भवनों की छतों पर छोटे-छोटे पेड़-पौधों का रोपण कर, घने नगरीय क्षेत्रों में बाढ़ के प्रकोप एवं अपवाह (रनऑफ) को घटाया जा सकता है।

भविष्य में बैटरी की जगह मिनी-ईंधन इंजन ले सकते हैं

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मुंबई
30 अक्टूबर 2020
भविष्य में बैटरी की जगह मिनी-ईंधन इंजन ले सकते हैं

दुनिया भर के वैज्ञानिक पारंपरिक रासायन-आधारित बैटरियों के पर्यावरण-अनुकूल विकल्पों की तलाश करते आये हैं। ऐसे ही एक प्रयास में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुम्बई (आई आई टी बॉम्बे) के शोधकर्ताओं ने एक माइक्रो-कॉम्ब्सटर का प्रारूप बनाया है जो कार्यदक्ष होने के साथ-साथ पर्यावरण के भी अनुकूल है। यह अध्ययन विज्ञान और अभियांत्रिकी बोर्ड (एस ई आर बी) और विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डी एस टी) द्वारा वित्त पोषित है, और इसे एप्लाइड फिजिक्स लेटर्स, एनर्जी कन्वर्शन एंड मैनेजमेंट, और एप्लाइड एनर्जी समेत विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित किया गया है।

एक जगह पर स्थिर रहने वाले कंप्यूटर और टेलीफोन से पोर्टेबल लैपटॉप और सेलफोन तक की विशाल छलांग लगाने में बैटरियां सबसे बड़ी भूमिका निभाते हैं। हालाँकि उन्होंने दुनिया भर में संपर्क क्रांति ला दी है, लेकिन इन बैटरियों ने हमारे पर्यावरण पर गहरा असर भी डाला है। ज्यादातर बैटरियों में निकल, कोबाल्ट और लेड जैसी भारी धातुएं मौजूद होती हैं, जो फेंके जाने के बाद मिट्टी में रिसते रहते हैं। इन विषाक्त धातुओं को पौधे और वनस्पतियाँ सोखती हैं, जिसके परिणामस्वरूप हमारी खाद्य श्रृंखला में इनका संचय हो जाता है। बड़ी मात्रा में सेवन करने पर ये धातुएं हानिकारक होती हैं और हमारे शरीर के कार्यकलापों को बाधित कर सकती हैं।

माइक्रो-कम्बस्टर मिनी-ईंधन इंजन होते हैं जो किसी कलम से भी छोटे होते हैं। ये कम्बस्टर तेज़ गर्मी पैदा करने के लिए रसोई में इस्तेमाल होने वाले लिक्विफाइड पेट्रोलियम गैस (एल पी जी) जैसे ईंधन जलाते हैं, जिससे बिजली पैदा की जाती है। आमतौर पर उपयोग की जाने वाली बैटरियों की तुलना में ये पर्यावरण के अधिक अनुकूल होते हैं।

"हालांकि ईंधन-आधारित बिजली के स्रोत पर्यावरण के लिये चिंता का कारण हो सकते हैं, लेकिन दिनभर में एक माइक्रो-कम्बस्टर किसी मनुष्य से भी कम मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड और जल का उत्सर्जन करता है," श्री बी अरविंद कहते हैं, जो आईआईटी बॉम्बे में शोधकर्ता और इस अध्ययन के लेखक हैं।

चूँकि माइक्रो-कॉम्पेस्टर निरंतर ईंधन आपूर्ति पर निर्भर करते हैं, उन्हें रिचार्ज करने की आवश्यकता नहीं होती है, और इसलिए ये निरंतर बिजली प्रदान कर सकते हैं।

ब्रिटेन के शेफ़ील्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक भूपेंद्र खंडेलवाल के सहयोग से आई आई टी बॉम्बे के प्राध्यापक सुदर्शन कुमार और उनके शोधकर्ताओं की टीम ने मिलकर एक दोहरे माइक्रो-कम्बस्टर का खाका तैयार किया है। इसमें एक एकल माइक्रो-कॉम्बस्टर के बजाय दो छोटे माइक्रो-कॉम्बोस्टरों को एक साथ रखा जाता है, ताकि दो लौओं से उत्पन्न गर्मी बराबर फैली रहे। नतीजतन, इसमें उत्पन्न गर्मी को बेहतर ढंग से इस्तेमाल में लाया जाता है, और यह यंत्र समान मात्रा के ईंधन से मौजूदा माइक्रो-कॉम्बस्टर की तुलना में अधिक बिजली उत्पन्न कर सकता है। यह उत्पादित बिजली पर समझौता किए बिना भी बहुत छोटा और सुसंबद्ध है।

माइक्रो-कम्बस्टर में एक महत्वपूर्ण चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि उसमें जलने वाली लौ एक लंबे समय तक न बुझें।

“छोटे कम्बस्टरों में लौ भी छोटी होती हैं, और गर्मी के उत्पन्न होने की तुलना में उसका नुकसान भी काफी होता है। उच्च ताप के विघटन के कारण लौ बुझने की संभावना अधिक रहती है,” श्री अरविंद बताते हैं।

यह वैसी ही स्थिति है जैसी किसी हवादार रात में अलाव के जलाये रखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। शोधकर्ताओं ने ज्वलन-कक्ष और गैस के निकास के मुहाने के बीच सिरेमिक ऊन भरकर इस समस्या को संबोधित किया है, जिससे लौ में स्थिरता आई है। सिरेमिक ऊन निकास गैसों को अपने छिद्रों से निकलने देता है, लेकिन साथ ही यह इन गैसों को निष्कासन के दर को धीमा भी कर देता है। इस प्रक्रिया में यह उत्सर्जित गैस की थोड़ी गर्मी को वहां पर कैद कर लेता है, जिससे अन्दर आने वाले ठन्डे ईंधन के लिए कक्ष पहले से गर्म रहता है, और वह तेजी से प्रज्वलित हो जाता है।

श्री अरविंद कहते हैं, "सिरेमिक ऊन और सिलिकॉन कार्बाइड समेत कई अन्य पदार्थों के माइक्रो-कम्बस्टर में उपयोग की बहुत अधिक गुंजाइश है, जिसपर अभी काम नहीं हुआ है।"

यह नया मॉडल निकासी वाली गैस में मौजूद गर्मी का सदुपयोग करता है, जो अन्यथा बर्बाद हो जाता है।

शोधकर्ताओं ने लौ को स्थिर करने के लिए एक और कारगर उपाय अपनाया है। उन्होंने ज्वलन-कक्ष की दीवारों को चौड़ी होती पैड़ियों की एक श्रृंखला के रूप में तैयार किया है। प्रत्येक चरण में कक्ष के आकार में यह अचानक वृद्धि ईंधन के प्रवाह को बाधित करती है और इसे असमान बनाती है। फलस्वरूप, इन चरणों में छोटी धाराएं बनती जाती हैं, और इंधन का प्रवाह धीमा हो जाता है।

"हमें माइक्रो-कम्बस्टर के अन्दर अधिक समय तक इंधन को रखने की आवश्यकता है, जिससे वह पूरी तरह से जल जाता है उससे अधिक मात्रा में उर्जा निचोड़ा जा सकता है," श्री अरविंद ने अपनी पौड़ीदार कक्ष के ढाँचे पर ज़ोर देते हुए कहा। "पौड़ीदार कक्ष का निर्माण आसान है क्योंकि इसमें साधारण ड्रिलिंग का इस्तेमाल किया जाता है," वे कहते हैं।

दोहरे माइक्रो-कॉम्बस्टर का यह नया ढांचा 4 वाट की शक्ति उत्पन्न कर सकता है, जो कि मोबाइल फोन को चार्ज करने के लिए पर्याप्त है। प्राध्यापक कुमार की टीम अब इस पैदावार को चार गुना करने के लिए नए खाके विकसित कर रही है ताकि लैपटॉप जैसे बड़े यंत्र भी इस माध्यम से चार्ज किये जा सकें। हालाँकि, इन माइक्रो-कम्बस्टरों को हमारे घरों में प्रवेश करने के लिए अभी भी लंबा रास्ता तय करना है। फिलहाल उन्हें ऑक्सीजन आपूर्ति टैंक और थर्मोइलेक्ट्रिक जनरेटर मॉड्यूल जैसे कई भारी और अतिरिक्त उपकरणों की आवश्यकता होती है जो गर्मी से बिजली उत्पादन करने में मदद करते हैं। इसलिए शोधकर्ता आत्मोचारित माइक्रो-कम्बस्टरों पर काम कर रहे हैं जो ऑक्सीजन टैंक के बजाय वायुमंडल से ऑक्सीजन सोखकर अपना काम चलाते हैं।

"हमारा अंतिम लक्ष्य एक आत्मनिर्भर, सस्ता और विश्वसनीय माइक्रो-कम्बस्टर आधारित पावर जनरेटर विकसित करना है जो सुवाह्य होगा और जिसे व्यावसायिक रूप से निर्मित किया जा सकेगा," श्री अरविंद अपनी बात पूरी करते हुए कहते हैं।


इस लेख में जिन शोधकर्ताओं के काम को सम्मिलित किया गया है, उन्हें यह लेख पढ़ाया भी गया है, जो लेख की सटीकता को सुनिश्चित करता है।