विकास और योजना अधिकारियों की मदद के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई द्वारा पारिस्थितिक संवेदनशीलता के व्याख्यान के लिए अध्ययन प्रस्ताव।
हाल ही में भारत में ऑलिव रिडले कछुओं के पुन: प्रवेश से पता चला है कि भारतीय तट कैसे प्रवासी जानवरों का पसंदीदा गंतव्य है। भारत की ७५०० किमी की विशाल तट-रेखा न केवल विभिन्न वनस्पतियों एवं जीवों का घर है, किंतु देश की ४० प्रतिशत आबादी का निवास स्थान भी है। तट-रेखा पर होने वाली विकास गतिविधियां तटीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई से प्राध्यापक प्रदीप कालबर, प्राध्यापक अरुण इनामदार, और श्री रविंद्र धीमन ने भारत सरकार द्वारा मौजूदा तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना की कमियों को दूर करने के उद्देश्य से शहरी तटीय क्षेत्रों के वर्गीकरण की एक नई प्रणाली विकसित की है।
वर्तमान तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना समुद्र तट पर पायी जाने वाली जैव-विविधता या भू-दृश्य में होने वाले परिवर्तनों पर विचार नहीं करती है। शोधकर्ता तटीय क्षेत्रों से संबंधित निर्णय लेते हुए इन कारणों को प्राथमिकता देने पर बल देते हैं जिससे वे योजनाबद्ध और लम्बे समय तक कायम रह सकें। यह नया दृष्टिकोण इन पहलुओं पर विचार करता है और पर्यावरण क्षति से छूट मांगने के लिए निहित हितों के खिलाफ अदालत से लड़ने के लिए एक मजबूत आधार प्रदान करता है।
भारत सरकार ने तटीय क्षेत्र के विकास और औद्योगिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए 'तटीय विनियमन क्षेत्र अधिसूचना' (सीआरजेड) लागू की। वर्ष १९९१ में इस अधिसूचना को प्रस्तावित किया गया और २०११ में संशोधित किया गया था। यह अधिसूचना तटीय क्षेत्रों के विभिन्न हिस्सों में होने वाली गतिविधियों के लिए नियामक प्रक्रियाओं की योजना तैयार करती है। इस अधिसूचना का प्राथमिक उद्देश्य परंपरागत मत्स्यपालन, जैव-विविधता, और प्राकृतिक तटीय पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण है, किंतु निर्माण-कर्ताओं को छूट देने के लिए बाद में किए गए संशोधनों ने इस अधिसूचना को अपने मूल उद्देश्य से विमुख कर दिया है। इस कारण वश व्यावसायिक हितों को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्रों की सुरक्षा से समझौता किया जा रहा है।
तटीय रेखाओं में समुद्र, खाड़ियाँ, नदमुख, सँकरी-खाड़ियाँ, नदियाँ, और बैकवाटर शामिल हैं। सीआरजेड (२०११) पूरे भारत में तटीय रेखाओं को चार क्षेत्रों में वर्गीकृत करता है---सीआरजेड १ (पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों जैसे मैंग्रोव और मूंगा चट्टानें), सीआरजेड २ (विशिष्ट आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र एवं वह क्षेत्र जो पहले से ही विकसित हो चुके हैं), सीआरजेड ३ (सीआरजेड १ और सीआरजेड २ के क्षेत्रों को छोड़कर, खुले क्षेत्र जो अपेक्षाकृत अछूते हैं), और सीआरजेड ४ (निचली ज्वार रेखा के क्षेत्रीय जल से लेकर समुद्र में १२ समुद्री मील तक और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, लक्षद्वीप और अन्य छोटे द्वीपों से संबंधित क्षेत्र)। हालांकि वर्तमान वर्गीकरण तटीय पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिए एक अच्छा प्रयास है किंतु संरक्षित क्षेत्र की सीमा के लिए कोई सटीक तर्क एवं दिशा निर्देशों के अभाव में इस वर्गीकरण में अस्पष्टता है। उदाहरण के लिए, सीआरजेड १ के अनुसार डेवलपर्स की गतिविधियों को एक उच्च ज्वार-रेखा से ५०० मीटर तक अवरुद्ध कर दिया गया है जबकि सीआरजेड ३ के अनुसार, उच्च ज्वार रेखा से ०-२०० मीटर के बीच कोई विकास की अनुमति नहीं है।
प्राध्यापक अरुण इनामदार कहते हैं कि,"अलग-अलग स्थितियों के लिए ५०० मी. या २०० मी. की दूरी का चुनाव करने के लिए कोई स्पष्ट वैज्ञानिक आधार नहीं है। कई ऐसे स्थान हैं जहाँ पारिस्थिकी तंत्र को प्रभावी ढंग से संरक्षित करने के लिए प्रतिबंधित क्षेत्र बढ़ाने की आवश्यकता है, एवं कई ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ ५०० मी. दूरी के अंदर कोई महत्त्वपूर्ण पारिस्थिकी तंत्र नहीं है जिसे संरक्षित करने की आवश्यकता हो ।"
दुर्भाग्य से, नए सीआरजेड (२०१८) में भी समान कमियाँ हैं। प्राध्यापक इनामदार कहते हैं कि,"इसमें किसी भी वैज्ञानिक तर्क की कमी है और पहले के परिवर्तनों की तरह ही समान अंत की सम्भावना है क्योंकि इसने पर्यावरणीय या पारिस्थितिक संरक्षण मोर्चे पर कोई स्पष्ट लक्ष्य तय नहीं किया है।”
शोधकर्ता भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) और गणितीय मॉडल पर आधारित वर्गीकरण के नए सुझाव देते हैं। जीआईएस एक कंप्यूटर आधारित सॉफ़्टवेयर है जो सभी प्रकार के भौगोलिक जानकारियों का विश्लेषण करने के लिए बनाया किया गया है। यह प्रणाली भविष्य में उपयोग के लिए भूमि की सही विशेषताओं की पहचान करने में मदद करती है। किंतु इसमें नियंत्रक निर्णयों और योजनाकारों की प्राथमिकताओं को शामिल नहीं किया जाता है। इस कमी को हल करने के लिए, शोधकर्ताओं ने गणितीय तकनीक का उपयोग किया, जिसे एमसीडीएम (मल्टी क्राइटेरिया डिसिशन मेकिंग) कहते हैं, जो जीआईएस के साथ निर्णय लेना में विवादित मानदंडों के एक सेट का मूल्यांकन करता है।
प्राध्यापक कालबर स्पष्ट करते हैं कि, “हमने एक मजबूत वैज्ञानिक आधार प्रस्तावित किया है जिससे मानवीय हस्तक्षेप के बिना क्षेत्रीय वर्गीकरण संभव है। इसीलिए यह प्रस्ताव निष्पक्ष एवं पारदर्शी है।”
हालांकि वैज्ञानिकों ने पहले शहरी नियोजन और खाद्य सुरक्षा जैसे अनुप्रयोगों के लिए जीआईएस और डिसिशन-मेकिंग मॉडल के संयोजन का उपयोग किया था, लेकिन इस अध्ययन में तटीय क्षेत्रों को वर्गीकृत करने के लिए पहली बार इस संयोजन का प्रयोग किया गया है।
शोधकर्ताओं ने रिमोट-सेंसिंग डेटा मुंबई के तटीय क्षेत्रों पर मौजूदा साहित्य, और सरकारी एजेंसियों के अन्य आंकड़ों का उपयोग भूमि-उपयोग एवं भूमि-समाविष्ट का अनुमान लगाने के लिए किया। फिर उन्होंने आंकड़ों, पारिस्थितिकीय संवेदनशीलता से संबंधित निवेश, और डिसिशन-मेकिंग मॉडल के आधार पर प्रत्येक श्रेणी के लिए 'तटीय क्षेत्र सूचकांक' (सीएआई) की गणना की, जिसमें नियामक और नियोजन निर्णय शामिल थे। सीएआई पारिस्थितिक रूप से अधिक संवेदनशील क्षेत्रों को इंगित करते हुए उच्च संख्या के साथ-साथ ०-१० के बीच हो सकता है।
नई वर्गीकरण प्रणाली तटीय क्षेत्रों को चार प्रकार में भी वर्गीकृत करती है---कक्षा १ (उच्च ज्वार के दौरान पानी के नीचे अति संवेदनशील क्षेत्र और सीएआई मूल्यांकन नियुक्त नहीं हैं), कक्षा २ (६-१० सीएआई मूल्यांकन वाले अत्यधिक संवेदनशील क्षेत्र, जहां विकास गतिविधियाँ प्रतिबंधित हैं), कक्षा ३ (३-६ से सीएआई मूल्यांकन वाले मामूली संवेदनशील क्षेत्र, जहां व्यापक पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के बाद विकास गतिविधियों की अनुमति दी जा सकती है) और और कक्षा ४ (० से ३ के बीच सीएआई मूल्यांकन के साथ कम संवेदनशील क्षेत्र जहां विकास गतिविधियों को अन्य नियमों की पुष्टि के बाद अनुमति दी गई)। उदाहरण के लिए, ठाणे क्रीक, एक पारिस्थितिकीय ‘हॉटस्पॉट’, को 'अत्यधिक संवेदनशील' के रूप में वर्गीकृत किया गया है। दक्षिणी और पश्चिमी मुंबई के कई हिस्सों में, समुद्र तट से कुछ किलोमीटर दूर संरक्षित करने लायक कुछ नहीं बचा है और इसे 'कम संवेदनशील' के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
सीएआई का उपयोग करने में ये फायदा है की इसे ओपन सोर्स उपग्रह इमेजरी संसाधनों का उपयोग प्राप्त किया जा सकता है और किसी भी एजेंसी/नगर पालिका के लिए उपलब्ध हो सकता है। इसके अलावा, सीएआई विभिन्न तटीय विशेषताओं के लिए ३० मीटर रिज़ॉल्यूशन पर क्षेत्र वर्गीकृत करता है, जो वर्गीकरण की वर्तमान विधि से कहीं अधिक सटीक है।
अध्ययन निष्पक्ष, पारदर्शी, और वैज्ञानिक होने के कारण तटीय क्षेत्र प्रबंधन के लिए एक उमदा ढांचा प्रदान करता है।
प्राध्यापक इनामदार बताते हैं कि, “यह प्रणाली निर्णय विज्ञान पर आधारित है जहाँ मानदंड हितधारकों के व्यक्तिपरक हित के बजाय तटीय सुविधाओं की भौतिक उपयोगिता पर निर्भर करते हैं।” शायद, अब हम भारतीय तटों पर योजनाबद्ध शहरों की उम्मीद कर सकते हैं जो हमें समुद्र का आनंद लेते हुए जैव-विविधता का ख्याल रखने की प्रेरणा दें।