आधारित जैव ईंधन, जैसे शीरा  पहले से ही बाजार में हैं और अब बहुत जल्द कृषि अवशेष से बनने वाले जैव-ईंधन भी अगले दो से तीन वर्षों में बाजार में आने की उम्मीद है।  सूक्ष्म-शैवाल से बनने वाले जैव ईंधन को बाजार तक ले जाने से पहले उसके समस्त निर्माण प्रक्रिया को बाजार की ज़रूरतों को ध्यान में रख कर तथा बायोरेफाइनरी प्रक्रिया से प्राप्त उत्पादों को बेहतर करने की जरूरत है।”

सूक्ष्म-शैवाल से जैव ईंधन और सह-उत्पादों का उत्पादन एक लंबी प्रक्रिया है, जिसमें  हर एक प्रक्रिया वांछित सह-उत्पादों पर निर्भर करती है। उत्पादों के विशिष्ट संयोजन को बनाने के कई तरीके हो सकते हैं और आवश्यक उपकरण भी अलग-अलग हो सकते हैं। उत्पादन व्यय अथवा कुल लाभ इस  बात पर निर्भर करेगा की प्रत्येक चरण में डिजाइन किस तरह की होगी। इसीलिए ये ज़रूरी है की एक ऐसा गणितीय मॉडल हो  जो प्रक्रिया को अनुकरण और अनुकूलित कर सके, और साथ ही लागत, उत्पादन मात्रा और मुनाफे की जानकारी सही तरीके से प्रदान कर उच्च  उत्पादन चरणों का चयन करने में मदद करे।

पिछले, संबंधित अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने एक मॉडल का प्रस्ताव दिया है जिसमें सूक्ष्मजीव का पैदावरण तथा उसका इस्तेमाल कर उसमे से लिपिड और फिर ईंधन का निकालने का ज़िक्र किया है। मॉडल प्रत्येक चरण में हर प्रक्रिया की अनुसार विभिन्न पैरामीटर के चयन की सुविधा प्रदान करता है। उदाहरण के तौर पर, जैसे कोई भी शैवाल की पैदावार में कितने दिन लगेंगे,  तालाब का आकार क्या होगा और उसके उगाने की लिए क्या क्या चीज़ो की जरुरत होगी, इन सब की जानकारी प्रदान कर सकता है।

कटाई और निष्कर्षण चरणों में बहुत से उपलब्ध विकल्प है जैसे कि कौन सी तकनीक का उपयोग करना, प्रसंस्करण कंटेनर का आकार क्या होगा, संचालन का अनुक्रम और कौन कौन से विभिन्न रसायनों का उपयोग किया जा सकता है। मॉडल सालाना जीवन चक्र लागत की गणना करता है, जो कुल मिलाकर रिफाइनरी के जीवनकाल में कच्चे माल और प्रति वर्ष बायोडीजल के उत्पादन के लिए खर्च की गई लागत है। इसे रिफाइनरी की निश्चित और परिचालन लागत भी माना जाता है।

इस अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने इस संभावना पर कि सूक्ष्मजीव को मुख्य रूप से कार्बन डाइऑक्साइड पकड़ने के लिए उगाया जा सकता है, पर विचार करने के लिए मौजूदा मॉडल को संशोधित किया है। यह तथ्य जैव ईंधन के उत्पादन में  विशिष्ट प्रक्रिया विकल्प को ज़रूरी बनाता है। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन एक दंडनीय अपराध जिसके उपरोक्त जुरमाना भरना पड़ सकता है, जो एक और खर्च होगा। परन्तु यदि बायोरेफाइनरी एक संलग्न उद्योग द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग कर सके, तो यह फायदेमंद साबित हो सकता है। बुनियादी ढांचे की लागत खर्च में जुड़ती है, लेकिन मॉडल कि जरिये ऐसी योजना खोजने में मदद मिल सकती है जो इन दो विरोधाभासी आवश्यकताओं को संतुलित करने में मदद कर सकती है।

लेखकों की मानें तो "संशोधित मॉडल बायोरेफाइनरी के नामित उद्देश्य के संबंध में आधार मॉडल से थोड़ा अलग है। संशोधित मॉडल अपस्ट्रीम पर कार्बन अनुक्रमण को मॉडल करता है, जबकि आधार मॉडल केवल बायोडीज़ल उत्पादन की लागत को कम करने पर केंद्रित है "। संशोधित मॉडल बायोडीजल और अन्य मूल्यवर्धित उत्पादों की बाजार में मांग और बिक्री मूल्य को भी ध्यान में रखता है।

इन मॉडलों के साथ, वैज्ञानकों ने चार परिदृश्यों का विश्लेषण किया। एक, जहां कम चीनी के लिए असीमित बाजार की मांग है और चीनी का उत्पादन चरम सीमा पर है, दूसरा जहां प्रोटीन एक प्रोडक्ट होता है, तीसरा जहां ध्रुवीय लिपिड एक प्रजनन होता है, और चौथा, जहां अवशिष्ट बायोमास का प्रयोग उर्वरक बनाने के लिए किया जाता है। प्रत्येक परिदृश्य के लिए, वैज्ञानिकों ने संभावित खर्च और मुनाफे का मूल्यांकन किया है । उन्होंने पाया कि पहला परिदृश्य यानी कि अधिकतम चीनी उत्पादन के साथ, सबसे अधिक लाभ पाया जा सकता है।

संशोधित मॉडल का उपयोग करके, वैज्ञानिकों ने दो और परिदृश्यों का अनुकरण किया जहां बायोडीज़ल की संभावित बिक्री मूल्य एक मामले में सबसे कम थी और दूसरे में सबसे ज्यादा थी। इन सिमुलेशन में कार्बन डाइऑक्साइड खपत के कारण उन्होंने लागत बचत को भी शामिल किया। जब बायोडीजल की बिक्री मूल्य प्रति लीटर ₹३० थी, तो रिफाइनरी को ७० करोड़ रुपये का घाटा हुआ, और केवल ३% कार्बन डाइऑक्साइड का ही उपयोग हो सका। परन्तु जब बायोडीजल की बिक्री मूल्य प्रति लीटर ₹ ६०० हो, तो ९९% से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग किया जा सकता है, और कुल वार्षिक राजस्व ₹१८०० करोड़ होगा।

अगले चरण के रूप में, वैज्ञानिकों की योजना पर्यावरण पर ऐसी सूक्ष्मजीव बायोरिफाइनरी के प्रभाव का अध्ययन करने की है। "अगला कदम इन रिफाइनरियों में शामिल प्रक्रियाओं के पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन करना है। हमने पहले ही उस पर काम करना शुरू कर दिया है, "प्रोफेसर शास्त्री ने टिप्पणी की। केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति को लागू करने के कारण, बायोरेफाइनरीज़ बहुत जल्द एक बाजार संचालित क्षेत्र के अनुसार काम करेंगी और उस लिहाज से ये अध्ययन बहुत ज़रूरी और सही समय पर किया गया है।