दो वैद्युत-रासायनिक तकनीकों के संयोजन से, शोधकर्ता औद्योगिक धातुओं पर लेपित आवरण पर संक्षारण की दर को कुशलतापूर्वक मापने में सफल रहे।

आईआईटी मुंबई के शोधकर्ताओं द्वारा लौह आवरण के अपक्षय की दर मापने हेतु एक नूतन विधि का प्रयोग

समय के साथ धातुओं का क्षरण होता है एवं कुछ धातुओं का संक्षारण (करोजन) अपेक्षाकृत अधिक होता है। उदाहरण स्वरुप लोहे का संक्षारण कुछ ही दिनों में हो जाता है, जबकि सोना एवं चाँदी के क्षरण में कई दशक या शताब्दियाँ लगती हैं। संक्षारण से सुरक्षा हेतु धातुओं पर सामान्यत: एक सुरक्षा आवरण चढ़ाया जाता है, जैसे कि हमारी गाड़ियों पर पेंट। कार्बनिक आवरण (ऑर्गनिक कोटिंग्ज) चढ़ाना धातुओं को सुरक्षित करने की एक अधिक कुशल विधि है। ये आवरण कार्बन आधारित पॉलीमर पदार्थों की परतें होती हैं, जो प्राकृतिक या संश्लेषित होती हैं तथा पेंट एवं वर्निश के रूप में लगाई जाती हैं। ग्रैंड व्यू रिसर्च द्वारा की गई एक नयी बाजार विश्लेषण सूचना के अनुसार, इस प्रकार का संक्षारण-रोधी बाजार 8.93 अरब अमेरिकी डॉलर का है एवं 2025 से 2030 तक प्रति वर्ष 3.6 % की दर से इसमें वृद्धि का अनुमान है। 

समय के साथ कार्बनिक आवरण की क्षमता घटती जाती है जिससे अंततः धातु को क्षति पहुँचती हैं। आवरण में छिद्र एवं दोष होने के कारण ऐसा होता है। समय के साथ इनके माध्यम से जल एवं ऑक्सीजन अंतर्निहित धातु की सतह तक पहुँच जाते हैं एवं धातु का संक्षारण करते हैं। समय के साथ आवरण के जीर्ण-शीर्ण होने के पीछे एक मूलभूत विद्युत-रासायनिक प्रक्रिया उत्तरदाई होती है, जिसे ऑक्सीजन अपचयन अभिक्रिया (ऑक्सीजन रिडक्शन रिएक्शन; ओआरआर) कहते हैं। इसमें आणविक ऑक्सीजन पानी, हाइड्रोजन पराक्साइड अथवा हाइड्रॉक्सिल आयनों में अपचयित हो जाती है। यह प्रक्रिया फ्यूल सेल एवं मेटल-एअर बैटरी सहित विभिन्न विद्युत-रासायनिक उपकरणों में होती है। ऑक्सीजन अपचयन अभिक्रिया (ओआरआर) की तीव्रता की दर जानना महत्वपूर्ण होता है, ताकि यह ज्ञात हो सके कि आवरण कितने समय में धातु का संक्षारण होने देता है। औद्योगिक अनुप्रयोगों के लिए यह ज्ञान अत्यंत महत्वपूर्ण है। 

ओआरआर दर के मापन की लीनिअर स्वीप वोल्टामेट्री एवं पोटेंशियो डायनामिक पोलराइजेशन जैसी पारंपरिक तकनीकें विद्युत-रसायन पर आधारित होती हैं, अर्थात ऐसी रासायनिक अभिक्रियाएँ जो विद्युत ऊर्जा का उत्पादन या उपभोग करती हैं। लीनिअर स्वीप वोल्टामेट्री में धातु पर निरंतर परिवर्ती विभव आरोपित किया जाता है एवं प्रतिक्रिया स्वरुप उत्पन्न विद्युत्-धारा को मापा जाता है। परिणामित धारा-विभव वक्र धातु पर होने वाली अपचयन अभिक्रिया की दर के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करता है। क्योंकि लेपित धातुओं के कार्बनिक आवरण, विद्युत् धारा उत्पन्न करने वाले आयनों के प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं, अत: आवरण संक्षारण की दर बहुधा पूर्ववर्ती (प्री-एक्सिस्टिंग) सूक्ष्म छिद्रों में उत्पन्न धारा मात्र पर आधारित होती है। इस स्थिति में अंतरापृष्ठ (इंटरफ़ेस) पर वास्तविक अपक्षय की दर प्राप्त नहीं हो सकती है। 

कुछ वर्ष पूर्व आईआईटी मुंबई के धातुकर्म अभियांत्रिकी एवं पदार्थ विज्ञान विभाग में प्राध्यापक विजयशंकर दंडपानी के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने संक्षारण से सुरक्षा हेतु उपयोग किये जाने वाले कार्बनिक आवरण पर शोध कार्य किया। उन्होंने इस आवरण के प्रदर्शन के अभिलक्षणात्मक विश्लेषण (कैरेक्टराइजेशन) के लिए एक संशोधित मात्रात्मक (इम्प्रूव्ड क्वांटिटेटिव) पद्धति स्थापित की। 

अपने नवीन दृष्टिकोण में आईआईटी मुंबई के शोधकर्ताओं ने हाइड्रोजन पर्मिएशन पोटेंशियोमीटरी (एचपीपी) को विद्युत-रासायनिक इम्पीडेंस स्पेक्ट्रोस्कोपी (ईआईएस) के साथ जोड़ा। एचपीपी तकनीक में शोधकर्ता धातु के एक तरफ विद्युत धारा प्रवाहित करते हैं ताकि हाइड्रोजन उत्पन्न किया जा सके। फिर हाइड्रोजन के परमाणु धातु के माध्यम से प्रवेश करते हैं और ऑक्सीजन युक्त दूसरी तरफ मापे जाने वाले विद्युत-रासायनिक विभव में बदलाव लाते हैं। इस प्रकार, धातु के पार होकर गुजरने वाले हाइड्रोजन की मात्रा को ओआरआर के दर को मापने के लिए संवेदक (सेंसर) के रूप में उपयोग किया जाता है।

ईआईएस एक ऐसी तकनीक है जिसका उपयोग विद्युत संकेतों के प्रति किसी पदार्थ की प्रतिक्रिया का विश्लेषण करने हेतु किया जाता है। पदार्थ पर एक प्रत्यावर्ती विभव (एसी वोल्टेज) आरोपित करते हुए प्रतिक्रियात्मक परिणामी विद्युत् धारा को मापा जाता है, ताकि पदार्थ के इम्पीडेंस (या प्रतिरोध) की गणना की जा सके। धातु की सतह पर हो रही विभिन्न प्रक्रियाओं से संबंधित प्रतिरोध के मानों का, जिसमें हाइड्रोजन प्रेरित ओआरआर की प्रगति भी सम्मिलित है, प्रत्यावर्ती ऐसी संकेत की एक विशेष आवृत्ति पर निरीक्षण किया जा सकता है।

एचपीपी और ईआईएस तकनीकों के संयोजन से शोधकर्ता कार्बनिक आवरण एवं धातु के मध्य स्थित अंतरापृष्ठ के अपक्षय दरों की मात्रा निर्धारित करने में सफल रहे। एचपीपी पद्धति हाइड्रोजन प्रवेश का एक सीधा माप प्रदान करती है जबकि ईआईएस से यह जानकारी मिलती है कि हाइड्रोजन पारगमन, लेपित धातु के अपक्षय को कैसे संभव करता है।

“हाइड्रोजन पर्मिएशन पोटेंशियोमीटरी (एचपीपी) से प्राप्त परिणामों को दृढ़ता प्रदान करने के एक प्रयास के रूप में ईआईएस जैसी एक पूरक तकनीक का उपयोग करने का विचार आया,” प्राध्यापक विजयशंकर कहते हैं।

अपने पूर्व अध्ययन में शोधकर्ताओं ने एक आदर्श पॉलिमर आवरण एवं पैलेडियम धातु के मध्य स्थित अंतरापृष्ठ (इंटरफेस) पर ओआरआर का मापन करने हेतु एचपीपी एवं ईआईएस का उपयोग करते हुए एक सिद्धांत-सत्यापन (प्रूफ-ऑफ-कॉन्सेप्ट) प्रदान किया था। इस नवीन अध्ययन में आईआईटी मुंबई समूह ने फ्रांस के ब्रेस्ट विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर इसका लोहे पर अनुप्रयोग किया, जो कि एक महत्वपूर्ण औद्योगिक धातु है। 

इस अध्ययन को इंडो-फ्रेंच सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ एडवांस रिसर्च - सीईएफआईपीआरए तथा विज्ञान एवं अभियांत्रिकी अनुसंधान बोर्ड (एसईआरबी), भारत के द्वारा वित्त-पोषित किया गया। 

शोधकर्ताओं ने पैलेडियम झिल्लियों (मेम्ब्रेन) पर लोहे की एक पतली परत चढ़ाई तथा इस पर पॉली-मिथाइल मेथाक्रिलेट (पीएमएमए) नामक एक पॉलीमर के आवरण से लेपित किया। उन्होंने पीएमएमए एवं लोहे के मध्य स्थित अंतरापृष्ठ पर ऑक्सीजन अपचयन अभिक्रिया की दर के मापन हेतु एचपीपी-ईआईएस संयुक्त तकनीक का उपयोग किया। उन्होंने करंट-पोटेंशियल (I/V) वक्रों एवं संबंधित इम्पीडेंस मानों का संग्रह किया, जो आवरण रहित लोहे की सतह की तुलना में उच्च पाए गए। इम्पीडेंस के उच्चतम मान निम्न क्षरण दरों के द्योतक होते हैं एवं अन्यथा इसके विपरीत । कार्बनिक आवरण एवं धातुओं के मध्य स्थित अंतरापृष्ठ पर होने वाले ओआरआर का मूल्यांकन करने के लिए एचपीपी-ईआईएस तकनीक के उपयोग को इस अध्ययन ने मान्यता प्रदान की । पारंपरिक विधियों का उपयोग करके यह मूल्यांकन सरलता पूर्वक नहीं किया जा सकता, क्योंकि कार्बनिक आवरण एवं धातुओं के मध्य छिपा होने के कारण यह अंतरापृष्ठ अनुपलब्ध होता है।

(बाएं) पॉलिमर आवरण की ओआरआर जनित विकृति जो अंततः पैलेडियम झिल्ली पर लेपित लौह परत पर संक्षारण (करोजन) उत्पन्न करती है। (दाएं) एचपीपी-ईआईएस संयोजित-युक्ति जो संक्षारण के पूर्व ओआरआर दर का निर्धारण करती है।

एचपीपी-ईआईएस मूल्य-प्रभावी तकनीक है क्योंकि इसमें केवल दो सरलतम पोटेंशियोस्टैट्स की आवश्यकता होती है, जो सादे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण हैं एवं दो विद्युताग्रों (इलेक्ट्रोड्स) के मध्य विभव का नियंत्रण एवं मापन करते हैं।

एचपीपी-ईआईएस युग्म का उपयोग यह देखने के लिए किया जा सकता है कि कार्बनिक आवरण लौह संक्षारण को कितने समय में प्रेरित करेगा। प्रा. विजयशंकर के अनुसार यह विधि न केवल स्टील उद्योग के लिए अपितु फ्यूल सेल एवं संवेदकों के क्षेत्र में भी उपयोगी सिद्ध होगी।

वर्तमान में उत्सर्जन को कम करने हेतु प्राकृतिक गैस में हाइड्रोजन को मिश्रित करने का प्रचलन है। प्रा. विजयशंकर एक संभावित अनुप्रयोग पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि, 

“एचपीपी-ईआईएस तकनीक का उपयोग यह निर्धारित करने के लिए भी किया जा सकता है कि, जहाँ प्राकृतिक गैस एवं हाइड्रोजन का मिश्रण प्रवाहित किया जाता है, वहाँ पाइपलाइन पर पेंट की परत का क्षरण कितने समय में होगा।”