भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी मुंबई) के शोधकर्ता, प्राकृतिक संसाधनों में निरंतर हो रही प्रदूषण वृद्धि के समाधान हेतु विषैले रसायनों एवं प्रदूषकों पर पलने वाले जीवाणुओं (बैक्टीरिया) का अध्ययन कर रहे हैं। एन्वायरोनमेंटल टेक्नालॉजी एंड इनोवेशन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित एक नवीन अध्ययन के अनुसार मिट्टी से कार्बनिक प्रदूषकों को दूर करने हेतु इन शोधकर्ताओं ने विशिष्ट जीवाणु प्रजातियों का उपयोग किया है। ये जीवाणु पौधों के विकास में सहायक हार्मोन की वृद्धि करने, हानिकारक कवक के विकास को अवरुद्ध करने एवं सरलता पूर्वक पौधों को आवश्यक पोषक तत्व उपलब्ध कराने में भी सहायक हैं। ये रासायनिक कीटनाशकों पर हमारी निर्भरता को कम करने के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरता एवं स्वास्थ्य की उन्नति में सहायक हो सकते हैं।
कीटनाशकों (इंसेक्टिसाइड एंड हर्बिसाइड) के रूप में एरोमैटिक यौगिकों (बेंजीन जैसी वलयदार संरचना युक्त कार्बनिक यौगिक) द्वारा होने वाला मिट्टी का संदूषण आज कृषि उद्योग की प्रमुख समस्याओं में से एक है। ये विषैले यौगिक बीज के अंकुरण को बाधित कर सकते हैं, पौधों की वृद्धि एवं उपज को कम कर सकते हैं, एवं बीजों तथा पौधों में (बायोमास में) भी एकत्र हो सकते हैं। कीटनाशकों के निर्माण में कार्बरिल, नेफ्थलीन, बेंजोएट, 2,4-डाइक्लोरो फेनोक्सी एसिटिक एसिड एवं थैलेट्स जैसे अनेकों सुगंधित प्रदूषकों का प्रयोग बड़े स्तर पर किया जाता है। सौंदर्य प्रसाधन, कपड़ा, निर्माण, खाद्य एवं खाद्य परिरक्षण, रंग, पेट्रोलियम तथा प्लास्टिक जैसे अन्य उद्योगों से उप-उत्पादों के रूप में भी ये एरोमैटिक प्रदूषक उत्पन्न होते हैं। इन प्रदूषकों को दूर करने की पारंपरिक विधियाँ जैसे रासायनिक उपचार या मिट्टी का स्थानान्तरण बहुधा समस्या के सम्पूर्ण निदान में असमर्थ एवं अपव्ययी सिद्ध होती हैं।
आईआईटी मुंबई के शोधदल ने विषैले वातावरण में कुछ ऐसे जीवाणु खोज निकाले हैं जो इस समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने देखा कि कुछ जीवाणु प्रजातियाँ, विशेषत: जेनेरा स्यूडोमोनास एवं एसिनेटोबैक्टर एरोमैटिक यौगिकों को तोड़ने में विशेष रूप से दक्ष हैं।
“इन जीवाणुओं को दूषित मिट्टी एवं कृषि क्षेत्रों से पृथक किया गया। वे जीवाणु प्रदूषकों का भक्षण कर उन्हें सरल, हानिरहित एवं विष-रहित यौगिकों में तोड़ देते हैं। इस प्रकार वे प्रदूषित वातावरण के प्राकृतिक मार्जक (क्लीनर) के रूप में कार्य करते हैं,” आईआईटी मुंबई में जीवविज्ञान एवं जैव अभियांत्रिकी विभाग के प्राध्यापक प्रशांत फले बताते हैं, जिनके मार्गदर्शन में श्री. संदेश पापड़े ने यह पीएचडी शोधकार्य किया है।
एरोमैटिक प्रदूषकों को तोड़ते समय ये जीवाणु फॉस्फोरस तथा पोटेशियम जैसे आवश्यक पोषक तत्वों के अघुलनशील रूप को घुलनशील रूप में रूपांतरित करके उन्हें सरलता से पौधों को उपलब्ध करा कर ‘एक पंथ दो काज’ नामक उक्ति को चरितार्थ करते हैं। वे साइडरोफोर नामक पदार्थ भी बनाते हैं, जो पोषक तत्वों की न्यूनता वाले वातावरण में पौधों के द्वारा लौह का अवशोषण किये जाने में सहायक है। इसके अतिरिक्त ये जीवाणु इंडोल एसिटिक एसिड नामक वृद्धि (ग्रोथ) हार्मोन की उच्च मात्रा का उत्पादन करके पौधों की वृद्धि एवं स्वास्थ्य में भी योगदान देते हैं।
“अत: मिट्टी को साफ करने के साथ-साथ ये जीवाणु इस मिट्टी को उर्वर भी बनाते हैं, तथा मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार कर पौधों को स्वास्थ्य एवं सुदृढ़ता प्रदान करने में भी सहायता करते हैं,” प्राध्यापक फले कहते हैं।
रोचक बात है कि जब स्यूडोमोनास एवं एसिनेटोबेक्टर प्रजाति के जीवाणुओं का मिश्रण उपयोग किया जाता है, तो वे उपज (गेहूं, मूंग, पालक, मेथी, आदि) को 45-50% तक बढ़ा देते हैं।
“कहा गया है कि ‘एकता सबसे उत्तम नीति है’। कुछ जीवाणु प्रदूषकों को तोड़ने में, जबकि अन्य जीवाणु पौधे की वृद्धि में सहायता प्रदान करने या रोगों की रोकथाम में श्रेष्ट हो सकते हैं। उन्हें संयुक्त करके हमने जीवाणुओं का एक दल निर्मित किया है जो मिलकर कार्य करते हुए विभिन्न कार्यों को एक साथ एवं अधिक कुशलता से कर सकते है,” प्रा. फले ने बताया।
कवक जनित (फंगल) रोग एक अन्य समस्या है, जो विश्व में विभिन्न प्रकार की उपज को प्रभावित कर रही है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार सैकड़ों फंगल रोग मानव पोषण के लिए आवश्यक 168 प्रकार की उपज को प्रभावित करते हैं। कवक-नाशकों एवं रोग प्रतिरोधी कृष्य प्रजातियों के उपयोग के उपरांत भी आज 10-23% वार्षिक वैश्विक उपज की हानि का कारण कवक संक्रमण है। इनमें चावल एवं गेहूं जैसे भारत में उपयोग किये जाने वाले प्रमुख अनाज विशेष रूप से प्रभावित होते हैं।
आईआईटी मुंबई द्वारा किये गए इस अध्ययन में इस गंभीर समस्या का भी संभावित समाधान है।
ये सहायक जीवाणु लायटिक एंजाइम तथा हाइड्रोजन सायनाइड जैसे पदार्थ निर्मित करते हैं जो पौधों में रोगजनक कवक को मार सकते हैं या उनकी वृद्धि को अवरुद्ध कर सकते हैं।
“ये जीवाणु पौधों की प्राकृतिक रक्षा प्रणाली के रूप में कार्य करते हैं। पर्यावरण एवं लाभकर जीवों को संभावित हानि पहुंचाने वाले रासायनिक कीटनाशकों के विपरीत ये सहायक जीवाणु पर्यावरण के अनुकूल हैं एवं केवल हानिकारक कवक पर ही प्रहार करते हैं," प्रा. फले बताते हैं।
यद्यपि शोध निष्कर्षों में प्रत्यक्ष परिस्थितियों के लिए बहुत संभावनाएं हैं, किन्तु प्रा. फले का मानना है कि "इसे व्यापक रूप से अपनाये जाने में कुछ समय लगेगा, क्योंकि प्रौद्योगिकी संवर्धन, विभिन्न वातावरणों में परीक्षण एवं वाणिज्यिक उत्पादों के रूप में उपलब्ध कराने की आवश्यकता होगी।"
शोधकर्ता भविष्य में यह भी देखना चाहते हैं कि ये सहायक जीवाणु अनावृष्टि (ड्राट्स) एवं अन्य विषम पर्यावरणीय परिस्थितियों में पौधों को कैसे लाभ पहुँचाते हैं। उनका उद्देश्य जीवाणुओं को प्राकृतिक सामग्रियों के साथ मिलाकर “बायो-फ़ॉर्मूलेशन” के रूप में सरलतम उपयोगी उत्पाद निर्मित करने का भी है, ताकि कृषि क्षेत्रों में किसानों के उपयोग के लिए इसे टिकाऊ एवं सरलतम स्वरुप प्रदान किया जा सके।