वैज्ञानिकों ने आरोपित विकृति के अंतर्गत 2-डी पदार्थों के परमाण्विक गुणों का सैद्धांतिक परीक्षण किया है।

यह अध्ययन दिखाता है कि उपचार के बाद भी क्षयरोग के कारण फेफड़ों पर पड़े दाग बचे रह जाते हैं .

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Bengaluru
23 अक्टूबर 2020
यह अध्ययन दिखाता है कि उपचार के बाद भी क्षयरोग के कारण फेफड़ों पर पड़े दाग बचे रह जाते हैं .

क्षय रोग के नाम से ही कई लोग भयभीत हो जाते हैं क्योंकि यह दुनिया भर में मृत्यु के मुख्य कारणों में से एक माना जाता है। हालाँकि अनेक औषधियों के एक साथ उपयोग से इसका उपचार संभव है, इसके जीवाणु में बढ़ती हुई औषध प्रतिरोध की शक्ति के कारण, सार्वजनिक स्वास्थ्य पर संकट आ गया है। माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्युलोसिस नाम का जीवाणु, जिससे ये संक्रमण होता है, सबसे पहले फेफड़ों पर असर करता है। हालाँकि क्षय निवारक औषधियाँ इस रोग को छह महीनें में दूर कर सकती हैं मगर क्या यह फेफड़ों में हो चुके नुक्सान को वापस ठीक कर सकती हैं ?

एक हालिया अध्ययन में चेन्नई और USA के सहयोगियों साथ पुणे के शोधकर्ताओं ने क्षयरोग के सफल इलाज के बाद फेफड़ों की कार्य पद्धति का मूल्यांकन किया। PLoS ONE नामक जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में दिखाया गया  है कि क्षयरोग के इलाज के बाद भी फेफड़ों में क्षति और क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज़ (COPD) पाई गयी। यह अध्ययन बायोटेक्नोलॉजी विभाग (DBT) और भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद् (ICMR) द्वारा आंशिक रूप से वित्त पोषित किया गया।

शोधकर्ताओं ने २०४ क्षयरोग से ग्रसित रोगियों का, जिनमें पुरुष और स्त्री दोनों शामिल थे और जो इलाज प्रारम्भ करने से पहले २० से ६० दिन तक संक्रमित थे, परीक्षण किया. उन्होंने कई सर्वेक्षण किये और उनकी उम्र, लिंग, सामाजिक-आर्थिक स्तर, धूम्रपान व मद्यपान की प्रवृत्ति के बारे में जानकारी जमा की। इलाज के प्रारम्भ से लेकर एक वर्ष तक समय समय पर नैदानिक परीक्षा की।

स्पाइरोमीटर की सहायता से रोगियों के फेफड़ों की जाँच की गई। इस जाँच से, फेफड़ों के अंदर जाने वाली और बाहर निकलने वाली हवा का परिमाण और साँस लेने की दर को मापा जाता है। जिन रोगियों को साँस लेने में तकलीफ थी, उनको हवा के बहाव को बढ़ाने की दवा, जिन्हें ब्रोंकोडाइलेटर कहते हैं, दी गई। ऐसे रोगियों को, जिनका इलाज असफल रहा था या जिन्हें पुनरावर्ती क्षयरोग था या जिन्हें फेफड़ों की दूसरी दीर्घकालिक बीमारियाँ थीं, इस अध्ययन में शामिल नहीं किया गया।

परिणामों से पता चला कि जाँच किये गए रोगियों में से केवल २३% रोगियों के फेफड़ों की कार्य पद्धति सामान्य थी। यह एक भयोत्पन्न स्थिति है क्योंकि अधिकतर रोगी युवा थे, धूम्रपान नहीं करते थे और उनको फेफड़ों की क्षति का जोखिम कम था। अध्ययन से यह पाया गया कि दो में से एक को साँस लेने  में  परेशानी थी, उनके फेफड़ों की सामर्थ्य में कमी पाई गयी और उसके स्पाइरोमीटर के पैटर्न असामान्य थे। चौथाई लोगों में वायु के प्रवाह में बाधा थी और इनमें से आधों को ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिसीज़ था। हालाँकि ब्रोन्कोडायलेटर से वायु के प्रवाह में बाधा का उपचार किया जा सकता है , केवल २१ % पर सकारात्मक असर पाया गया।

यह उल्लेखनीय है कि स्पाइरोमीटर के असामान्य पैटर्न और फेफड़ों में क्षति, पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में अधिक अनुपात में पाए गए। शोधकर्ताओं का मानना है कि इसका कारण महिलाओं की दिनचर्या में घरों में उपयोग किये जाने वाले जैव ईंधन के दीर्घकालीन उपयोग का प्रभाव है। जो रोगी काफी समय से क्षयरोग से पीड़ित थे उनकी आयु संभाविता भी कम थी।

तो फेफड़ों पर ऐसे हानिकारक प्रभाव को घटाने के लिए क्या कर सकते हैं ? इस अध्ययन ने कई तरीके सुझाये हैं। सबसे आसान है जोखिम वाले घटकों को जैसे धूम्रपान, सदा धुएँ और ईंधन के पास जीवन, मधुमेह, कुपोषण, अस्वास्थ्यकर बॉडी मास इंडेक्स (BMI), से दूर रहा जाए। शीघ्र निदान और इलाज से भी क्षति को कम किया जा सकता है, शोधकर्ताओं का कहना है। क्षयरोग और फेफड़ों की कार्य पद्धति की समय समय पर जाँच और उपचार से भी मदद मिलेगी।

ये अध्ययन दिखाता है कि क्षयरोग के संक्रमण से हुई क्षति केवल इलाज से ठीक नहीं हो सकती। फेफड़ों पर एक बार पड़ा दाग हमेशा के लिए कायम रहता है और हर बार साँस लेने में परेशान करता है। शोधकर्ता आशा करते हैं कि इस प्रकार के अध्ययनों से दीर्घकालीन फेफड़ों की बीमारी का ऐसे लोगों पर, जिनमें क्षयरोग का अधिक जोखिम नहीं है, के बारे में जानकारी में कमी को पूरा करने में सहायता मिलेगी।