कृषि की संधारणीय वृद्धीकरण उस प्रक्रिया या प्रणाली को संदर्भित करता है जिसमें प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव के बिना और अधिक भूमि क्षेत्र को विशेष रूप से कृषि में परिवर्तित किए बिना कृषि उपज में वृद्धि की जाती है। कृषि के संधारणीय वृद्धीकरण के लिए उचित जल प्रबंधन आवश्यक है। ऐसा ही एक उपाय वर्षा जल संचयन है, जो जल के दक्षतापूर्ण उपयोग को बढ़ावा देता है और भूजल पुनर्भरण करता है। एकीकृत बागवानी विकास मिशन (एमआईडीएच), प्रधान मंत्री कृषि सिंचाई योजना (पीएमकेएसवाई) और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) जैसी विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत भारत सरकार कृषि भूमि पर कृषि तालाबों के निर्माण के लिए किसानों को अनुदान दे रही है। एक पूर्व शोध रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि राजकीय और निजी संगठन मुख्य रूप से कृषि स्तर पर संधारणीय वृद्धीकरण पद्धती को क्षेत्रीय और सामाजिक प्रभावों को ध्यान में रखे बिना लागू करने के लिए समर्थन और प्रोत्साहन प्रदान करते हैं।
एकल कृषि स्तर पर इन सरकारी वित्त पोषित उपायों को कृषि उत्पादकता और आय बढ़ाने के लिए लागू करने के परिणाम क्या है? क्या वे उपलब्ध भूजल, जो एक साझा संसाधन है, के कुशल और समान उपयोग के उद्देश्य की पूर्ति कर रहे हैं? भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी बॉम्बे) और नीदरलैंड में आईएचई डेल्फ़्ट इंस्टीट्यूट फॉर वॉटर एजुकेशन के शोधकर्ताओं का एक दल जल प्रबंधन, वितरण और टिकाऊ कृषि की संधारणीय वृद्धीकरण के सामाजिक प्रभाव के आयामों पर विमर्श करते हुए इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है। यह अध्ययन कृषि जल प्रबंधन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
संधारणीय वृद्धीकरण किये हुए क्षेत्र के स्तर पर आकलन से ज्ञात होता है कि, यह प्रथा प्रायः लक्षित खेतों पर पानी की पहुंच में सुधार करके किसानों की आय बढ़ाने में सहायता करती है। यद्यपि मानव और पानी के बीच परस्पर संबंधों पर एक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि ऐसे विशिष्ट कृषि क्षेत्रों के बाहर सामाजिक स्तर पर जांच करने पर सभी के लिए उपलब्ध सीमित जल संसाधनों तक पहुंचना कठिन होता है। इस अध्ययन में, शोधकर्ता इस प्रतिकूल प्रभाव पर प्रकाश डालना चाहते थे। इन भू जल से भरे प्लास्टिक फिल्म आस्तरित तालाबों (पीएलजीएफ) के उदाहरण का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने कृषि-स्तरीय उपायों और पानी जैसे साझा संसाधनों के बीच परस्पर संबंधों का अध्ययन किया।
अध्ययनाधीन प्रकरण ( केस स्टडी)
शोधकर्ताओं ने अध्ययन के लिए कम वर्षा वाले अर्ध-शुष्क क्षेत्रों का चयन किया जिसमें, उथले कठोर-चट्टान वाले जलभृत समाविष्ट थे। भूजल धारण करने वाले चट्टान या तलछट को जलभृत के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। प्रायद्वीपीय भारत में ऐसे जलभृत सामान्य हैं। यह अध्ययन महाराष्ट्र के अहमदनगर, जालना, हिंगोली और अकोला जिलों में किया गया था, जहां जून से सितंबर तक औसत वार्षिक वर्षा 600 से 900 मिमी होती है। वर्षा ऋतू की खरीफ की फसल के समय यहां अनाज, दलहन और तिलहन आदि फसल उगाई जाती है| मानसून के बाद खुले कुओं से भूजल का उपयोग सिंचाई के लिए किया जाता है। नवंबर से फरवरी तक विभिन्न रबी फसलों की खेती की जाती है। इनमें सूखा अनाज, दालें, सेज के साथ-साथ पानी के अत्यधिक व्यय वाली फसलें जैसे प्याज, गेहूं और मौसमी सब्जियां शामिल हैं। पिछले एक दशक में अनार, अंगूर और नींबू के फलोद्यान इस क्षेत्र के किसानों के बीच लोकप्रिय हो गए हैं क्योंकि इससे उत्पादन और आय अधिक होती है। अनेक सार्वजनिक एवं निजी संस्थाए भी सिंचाई के लिए प्लास्टिक-फिल्म आस्तरित कृषि तालाबों का निर्माण करके फलोद्यान फसल उत्पादन को बढ़ाने में किसानों को प्रोत्साहित करती हैं। कई सरकारी और निजी संगठन किसानों को सिंचाई के लिए पीएलजीएफ क्षेत्र बनाने में मदद करके फलोद्यान उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करते हैं।
परंपरागत रूप से, कृषि तालाब विश्व के कई भागों में वर्षा जल संचयन के लिए बनाए गए अनास्तरित गड्ढों को संदर्भित करते हैं, जिनके लाभों को व्यापक रूप से प्रलेखित किया गया है। फलोद्यान की खेती के लिए प्रचारित प्लास्टिक-फिल्म आस्तरित भूजल से भरे तालाब (पीएलजीएफ) इस तकनीक का एक महत्वपूर्ण रूपांतर हैं। यहां, तालाब भूजल के लिए भंडारण संरचना के रूप में कार्य करता है और मुख्य रूप से बहुमूल्य फलों की फसलों की सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसमें 300-500 माइक्रोन मोटी हाई-डेंसिटी पॉली एथिलीन (एचडीपीई) फिल्म का अस्तर (लाइनिंग) है जो संग्रहित पानी को भूमि में रिसने से रोकती है। किसान उथले खोदे गए कुओं से भूजल निकालते हैं, जो बरसात के मौसम में भर जाते हैं और कुओं से प्राप्त भूजल को पीएलजीएफ तालाबों में एकत्रित करते हैं ताकि गर्मियों के महीनों में जब कुएं सूख जाएँ तो सुनिश्चित सिंचाई हो सके। सरकार फलोद्यान की खेती के लिए पीएलजीएफ तालाबों के निर्माण हेतु अनुदान प्रदान करती है। यह अनुदान खेतों की फसलों की सिंचाई के लिए उपयोग की जाने वाली विद्युत् हेतु भी मिलता है| इसलिए किसानों को गर्मियों के समय कुओं से पीएलजीएफ तालाबों तक और पीएलजीएफ तालाबों से फलोद्यान तक दोहरी पंपिंग की ऊर्जा लागत को वहन नहीं करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, खेत के इन खुले कृषि तालाबों का विस्तार लगभग 30 मीटर गुणा 30 मीटर और गहराई 3 मीटर है। इस बड़े सतह क्षेत्र से वाष्पीकरण के माध्यम से संग्रहीत भूजल की अत्यधिक क्षति होती है।
पीएलजीएफ फार्मों का उपयोग कर सफल कृषि की कई कहानियां प्रसारित हुई है जिसके कारण अधिक से अधिक किसान इस पद्धति की ओर आकर्षित हो रहे हैं। सामान्य फसलों के स्थान, वे महंगे फलों की खेती करना शुरू कर देते हैं जिन्हें साल भर सिंचाई की आवश्यकता होती है | और इसके परिणामस्वरूप, पहले से ही सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भूजल दोहन बढ़ जाता है। इस से क्षेत्र में भूजल का स्तर लगातार गिरता जाता है। जिन किसानों के पास पीएलजीएफ तालाब नहीं हैं, वे भूजल की कमी से बुरी तरह प्रभावित हैं। विशेष रूप से स्थानीय समुदाय के आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को गर्मियों में पीने के पानी की कमी का भी सामना करना पड़ता है क्योंकि वे पेयजल के लिए सार्वजनिक कुओं पर निर्भर रहते हैं।
विश्लेषण: विधि और निष्कर्ष
शोध दल ने अध्ययनाधीन प्रकरण (केस स्टडी) में कई हितधारकों की पहचान की जैसे राज्य संस्थाएँ, पारंपरिक फसलों वाले किसान, फलोद्यान वाले किसान, तथा पीने के पानी के लिए उथले जलभृत पर निर्भर रहनेवाले अन्य लोग आदि। उन सभी के अलग-अलग उद्देश्य होते हैं और उसी के अनुसार अलग अलग निर्णय होते हैं। सामुदायिक हितों, प्रौद्योगिकी में निवेश, भूमि उपयोग, फसल चयन और सिंचाई प्रथाओं के संबंध में उनके निर्णय उस क्षेत्र में उपलब्ध भूजल और कृषि वृद्धीकरण को प्रभावित करते हैं।शोधकर्ताओं के एक समूह ने 'स्टॉक एंड फ्लो' विश्लेषण दृष्टिकोण का उपयोग करके मानव-जल-कृषि के परस्पर संबंध और एक-दूसरे पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया। 'स्टॉक एंड फ्लो' पद्धति में, संग्रहित मात्रा जो लंबे समय तक जमा हुई है, स्टॉक कहलाता है, जैसे कि जलभृत। एक विशिष्ट समय अवधि में मापी गई मात्रा को फ्लो कहा जाता है, जैसे कि पर्जन्यवृष्टी या एक वर्ष में भूमि से दोहन किया गया पानी| इन फ्लो कारकों का संचयी प्रभाव स्टॉक कारकों पर पड़ता है।
आईआईटी मुंबई के शोधकर्ताओं ने सूखे के वर्षों और अच्छी वर्षा वाले वर्षों के लिए कृषि स्तर पर गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों आंकड़े एकत्रित किये। उन्होंने किसानों और ग्रामीण कृषि सहायकों के साथ भेंटवार्ता भी की। शोधकर्ताओं के एक समूह ने अध्ययन क्षेत्र की भूजल उपलब्धता, किसानों के पसंद की फसले, कृषि तालाबों का बढ़ता उपयोग, और उगाई जाने वाली फसलें आदि विभिन्न चरों का परस्पर परिणाम और कैसे वे प्रभाव दोहराए जाने वाले प्रभाव-चक्र का निर्माण करते हैं, का एक मॉडल विकसित किया |
शोधकर्ताओं ने अपने मॉडल के लिए चार विशिष्ट प्रकार के परिदृश्यों पर विचार किया। प्राथमिक परिदृश्य में एक या दो पारंपरिक फसलें, कृषि तालाबों का नहीं होना, और इस क्षेत्र में पानी की अधिक आवश्यकता नहीं होने वाली फसलों को प्रमाण (गृहीत) माना गया | ऐसी स्थिति में यदि अतिरिक्त जल संग्रहण के उपाय नहीं किए गए तो भूजल संग्रहण वर्ष भर सिंचाई के लिए अपर्याप्त हो जाता है।यह किसानों को पीएलजीएफ फार्म का उपयोग करने के लिए प्रेरित करता है।
दूसरे परिदृश्य में, पीएलजीएफ कृषि तालाबों का अध्ययन एकल कृषि स्तर पर किया जाता है। किसान की दृष्टि से पीएलजीएफ कृषि तालाबों में पानी का भंडारण (बाष्पीकरण के बाद भले ही आधा पानी रह जाये) सूखे के मौसम में पर्याप्त होता है। पीएलजीएफ कृषि तालाबों का उपयोग लाभदायक हो, इतना आर्थिक लाभ किसान को प्राप्त होता है| पीएलजीएफ कृषि तालाबों के आधार पर ऐसे कृषि के मामले में, जिन फलोद्यानों को विकसित होने में एक वर्ष से अधिक समय लगता है, वे पारंपरिक फसलों की अपेक्षा अधिक लाभदायक होते हैं, क्योंकि पारंपरिक फसलों को सिंचित न करने पर हानि की सम्भावना होती है।
तीसरा परिदृश्य यह प्रदर्शित करने के लिए गतिशील मानव-जल प्रतिक्रिया चक्र का अनुकरण करता है कि, पीएलजीएफ कृषि तालाबों में निवेश और फलोद्यान फसलों की कृषि वृद्धीकरण समय के साथ कैसे प्रचलित हो रही है| यह अंततः उस स्तर पर स्थिर हो रही है, जहां सभी हितधारक बदतर स्थिति में हैं। परिणाम बताते हैं कि, किसी सामूहिक गतिविधि या सामुदायिक नियंत्रण के अभाव में उत्कटता स्थायी धारणीय सीमा में नहीं रहती है, जिससे भूजल पहुंच में अत्यधिक असमानता, कृषि उत्पादकता में गिरावट और सामाजिक कल्याण की क्षति होती है।
चौथा परिदृश्य सूखे के प्रभाव को दर्शाता है। यह दर्शाता है कि यद्यपि पीएलजीएफ कृषि तालाब एकल किसानों को सूखे के प्रभाव से बचाते हैं, उन पर अधिक निर्भरता और उत्कटता के कारण सिंचाई की मांग में वृद्धि के साथ ही पूरे समुदाय पर सूखे के प्रभाव को बढ़ाता है।
इसके लिए शोध समूह ने प्रभावी रणनीति तैयार करने के महत्व पर प्रकाश डाला है। उन्होंने सुझाव दिया कि बुनियादी ढांचे के आधार पर पानी की कमी की समस्या के निदान की अपेक्षा फसलों की पसंद में परिवर्तन करके समस्या का समाधान किया जाना चाहिए। इसके लिए पर्याप्त वर्षा वाले वर्षों में मौसमी फल वाली फसलें लगाना चाहिए और सूखे की स्थिति में फसलों के लिए पानी की आवश्यकता को सीमित करके कृषि वृद्धीकरण को कम करना चाहिए। फलोद्यान खेती के लिए किसानों को पूरे वर्ष नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है, जिससे उनके लिए अविश्वसनीय वर्षा और संसाधन की कमी वाले क्षेत्रों की परिस्थितियों के अनुकूल होना कठिन हो जाता है। इस अध्ययन के माध्यम से, शोधकर्ताओं ने राजकीय और निजी संगठनों को चेतावनी दी है कि वे इस क्षेत्र में फलोद्यान खेती को प्रोत्साहित न करें। "हमारे मॉडल से पता चलता है कि पानी की कमी (सूखा) इस सीमा तक बढ़ सकती है कि थोड़े से वृद्धीकरण से भी पूरी कृषि और सामाजिक व्यवस्था ध्वस्त हो सकती है। यह असमानता को और अधिक बढ़ाता है," डॉ. प्रसाद ने कहा।
वर्तमान अध्ययन में सह-लेखक प्रो. दमानी और उनके छात्रों द्वारा अनुवर्ती कार्य किया गया है, जो उपग्रह छवियों का उपयोग करके खेत के तालाबों जैसी वस्तुओं को ढूंढ निकालने के लिए एक प्रणाली विकसित कर रहे हैं। डॉ. प्रसाद कहती हैं कि, “उनकी आगामी प्रणाली का उपयोग करके, हम यह ज्ञात कर सकते हैं कि, किसी क्षेत्र विशेष में कितने खेत तालाबों का निर्माण किया गया है। चूंकि उनके प्रभाव का अनुमान लगाने के लिए ऐसे कृषि तालाबों की संख्या पर कोई आँकड़े उपलब्ध नहीं है, इसलिए इस तरह का एक उपकरण नीति निर्माताओं का ध्यान आकर्षित करने में बहुत सहायक है। यह उपकरण किसी क्षेत्र में खेत के तालाबों के गुणन और सूखे के वर्षों जैसे कारकों के साथ इसके सहसंबंध के अवलोकन के लिए प्रवृत्ति का विश्लेषण करने में हमारी सहायता कर सकता है |”
सह-लेखकों में से एक, प्रो. सोहोनी, महाराष्ट्र के मृदा और जल संधारण विभाग द्वारा गठित एक समिति के सदस्य हैं, जो उपलब्ध भूजल सीमा को पार किए बिना जलग्रहण क्षेत्रों में आदर्श रूप से अनुकूल कृषि तालाबों की संख्या के लिए दिशानिर्देश तैयार करते हैं। “हमारा समूह महाराष्ट्र सरकार की परियोजनाओं के लिए एक ज्ञान भागीदार के रूप में काम कर रहा है। उदाहरण के लिए, प्रोजेक्ट ऑन क्लायमेट रेसिलियन्ट ॲग्रीकल्चर - इसमें जल बजट की योजना बनाकर और अधिक प्रभावी कदम उठाने के लिए मार्गदर्शन दिया जाएगा। लेकिन वास्तविक परिणाम तब प्राप्त किया जा सकता है जब इस पर लंबे समय तक और लगातार काम किया जाए। हम ऐसा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं," डॉ. प्रसाद ने कहा।