लगभग 11,000 साल पहले, मध्यपूर्व के ‘फर्टाइल क्रिसेंट’ इलाके में किसानों को गेहूँ उगाते हुए एक अनोखी चुनौती से जूझना पड़ता था। पकने के बाद इस जंगली प्रजाति के खपली गेहूँ के दाने कटाई से पहले जमीन पर गिरकर बिखर जाते थे। अगले कुछ हज़ारों वर्षों तक किसानों ने सावधानीपूर्वक चुनकर कुछ पौधों की नस्ल को आगे बढ़ाया जिसके परिणामस्वरूप आज के उपजाए जाने वाले गेहूँ तक हम पहुँच पाये हैं। गेहूँ के दाने अब बड़े हो गए हैं, उनकी उपज बेहतर होती है, और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये पौधे कटाई तक पके हुए दानों को जकड़े रहते हैं। गेहूँ, चावल, और मकई जैसी फसलों के वर्षों तक चले चुनिंदा प्रजनन के परिणामस्वरूप इनकी उपलब्ध प्रजातियाँ आज हम तक पहुँची हैं, जिनमें बेहतर उपज, गुणवत्ता, और रोगों से प्रतिरोध की क्षमता है।
इन फसलों को उगाने वाले आमतौर पर पौधों की नई किस्मों की पहचान केवल उनके बाहरी स्वरूप को देखकर करते हैं। लेकिन उनकी अलग अलग किस्मों के बीच का अंतर अक्सर बेहद सूक्ष्म व अस्पष्ट होता है, और उन्हें अलग अलग बता पाने में काफ़ी समय लग जाता है। गलत पहचान से आर्थिक और कानूनी अड़चनें आ सकती हैं। इसके अलावा, विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्राधिकारी नई नस्लों के बौद्धिक संपदा अधिकारों को नियंत्रित करते हैं और वाणिज्यिक तौर पर उनकी खेती पर इन संगठनों के सख्त दिशानिर्देश हैं।
हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में आई.सी.ए.आर.- इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ व्हीट एंड बार्ली रिसर्च, करनाल, और आई.सी.ए.आर. -इंडियन एग्रीकल्चर स्टैटिस्टिक्स रिसर्च इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली के शोधकर्ताओं ने गेहूँ की विभिन्न किस्मों की पहचान करने के लिए एक तेज़ और विश्वसनीय पद्धति प्रस्तावित की है। सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग, मोबाइल एप्लिकेशन डेवलपमेंट, और जेनेटिक विश्लेषण की मिली जुली तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने विस्टा (VISTa) नामक एक सर्वर बनाया है, जो विश्व की पहली वेब आधारित पौधों के प्रजाति की पहचान प्रणाली है, और जिसका विकास गेहूँ की किस्मों की पहचान करने के लिए किया गया है। इस अध्ययन को साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल में प्रकाशित किया गया है।
इस अध्ययन के शोधकर्ताओं का कहना है, “नई नस्लों को पहचानना महत्वपूर्ण है ताकि मौजूदा नस्लों को विकसित किया जा सके या उन्हें सुधारा जा सके, और फसल को उसके प्रजनक या उसके भौगोलिक स्थान से जोड़कर कानूनी विवादों को सुलझाया जा सके ।" गुजरात में आलू उगाने वाले किसानों के एक समूह और लोकप्रिय चिप्स के ब्रांड लेज़ के निर्माता पेप्सिको के बीच उठा हालिया विवाद ऐसा ही एक उदाहरण है। शोधकर्ता कहते हैं, “नस्लों की विविधता के विभेदन से घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय बाजारों में गेहूँ की कीमत में दो गुना से अधिक की वृद्धि हुई है।“
भारत में, पौधों की विविधता और किसान अधिकार प्राधिकरण (पी.पी.वी. और एफ.आर.ए.) फसल की नई किस्मों को उनके बीज से उगाकर और उनमें विशिष्ट गुणों को पहचानकर तय करता है। नई किस्म में कुछ ख़ास रूपात्मक या क्रियात्मक विशेषताएँ होती हैं, जैसे पौधे की ऊँचाई या उसकी पत्तियों का रंग, जो उसे अन्य सूचित प्रजातियों से अलग करता है। प्राधिकारी नई किस्म की फसल में यह भी जाँचते हैं कि उसके गुण, पीढ़ी दर पीढ़ी बदल न रहे हो, और वंश वृद्धि और प्रसार के दौरान भी वे स्थिर बने रहते हो। इन गुणों को सामूहिक रूप से विशिष्टता (distinct), समरूपता (uniform), और स्थिरता (stability), यानी डी.यू.एस. (DUS) के चिन्हों की तरह देखा जाता है, जिनका इस्तेमाल कर नए किस्म की प्रजातियों को स्थापित किया जाता है।
इस अध्ययन के दौरान, शोधकर्ताओं ने भारतीय गेहूँ की 368 विभिन्न किस्मों का चयन किया। उनमें से प्रत्येक के लिए उन्होंने पी.पी.वी. और एफ.आर.ए. द्वारा उल्लिखित दिशानिर्देशों के अनुसार 36 डी.यू.एस. के चिन्ह दर्ज किये। शोधकर्ताओं ने इन किस्मों के आनुवंशिक पदार्थ डी.एन.ए. को भी निकाला और उनका विश्लेषण किया। चूँकि डी.एन.ए. की सभी विविधताएँ पौधे के अलग अलग प्रकार की पहचान करने में उपयोगी नहीं हैं, इसलिए उन्होंने केवल उन गुणों को चुना जिनमें सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण बदलाव दिखाई देते थे। एक दूसरे को प्रभावित करने वाले और अतिरिक्त या ग़ैर ज़रूरी आनुवांशिक परिवर्तनों को खारिज करने के बाद उन्होंने बची हुई 54 विविधताओं पर ध्यान केन्द्रित किया।
डी.एन.ए. में पाए गए इन 54 विविधताओं में से दस डी.एन.ए. के उस भाग से थे जो प्रोटीन अनुक्रमों की कोडिंग में भूमिका नहीं निभाते हैं। प्रोटीन अनुक्रम कई सेलुलर कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शेष 44 विविधताओं का उपयोग आनुवंशिक परिवर्तन और महत्वपूर्ण जैविक कार्यों और लक्षणों के बीच के संबंधों को विकसित करने में किया गया। मिसाल के तौर पर उनमें फूलों का आना, ठंड के प्रति अभ्यस्त होने की क्षमता, प्रकाश संश्लेषण, और रोगों से लड़ने की क्षमता।
इन 36 डी.यू.एस. चिन्हों और 54 डी.एन.ए. की विविधताओं का उपयोग कर शोधकर्ताओं ने प्रत्येक प्रकार की फसल की विशिष्ट पहचान कर पाने लिए इनके क्विक रिस्पांस कोड (क्यू आर कोड) उत्पन्न किये।
शोधकर्ताओं का कहना है, "हालाँकि हमारा वर्तमान अध्ययन भारतीय गेहूँ तक सीमित है, इसे आसानी से अन्य प्रकार की फसलों को शामिल करने के लिए विस्तृत किया सकता है।"
इस विश्लेषण के परिणामों को VISTa (विस्टा : वैराइटी आइडेंटिफिकेशन सिस्टम ऑफ ट्रिटिकम एसटीवम) नामक एक वेब सर्वर पर संग्रहित किया गया है। यह सुलभ डेटाबेस के रूप में काम करता है, जिसमें इन फसल की किस्मों की जानकारी उनके आनुवंशिक चिन्हों से जुड़ी हुई है। यह जानकारी सर्वर से कभी भी हासिल की जा सकती है। इस सर्वर को दूसरी फसलों की किस्मों की पहचान करने के लिए भी आसानी से संशोधित किया जा सकता है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि उनकी इस नई पद्धति से पौधों के आनुवंशिक साधनों को समझने और फसलों के उत्पादन बढ़ाने में मदद मिल सकती है।
फसलों के विशिष्ट किस्मों की पहचान न केवल एक वैज्ञानिक चुनौती है, बल्कि इसमें कानूनी और आर्थिक जटिलताएँ भी शामिल हैं। ऐसे में इन प्रजातियों की समय पर पहचान करने की प्रणाली तैयार करना इस जटिल चुनौती को संबोधित करने की दिशा में एक कारगर कदम है।