हाइड्रोजन आधारित प्रक्रियाओं में उन्नत उत्प्रेरकों और नवीकरणीय ऊर्जा के समावेश से स्टील उद्योग में कार्बन विमुक्ति के आर्थिक और औद्योगिक रूप से व्यवहार्य समाधानों का विकास ।

स्टील उद्योग में कार्बन उत्सर्जन को कम करेंगे कोबाल्ट आधारित उत्प्रेरक एवं अन्य उपाय

Mumbai
22 फ़रवरी 2025
Industrial Pollution

विश्व में स्टील (इस्पात) आधुनिक संरचना और आर्थिक प्रगति का एक महत्वपूर्ण घटक है। भारत स्टील के प्रमुख उत्पादकों में से एक है। यद्यपि ईंधन के रूप में कोयले पर अत्यधिक निर्भरता के कारण स्टील उत्पादन पर्यावरणीय आशंकाओं से जुड़ा हुआ है । स्टील उत्पादन प्रक्रिया में कार्बन (मुख्य रूप से कोयले और प्राकृतिक गैस से प्राप्त) लोहे के अयस्क (आयरन ओर) के साथ अभिक्रिया करता है एवं द्रवित लोह प्राप्त होता है जिससे स्टील का उत्पादन किया जा सके। किंतु इसके परिणामस्वरूप विशाल मात्रा में कार्बन डायऑक्साइड (CO2) भी उत्पन्न होती है। परिणामस्वरूप, वैश्विक स्तर पर स्टील उद्योग प्रति वर्ष 370 करोड़ मेट्रिक टन से अधिक कार्बन डायऑक्साइड उत्सर्जित करता है, जो वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का 7-9% है। हाइड्रोजन-आधारित डायरेक्ट रिडक्शन ऑफ आयरन (H-DRI) नामक विधि अपनाकर स्टील उत्पादन को एक संधारणीय (सस्टेनेबल) प्रक्रिया बनाया जा सकता है ।

हाल ही में, जर्नल ऑफ एनर्जी एंड क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित एक समीक्षा लेख में, प्राध्यापक अर्नब दत्ता के नेतृत्व में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी मुंबई) के रसायन शास्त्र विभाग के शोधकर्ताओं ने स्टील उद्योग के लिए हाइड्रोजन उत्पादन के क्षेत्र में हुई वैज्ञानिक प्रगति का संकलन किया है और 'हरित' हाइड्रोजन (ग्रीन हाइड्रोजन) का उपयोग करके स्टील उद्योग को कार्बन-विमुक्त (डिकार्बोनाइज़ेशन) करने का सर्वोत्तम उपाय सुझाया है।

H-DRI प्रक्रिया लोहे के अयस्क को स्टील में परिवर्तित करने के लिए कोयले के स्थान पर हाइड्रोजन का उपयोग करती है, जिससे निर्माण प्रक्रिया के समय कार्बन डायऑक्साइड के स्थान पर पानी की वाष्प निकलती है। यह प्रक्रिया हाइड्रोजन को स्टील उद्योग के “कार्बन विमुक्तिकरण” हेतु एक बेहतरीन विकल्प बनाती है। वर्तमान में ज्यादातर हाइड्रोजन स्टीम मीथेन रिफॉर्मिंग या कोयला गैसीफिकेशन जैसी प्रक्रियाओं से प्राप्त होता है। दोनों ही जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर करते हैं, जो कार्बन डायऑक्साइड उत्पन्न करते हैं, जिससे मुख्य उद्देश्य विफल हो जाता है।

हाइड्रोजन को स्थायी रूप से उत्पन्न करने के लिए, शोधकर्ता जल के विद्युत् अपघटन (इलेक्ट्रोलाइसिस) की ओर बढ़ रहे हैं। इस प्रक्रिया में पानी को विद्युत् अपघटक (इलेक्ट्रोलाइजर) उपकरण के उपयोग से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विभाजित किया जाता है। यदि पवन या सौर ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत विद्युत प्रदान कर सकते हैं, तो यह प्रक्रिया उत्सर्जन-मुक्त हो जाती है, अत: इसे ‘हरित हाइड्रोजन’ कहा जाता है। यद्यपि औद्योगिक स्तर पर ‘हरित हायड्रोजन’ का उत्पादन महंगा है क्योंकि इसके लिए मूलभूत संरचना में संशोधन और प्रभावी उत्प्रेरकों की आवश्यकता होती है।

 हाइड्रोजन उत्पादन में उपयोगी जल विद्युत् अपघटन को प्रभावी बनाने के लिए उत्प्रेरक आवश्यक हैं। सामान्यत: प्लेटिनम और पैलेडियम जैसे उत्कृष्ट (नोबल) धातुओं का उपयोग उत्प्रेरकों के रूप में किया जाता है। डॉ. 

सुहाना करीम जो प्राध्यापक दत्ता की प्रयोगशाला में एक पोस्टडॉक्टोरल शोध अध्येता हैं, कहती हैं, “उत्कृष्ट (नोबल) धातुएँ मूल्यवान होती हैं जो अनुप्रयोगों की व्यापकता को सीमित करती हैं, और कठोर या दूरस्थ परिस्थितियों के लिए उपयुक्त नहीं होतीं। अत: आर्थिक रूप से व्यवहार्य और स्थायी विकल्प खोजने पर हमारा ध्यान है।” 

प्रा. दत्ता के समूह सहित विश्वभर के शोधकर्ता कोबाल्ट-आधारित उत्प्रेरक (कोबालॉक्सिम्स) विकसित कर रहे हैं जो पानी में घुलनशील एवं वायु-स्थिर हैं तथा विशेष उपकरणों की आवश्यकता के बिना विद्युत्-अपघटन में सहायक हैं। कोबालॉक्सिम्स उत्कृष्ट धातुओं की तुलना में सस्ते होते हैं और इन्हें सरलता से संश्लेषित किया जा सकता है।

कई शोधकर्ताओं ने कोबालॉक्सिम्स की आणविक संरचना को संशोधित करके उनकी स्थिरता और अभिक्रिया दर में सुधार किया है। प्रा. दत्ता और उनके दल ने प्राकृतिक अमीनो एसिड, विटामिन और अन्य कार्यात्मक समूहों (फंक्शनल ग्रुप्स) को जोड़कर उत्प्रेरक में संरचनात्मक संशोधन किया है ताकि ऊर्जा दक्षता बनाए रखते हुए हाइड्रोजन उत्पादन दर में वृद्धि की जा सके। 

डॉ. सुहाना कहती हैं, “हमने समुद्री जल जैसे विभिन्न खनिजों और लवणों की उपस्थिति में प्रभावी ढंग से काम करने के लिए भी कोबालॉक्सिम्स को संशोधित किया है।”

कोबालॉक्सिम्स प्रयोगशालाओं में भलीभांति कार्य करते हैं, किंतु औद्योगिक स्तर पर हाइड्रोजन उत्पादन के लिए उनका उपयोग करना जटिल है। इसलिए शोधकर्ता कोबालॉक्सिम्स को विद्युत्-अपघटक के विद्युताग्र से संगत (इलेक्ट्रोड-कॉम्पेटिबल) बनाने के लिए इनकी संरचना में संशोधन कर रहे हैं और इनको स्थिर आधार पर जोड़ रहे हैं, ताकि ये स्थिर, कार्यक्षम और दीर्घायु हो सके।

शोधकर्ताओं ने नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग से हाइड्रोजन के औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रकार के विद्युत्-अपघटकों और भट्टियों (फर्नेस) का विश्लेषण भी किया। उन्होंने पाया कि कोबालॉक्सिम्स उत्प्रेरक, पोटेशियम हायड्रॉक्साइड जैसे विलयन का उपयोग करने वाले क्षारीय एवं पॉलीमर झिल्ली का उपयोग करने वाले प्रोटॉन एक्सचेंज मेम्ब्रेन जैसे अम्लीय, दोनों प्रकार के विद्युत्-अपघटकों में श्रेष्ट प्रदर्शन करते हैं। “स्थिरता एवं दक्षता की दृष्टि से प्रत्येक विधि की अपनी शक्ति एवं दुर्बलतायें होती हैं,” प्रा. दत्ता कहते हैं।

विद्युत्-अपघटक में जब पानी के माध्यम से विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, तो यह विभाजित हो जाता है, और हाइड्रोजन ऋणात्मक विद्युताग्र (कैथोड) पर एवं ऑक्सीजन धनात्मक विद्युताग्र (एनोड) पर एकत्र हो जाती है। झिल्ली एवं विद्युताग्रों की “स्टैक” नामक सम्पूर्ण व्यवस्था विद्युत्-अपघटन के समय उत्पन्न हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को पृथक करती है। एकाधिक स्टैक के उपयोग से इलेक्ट्रोलाइज़र की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है जिससे ये प्रचुर मात्रा में हाइड्रोजन का उत्पादन करने के साथ-साथ कार्बन डायऑक्साइड उत्सर्जन में 30-50% की कटौती कर सकते हैं। इस प्रकार हाइड्रोजन-आधारित ऊर्जा अर्थव्यवस्था दीर्घकालिक हो जाती है। 

प्रा. दत्ता बताते हैं, “एक स्टैक सामान्यत: प्रति दिन एक लीटर हाइड्रोजन का उत्पादन कर सकता है, जबकि समान नियंत्रण प्रणाली पर आधारित उचित रूप से विकसित एकाधिक स्टैक का तंत्र (मल्टी-स्टैक सिस्टम) दस गुना अधिक हाइड्रोजन का उत्पादन कर सकता है।”

प्रोफेसर अर्नब दत्ता के शोध समूह द्वारा विकसित मल्टी-स्टैक इलेक्ट्रोलाईज़र का प्रोटोटाइप।(छायाचित्र: प्रा. दत्ता एवं डॉ. सुहाना करीम)

आईआईटी मुंबईके शोधकर्ता बताते हैं कि पारंपरिक वात्या भट्टी वाले ब्लास्ट फर्नेस-बेसिक ऑक्सीजन फर्नेस विधि स्टील उत्पादन के लिए अत्यधिक कोयले का उपयोग करती है, जो बड़ी मात्रा में कार्बन डायऑक्साइड उत्सर्जित करता है। इसके विपरीत, एक इलेक्ट्रिक आर्क भट्टी विद्युत् चालित होती है, और यदि यह विद्युत् नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत से आती है, तो कार्बन उत्सर्जन कम हो जाता है। शोधकर्ताओं का मानना ​​है कि इलेक्ट्रिक आर्क भट्टियों के साथ हाइड्रोजन-आधारित डायरेक्ट रिडक्शन ऑफ आयरन (H-DRI) तकनीक के संयोजन से स्टील निर्माण को लगभग कार्बन-शून्य बनाया जा सकता है।

‘हरित हायड्रोजन’ का कार्बन अवशोषण, उपयोग और भंडारण (कैप्चर, यूटिलाइजेशन एंड स्टोरेज; सीसीयूएस) जैसी रणनीतियों के साथ संयोजन भी किया जा सकता है, जिससे उत्सर्जन में और कमी आएगी। सीसीयूएस प्रणालियाँ स्टील निर्माण या अन्य प्रक्रियाओं से उत्पन्न कार्बन डायऑक्साइड को अवशोषित कर सकती हैं, जिसका उपयोग संश्लेषित ईंधन या रसायनों के उत्पादन अथवा दीर्घकालीन भूमिगत संग्रहण के लिए किया जा सकता है। यह पद्धति लाभप्रद रीति से कार्बन डायऑक्साइड का पुन: उपयोग करने वाली एक चक्रीय अर्थव्यवस्था को भी प्रोत्साहित करती है।

आईआईटी बॉम्बे के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि कोबाल्ट-आधारित उत्प्रेरकों के साथ जल का विद्युत्-अपघटन करके, और उचित विद्युत् अपघटकों एवं भट्ठी के प्रकार चुनकर हरित हाइड्रोजन-आधारित स्टील का उत्पादन किया जा सकता है। यह दृष्टिकोण कार्बन उत्सर्जन को कम करने में सार्थक रूप से सहायक है, जो स्टील उत्पादन के स्वच्छ और स्थायी भविष्य का का मार्ग प्रशस्त करता है।

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