वैज्ञानिकों ने आरोपित विकृति के अंतर्गत 2-डी पदार्थों के परमाण्विक गुणों का सैद्धांतिक परीक्षण किया है।

भारत का मानसिक स्वास्थ्य संकट परिदृश्य: क्या भारत के पास आसन्न मानसिक स्वास्थ्य संकट को नियंत्रित करने के लिए संसाधन हैं?

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Bengaluru
12 फ़रवरी 2021
भारत का मानसिक स्वास्थ्य संकट परिदृश्य: क्या भारत के पास आसन्न मानसिक स्वास्थ्य संकट को नियंत्रित करने  के लिए संसाधन हैं?

[Image by Utkarsha A Singh]

“मैं आपातकालीन विभाग में चिकित्सा प्रलिपिक था जो अंततः चिकित्सक सहायक या सामाजिक कार्यकर्ता बनने की आकांक्षा रखता था। यद्यपि मैंने अपना जीवन समाप्त करने के लिए कभी कोई योजना नहीं बनाई थी, किन्तु मैंने मृत्यु और आत्महत्या के बारे में सोचते हुए काफी चिन्ताजनक​ समय बिताया था। मैं इस तथ्य से भयभीत था कि अगर मेरा अवसाद और बढ़ गया तो मुझे यह जानकारी थी कि चिकित्सकीय और शारीरिक रूप से मृत्यु कैसे प्राप्त की जा सकती है। मैंने कभी किसी को संदेह नहीं होने दिया कि मैं मुश्किल में हूँ क्योंकि मुझे अमोघ और सक्षम दिखने की ज़रूरत थी।” 
–– डॉ. केविन फो, माइ डबल लाइफ़: मैन्टल इलनेस इन हैल्थ केयर

हम में से भी कई लोग दुनिया के सामने एक साहसी चेहरा रखकर नकारात्मक विचारों की ओर से  अपनी आँखें बंद करने की कोशिश करते हैं। फिर भी मानसिक बीमारी रूपी दानव से पीड़ित रहते हैं। यद्यपि मानसिक बीमारियों से निपटने के लिये प्रभावी नीतियों की परम आवश्यकता है, किन्तु सरकार ऐसी  असंक्रामक  बीमारियों के लिए नीतियां क्यों बनाए जो शारीरिक रूप से दिखती भी नहीं?

इस प्रश्न की उत्पत्ति 2008-2013 विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट से होती है जिसमें हृदय रोगों, मधुमेह, श्वसन संबंधी रोगों और कैंसर जैसे असंक्रामक रोगों को शामिल किया गया था। मानसिक  रोगों को केवल फुटनोट में स्थान मिला, जिसमें कहा गया कि, "मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकारों का बोझ अधिक होने के बावजूद वे यहां शामिल नहीं हैं क्योंकि उनके जोखिम कारक अन्य रोगों के समतुल्य नहीं हैं (शराब के हानिकारक उपयोग के अलावा), और उनके इलाज के लिये अलग रणनीतियों की आवश्यकता होती है।” हालांकि, अनुसंधान से पता चलता है कि असंक्रामक रोगों और मानसिक स्वास्थ्य का बहुत गहरा सम्बन्ध है। उदाहरण स्वरुप , लगभग 50% कैंसर रोगी अवसाद और घबराहट (एंग्ज़ायटी) से पीड़ित होते हैं, जिनका जीवन  इलाज होने पर लम्बा हो सकता है। इसके विपरीत, अवसाद के रोगियों में हृदय रोग होने का खतरा अधिक होता है। जिन रोगियों को दिल का दौरा पड़ चुका है, उनमें अवसाद का उपचार करना उनके चिकित्सालय में पुनः भर्ती होने की सम्भावना को कम कर देता है। इसके अतिरिक्त अवसाद की उपस्थिति  रोगियों में टाइप 2 मधुमेह हो जाने  का खतरा बढ़ा  देती है। 

इस प्रकार मानसिक बीमारियाँ न केवल पृथक रोग हैं, बल्कि अन्य रोगों के साथ  मिल कर अपनी उपस्थिति दर्शाती हैं। भारत में लगभग 42.3 प्रतिशत कॉर्पोरेट कर्मचारी घबराहट (एंग्ज़ायटी) और अवसाद से पीड़ित हैं, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को 1.03 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हो सकता है। ये नुकसान पीड़ित कर्मचारियों की अनुपस्थिति या काम के घंटों के दौरान होने वाली  उत्पादकता की कमी के कारण हो सकते हैं। इस तरह के चौंका देने वाले आंकड़ों के बावजूद भारत सरकार ने 2015-16 में अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र 1.3% स्वास्थ्य बजट पर खर्च किया, जिसमें मानसिक स्वास्थ्य पर केवल 0.06% के करीब खर्चा किया गया। मानसिक स्वास्थ्य पर जहाँ विकसित देश अपने स्वास्थ्य बजट का लगभग 5% खर्च करते हैं, और बांग्लादेश जैसा विकासशील देश अपने स्वास्थ्य बजट का 0.44% खर्च करता है, इस मद के हमारे आंकड़े दुनिया में न्यूनतम आंकड़ों में से एक हैं। भारत सरकार ने 2025 तक स्वास्थ्य सेवा पर खर्च को 1.3% से बढ़ाकर 2.5% करने का वादा किया है। हालांकि इसका कितना प्रतिशत मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च किया जाएगा, यह देखना अभी बाकी है। 

मानसिक स्वास्थ्य सेवा के लिए आधारभूत संरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर)

मानसिक स्वास्थ्य देखभाल की सेवाओं की लागत का अनुमान लगाने के लिए नीति निर्माताओं को इन्फ्रास्ट्रक्चर और मानव संसाधनों के वांछित विस्तार की स्पष्ट जानकारी  की आवश्यकता है। 2019 में एक संसदीय प्रश्नावली से ये पता चला था कि सम्पूर्ण भारत में केवल 21 राज्यों में कुल 43 सरकारी मानसिक चिकित्सालय हैं। केन्द्र शासित प्रदेशों में केवल दिल्ली में एक मात्र  मानसिक अस्पताल है, जबकि उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों में एक भी नहीं है। देश में मानसिक स्वास्थ्य हेतु दस​ उत्कर्षता केन्द्र (सैन्टर ऑफ एक्सीलैंस) और तीन केन्द्रिय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान हैं। 

डब्ल्यूएचओ द्वारा 2017 में जारी  मैन्टल हैल्थ एटलस में  बताया गया है कि भारत में प्रति एक लाख व्यक्तियों के लिए 0.29 मनोचिकित्सक हैं। मनोवैज्ञानिकों की संख्या और भी  कम है। एक लाख व्यक्तियों के लिए केवल 0.15 मनोवैज्ञानिक उपलब्ध हैं। कुल मिलाकर 1.93 मानसिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता प्रति एक लाख जनसंख्या के लिए उपलब्ध हैं। यह विस्मयकारी है कि पूरे देश में केवल 49 बाल मनोवैज्ञानिक हैं। प्रति एक लाख व्यक्तियों के लिये  एक वर्ष में स्वास्थ्य कार्यकर्ता सामुदायिक वाह्यरोगी सुविधा केन्द्र  में केवल 11.1 बार भ्रमण करते हैं। एटलस में ये भी रिपोर्ट किया गया है कि सरकार ने स्कूल-आधारित और कलंक निरोधी मानसिक स्वास्थ्य जागरुकता अभियान चलाये। हालांकि, इनमें आत्महत्या  की रोकथाम सम्बन्धी कोई रणनीति नहीं थी।

हाल ही में, इंडियन जर्नल ऑफ  साइकिएट्री को लिखे एक पत्र में, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मैन्टल  हैल्थ एंड न्यूरो साइंसेज के शोधकर्ताओं ने बताया कि 2019 तक भारत में प्रति लाख व्यक्तियों के लिए केवल 0.75 मनोचिकित्सक हैं। हालांकि यह संख्या 2017 से बढ़ी है, परन्तु यह विकसित देशों के तत्सम्बन्धी आंकड़ों के निकट भी नहीं है, जहां प्रति लाख व्यक्तियों पर तीन मनोचिकित्सक हैं। उक्त संख्या के आधार पर, भारत को 2029 तक इस कमी को पूरा करने के लिए प्रति वर्ष लगभग 2700 नए मनोचिकित्सकों की आवश्यकता पड़ेगी। यह पत्र डॉक्टरों की कमी के अतिरिक्त दोषपूर्ण निगरानी प्रणाली  की ओर भी इंगित करता है, जिससे देश में  स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या का सही ​आकलन करना बहुत मुश्किल हो जाता है।

एमराल्ड देश समूह  

भारत दुनिया के निम्न और मध्यम आय वाले देशों (एल​एमआईसी) की श्रेणी में आता है। अनियंत्रित गरीबी और अशिक्षा ऐसे देशों के  निवासियों को मानसिक स्वास्थ्य विकारों  के प्रति अति संवेदनशील  बना देती है। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए, ‘एल​एमआईसी में उभरती मानसिक स्वास्थ्य प्रणालियाँ’ (एमराल्ड) कार्यक्रम के अन्तर्गत छह देशों - भारत, नेपाल, दक्षिण अफ्रीका, इथियोपिया, नाइजीरिया और युगांडा, ने वर्ष 2012 से 2017 तक साथ में मिलकर काम किया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य कम और मध्यम आय वाले देशों में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की पहचान करना और उनका समाधान खोजना था। इस योजना के अन्तर्गत, आर्थिक स्थिरता को दृष्टिगत रखते हुए छह सहभागी देशों के भीतर मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं की आवश्यकता का आकलन किया गया। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत स्वास्थ्य और वित्त मंत्रालयों, नीति निर्माताओं और योजनाकारों, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियों, गैर-सरकारी संगठनों, शोधकर्ताओं, रोगियों, प्रदाताओं, और देखभाल करने वालों  का एक तंत्र  (नेटवर्क) भी बना। एक सुदृढ़ मानसिक स्वास्थ्य नीति तैयार करने  के लिए इन विभिन्न समूहों में पारस्परिक संवाद एवं सर्वेक्षणों और साक्षात्कारों द्वारा कार्यक्रम का मूल्यांकन करना अत्यधिक महत्वपूर्ण था। एमराल्ड कार्यक्रम के परिणाम स्वरूप बड़े पैमाने पर नीति में बदलाव किया गया। 1982 के बाद पहली बार भारत ने मानसिक स्वास्थ्य योजना का पुनरोत्थान किया और 2017 में मैन्टल हैल्थकेयर अधिनियम को लागू किया गया।

 

[Taken from Semrau et. al. (2015).]

सरकारी हस्तक्षेप: मानसिक स्वास्थ्य नीतियां

भारत सरकार ने 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य योजना (एनएमएचपी) को लागू किया था। इस योजना का उद्देश्य सभी को न्यूनतम मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना था। इस योजना के अन्तर्गत निर्देश दिया गया कि मानसिक स्वास्थ्य के ज्ञान को सामान्य स्वास्थ्य देखभाल में भी लागू किया जाए, और समाज को मानसिक स्वास्थ्य सुधार हेतु देश में अपेक्षित योगदान देना चाहिये। 1996–97 में लागू किये गये जिला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (डीएमएचपी) ने एनएमएचपी का अनुसरण किया। इस कार्यक्रम में आगे ऐसे बिंदु शामिल किए गए जो रोगियों के लिए यात्रा की कठिनाइयों को कम करेंगे, समाज में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में लांछना को कम करेंगे और रोगियों को उनके नियमित जीवन में पुनर्वासित करेंगे। एनएमएचपी और डीएमएचपी पर 2005 के एक अध्ययन से पता चला कि इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन के प्रति जिला प्रमुखों के भीतर उत्साह की कमी थी। योजनाओं को लागू करने के बावजूद स्वास्थ्य कर्मियों और सुविधाओं की कमी बनी रही।

इन योजनाओं के परिणाम 2015-16 के राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण में सामने आए। सर्वेक्षण में पाया गया कि 10.6 प्रतिशत, या 15 करोड़ भारतीय, किसी न किसी प्रकार की मानसिक परेशानी से पीड़ित हैं और उन्हें सक्रिय मदद की आवश्यकता है। ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी महानगरीय क्षेत्रों में बीमारी का भार अधिक था। अधिकांश मानसिक बीमारियां सामान्य मानसिक विकारों की श्रेणी में आती हैं, जो 10% आबादी को प्रभावित करती हैं। आजीवन अवसाद की चपेट में 5% हैं , जबकि मादक द्रव्यों के सेवन और  शराब की लत से 22% आबादी पीड़ित है।

मानसिक विकारों से त्रस्त जनसँख्या में वृद्धि को देख कर सरकार ने एनएमएचपी योजना को रद्द किया और उसके स्थान पर 2017 में मैन्टल हैल्थकेयर अधिनियम को लागू किया। इस नए अधिनियम के तहत मानसिक बीमारी को परिभाषित किया गया। इस अधिनियम ने मानसिक रोगियों को चिकित्सा एवं उपचार के चयन का अधिकार दिया और आत्महत्या के प्रयास को अनपराध की श्रेणी में रखा। नए अधिनियम द्वारा प्रस्तावित दिशा निर्देशों पर टिप्पणी करते हुए, डॉ. अभिषेक मिश्रा और डॉ. अभिरुचि गहलोत, सामुदायिक और परिवार चिकित्सा विभाग, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, लिखते हैं,

“मैन्टल हैल्थकेयर अधिनियम 2017 से अपेक्षित है कि वह भारत में, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश और सबसे तीव्र गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी मामलों में अपराधोन्मुखी के स्थान पर  विवेकपूर्ण  रोगोन्मुखी स्वास्थ्य देखभाल को सम्मिलित करते हुए मौलिक द्र्ष्टिकोण में बदलाव लायेगा। प्राथमिक रोकथाम,  पुनःएकीकरण और पुनर्वास जैसे पहलुओं पर दिशानिर्देशों की समीक्षा करने की आवश्यकता है क्योंकि इस तरह के सुदृढ़ीकरण के बिना, इसका क्रियान्वयन​ अधूरा होगा और पूर्व मानसिक स्वास्थ्य रोगियों का मुद्दा मौजूद रहेगा।" 

अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के अलावा, देश के विभिन्न हिस्सों में कई लघु-स्तरीय समुदाय आधारित योजनाएं चल रही हैं। विदर्भ स्ट्रैस एंड हैल्थ प्रोग्राम (विश्राम​) को 2011 में मानसिक स्वास्थ्य साक्षरता बढ़ाने के उद्देश्य से विदर्भ, महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में शुरु किया गया। 2013-15 में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि विदर्भ के ग्रामीण क्षेत्रों में अवसाद और मानसिक रोगों के विषय में ज्ञान और जागरूकता में वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप, यहाँ बड़ी संख्या में लोग मानसिक स्वास्थ्य  सम्बन्धी मुद्दों के इलाज के लिए अस्पताल  जाने लगे। 2007 से 2012  की अवधि में केरल में किशोरों के लिए जिला स्तरीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम, उनर्व, चलाया गया था। इस कार्यक्रम द्वारा मादक द्रव्यों के सेवन सम्बन्धी मुद्दों को संबोधित किया गया, जिसके परिणामस्वरूप आचरण विकारों के कारण होने वाले छात्रों के निलम्बन में कमी आयी।

वर्ष 2013 से 2015 मध्य, महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों में आत्मीयता कार्यक्रम के अन्तर्गत अवसाद और घबराहट (एंग्ज़ायटी) जैसे सामान्य मानसिक विकारों पर काम किया गया। इस परियोजना से सामने आया कि मानसिक रोगों की सेवाओं में कमी है और स्वास्थ्य कर्मियों पर बहुत अधिक कार्य बोझ है। इस कमी को पूरा करने के लिए आवश्यक परामर्श और चिकित्सा के लिए समुदाय आधारित कार्यक्रम के रूप में आयुर्वेदिक डॉक्टरों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की सेवाएं ली गयीं। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत एंड्रायड प्लेटफ़ॉर्म पर आत्मीयता मोबाइल एप्लिकेशन (ऐप) भी बनाया गया। ऐप में फिल्मों की सूची थी, जिन्हें देखकर ऐप उपयोगकर्ताओं को कुछ प्रश्नों के उत्तर देने होते थे। प्रश्नावली के उत्तरों की जानकारी आत्मीयता मित्र के पास जाती थी। आत्मीयता मित्र वे पूर्व चयनित  स्वयंसेवी थे जिन्हें चिंताजनक लक्षण पहचानने का प्रारंभिक प्रशिक्षण दिया गया था। आगे के मूल्यांकन के लिए आत्मीयता मित्र ये जानकारी प्रशिक्षित पेशेवरों को अग्रेषित कर देते थे। कुल मिलाकर, इस कार्यक्रम ने सामुदायिक प्रयास की सफलता को प्रदर्शित किया।

मैन्टल हैल्थकेयर अधिनियम 2017 के रूप में उत्साहवर्द्धक सरकारी प्रयास, और विविध मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों की सफलता, हमारी क्षमता में सुधार के संकेतक​ हैं। हालांकि, समन्वय और दूरदर्शिता द्वारा ही इन  प्रयासों को  जनसंख्या के एक छोटे से वर्ग पर किए गए प्रयोग मात्र बनने से रोका जा सकता है । हाल ही में भारत ने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ मिलकर मानसिक स्वास्थ्य संकट से निपटने के लिए समझौता किया है। फरवरी 2020 में हस्ताक्षरित इस समझौते के अंतर्गत यूएसए ने भारत के साथ अपने मानसिक स्वास्थ्य अनुसंधान को साझा करने की सहमति दी है ।इसके बदले में भारत यूएस​ए को मानसिक रोगों से लड़ने के लिए  पारंपरिक भारतीय औषधियों और उपचारों की जानकारी प्रदान करेगा।

प्रमुख मनोवैज्ञानिक और रमन मैगसेसे पुरस्कार विजेता डॉ. भरत वाटवानी ने भारत पर व्युत्पन्नता पूर्वक टिप्पणी करते हुए कहा, “मानसिक रूप से बीमार के लिए देश में आशा, चिंता और करुणा है [पर ये गलत दिशा में है]।” सरकारी नीतियों में सुधार और जन पहुँच के व्यापक जागरूकता अभियानों के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य सेवा में सकारात्मक बदलाव आया है। अब हमें भारत में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर इन नीतियों के प्रभाव की गहन शोध की आवश्यकता है। रिसर्च मैटर्स पर श्रृंखला के अंतिम भाग में हम भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर अनुसंधान की स्थिति को आच्छादित ​ करेंगे।