किसी भी रोग पर शोध के लिए आवश्यक कदमों में से एक है यह अध्ययन करना कि उक्त रोग जनसंख्या को कैसे प्रभावित करता है। वैज्ञानिक अध्ययन करते हैं उन कारकों का जो व्यक्ति को रोग के प्रति संवेदनशील बनाते हैं और उन लोगों की संख्या का जो रोग से प्रभावित होते हैं। ये अध्ययन महामारी विज्ञान के अतंर्गत आते हैं और एक क्षेत्र में किसी विशेष रोग के भार का आकलन करने के लिए आवश्यक हैं, भले ही वह क्षेत्र एक देश हो, राज्य हो, या उसके जिले हों। इन अध्ययनों के आधार पर सरकार जनता की सहायता करने के लिए अपनी नीतियाँ निर्धारित करती है। ये अध्ययन उन वैज्ञानिकों के लिये भी डेटा का एक महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं, जो किसी विशेष रोग के कारकों और चिकित्सीय रणनीतियों पर शोध करते हैं।
भारत में मानसिक रोगों पर ऐसे कुछ ही महामारी विज्ञान के अध्ययन हैं जो समय के माध्यम से पूरे देश में इन रोगों की व्यापकता दिखाते हैं। 1964 में 2700 व्यक्तियों के एक सर्वेक्षण से पता चला था कि पुडुचेरी में औसतन प्रति 1000 व्यक्तियों में 9.4 व्यक्ति मानसिक रोग से पीड़ित हैं। तीन वर्षों के उपरांत, लखनऊ में 1700 लोगों पर किये गये एक अन्य अध्ययन में पता चला कि 1000 में से 72 व्यक्ति किसी ना किसी मानसिक रोग से पीड़ित थे। इन दोनों अध्ययनों ने शहरी आबादी पर ध्यान केंद्रित किया था। 1972 में ग्रामीण लखनऊ में किये गये एक अन्य अध्ययन में पीड़ितों की संख्या कम पायी गयी थी, जिसमें प्रति 1000 लोगों पर केवल 39 व्यक्ति रोगी थे। इन अध्ययनों में मानसिक रोगों की व्यापकता का आकलन करने के लिए विभिन्न पद्यतियों का उपयोग किया गया था। कुछ परीक्षणों ने रोगी के व्यक्ति वृत्त पर ध्यान केंद्रित किया था, और अन्य ने व्यक्तिगत साक्षात्कार का उपयोग किया था, जिसके परिणामस्वरूप अलग-अलग अध्ययनों के परिणामों में प्रचुर विविधता पायी गयी थी। उदाहरणतः, जहाँ एक अध्ययन में पुडुचेरी में प्रति 1000 व्यक्तियों में 9.4 व्यक्तियों को मानसिक रोग से पीड़ित पाया गया था, वहीं अन्य अध्ययन में पश्चिम बंगाल में यह संख्या 102.8 थी।
1964 एवं 2001 के मध्य किए गए अधिकांश अध्ययनों में जुनूनी-बाध्यकारी विकार, सामाजिक भय, और मादक द्रव्यों के सेवन जैसे गैर-मनोवैज्ञानिक विकारों को नज़रअंदाज़ करते हुए नैदानिक रूप से पहचाने गये रोगों पर ध्यान केंद्रित किया गया। ऐसे अनुवर्ती अध्ययनों की कमी भी पायी गयी जिनमें पिछले अध्ययनों के लिये उपयोग की गयी आबादी का प्रयोग किया गया हो, जिससे मानसिक विकारों की प्रसार प्रवृत्ति के विषय में ज्ञात हो सके। केवल पश्चिम बंगाल में ही एकमात्र ऐसा अध्ययन किया गया जिसमें समान विधि का उपयोग करते हुए उसी ग्रामीण आबादी के मानसिक स्वास्थ्य का सतत दो दशक तक परीक्षण किया गया। अध्ययन में मानसिक रोगों में समान व्यापकता पायी गयी, 1972 में प्रति 1000 व्यक्तियों पर 117 और 1992 में प्रति 1000 व्यक्तियों पर 105 व्यक्ति मानसिक रोग से पीड़ित पाये गये। हालांकि इस अध्ययन में प्रस्तुत आंकड़े पूरे देश में मानसिक विकारों की व्यापकता दर का अनुमान लगाने के लिए पर्याप्त नहीं है, पर यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे अनुसंधान नीति निर्माताओं को मानसिक स्वास्थ्य रोग के प्रसार में परिवर्तन को समझने हेतु सूचित कर सकता है।
महामारी विज्ञान के अध्ययन महंगे होते हैं, क्योंकि इनमें एक विस्तारित अवधि के लिए एक बड़ी आबादी का सर्वेक्षण करना शामिल होता है। ऐसे अध्ययनों से मिलने वाली जानकारी अत्यंत मूल्यवान होती है और ऐसे अनुसंधान में किये गये व्यय बेहतर भविष्य की दिशा में एक निवेश ही हैं। भले ही भारत में अभी तक कुछ ही शोध मानसिक स्वास्थ्य की व्यापकता पर किये गये हैं, पर अभी पिछले कुछ वर्षों में परिस्थितियों में सुधार हुआ है। वर्ष 2016 में बेंगलुरु स्थित राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और स्नायु विज्ञान संस्थान (निमहैंस) द्वारा मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण आयोजित किया गया। 2016 के मैन्टल हैल्थकेयर विधेयक को 2017 में लागू किया गया। नीति और जागरूकता में यह सुधार भारत में मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों पर संगठित अनुसंधान को बढ़ावा देगा।
मानसिक स्वास्थ्य अनुसंधान में महामारी विज्ञान, मनोविज्ञान, जैविक विज्ञान, और संज्ञानात्मक अध्ययन शामिल हैं जिन्हें लिंग, भूगोल, और संस्कृति के आधार पर आगे वर्गीकृत किया जा सकता है। इस लेख में, हम महिलाओं और बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य जैसे विषयों पर ध्यान केंद्रित करेंगे, जिन पर अभी कम शोध हैं। हालांकि, मानसिक स्वास्थ्य अनुसंधान एक विशाल विषय है और इसमें निम्नलिखित चर्चा से कहीं अधिक मुद्दे शामिल हैं।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर लिंग आधारित शोध
2015–2016 के मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण से पता चलता है कि पुरुषों में महिलाओं की तुलना में मानसिक रोगों की व्याप्तता अधिक है। हालांकि, अवसाद, घबराहट, और विक्षिप्तता (न्यूरोसिस) जैसे विकार महिलाओं में अधिक हैं। महिलाएं लिंग प्रतिबंधित जोखिम कारकों से पीड़ित हैं, जो उन्हें अवसादग्रस्तता विकारों से संवेदनशील बनाते हैं। इनमें से प्रमुख हैं: प्रसूति-पूर्व अवसाद, जो गर्भावस्था के दौरान प्रभावित करता है, और प्रसवोत्तर अवसाद, जो प्रसव के बाद प्रभावित करता है। ये दोनों विकार बच्चे की कुशल देखभाल को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे बच्चे का विकास ठीक से नहीं होता है।
भारत में नई माताओं में प्रसूति-पूर्व अवसाद की व्यापकता 21.8% है, जबकि प्रसवोत्तर अवसाद की 19% है। मातृ स्वास्थ्य के मुद्दे में मानसिक स्वास्थ्य को शामिल नहीं किया जाता है, और इसमें अधिकतम ध्यान माँ और बच्चे के शारीरिक स्वास्थ्य पर ही केंद्रित किया जाता है। गरीब सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि, और शिक्षा की कमी, गर्भावस्था से संबंधित अवसाद के जोखिम कारक हैं जो आमतौर पर अन्य निम्न और मध्यम आय वाले देशों में भी देखे गये हैं। भारतीय और पाकिस्तानी महिलाओं में मानसिक स्वास्थ्य पर डॉ. पटेल के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि इन दोनों देशों में लगभग 23% नई माँ प्रसवोत्तर अवसाद से पीड़ित हैं। इस तनाव का एक प्रमुख कारण बालिका का जन्म था। एक बच्चा अपने पहले वर्ष में बहुत कमजोर होता है और उसे अपनी माँ से सतत देखभाल की आवश्यकता होती है। विकासशील देशों में, जहां परिवार का वातावरण शत्रुतापूर्ण हो सकता है, मातृ सहायता का महत्व अधिक है।
डॉ. पटेल और उनके सहयोगी लिखते हैं, "प्रसवोत्तर अवसाद बच्चों में दीर्घकालिक भावनात्मक, संज्ञानात्मक और व्यवहार संबंधी समस्याओं से जुड़ा है।"
भारत में महिलाओं में मादक द्रव्यों के सेवन पर अध्ययन कम ही हैं और हाल के वर्षों में ही किये गये हैं। उन जोखिम कारकों और सामाजिक परिस्थितियों के विषय में कम ही जानकारी है जिनके कारण ये महिलाएं मादक द्रव्यों के दुरुपयोग का शिकार बनती हैं। भारतीय महिलाओं में मादक द्रव्यों के सेवन की राष्ट्रीय व्यापकता दर स्थापित करने के लिये अधिक शोध करने की आवश्यकता है।
सामूहिक रूप से, भारत में लिंग भेद के साथ-साथ संस्कृति और नस्ल के मानसिक रोगों पर पड़ने वाले प्रभाव से संबंधित शोध कम ही हैं। ग्रामीण भारतीय महिलाओं में अवसाद, घबराहट, और बेचैनी (पैनिक) जैसे सामान्य मानसिक विकारों के मुख्य जोखिम कारकों के ऊपर एक अध्ययन में उन कारकों पर भी प्रकाश डाला गया जो उन्हें मानसिक रोग से बचाते हैं। इन कारकों में कृषि कार्य, निर्णय लेने की स्वतंत्रता, घर पर शौचालय की उपलब्धता, खाद्य सुरक्षा, और आजीविका पर कम आघात शामिल हैं। महिलाओं में मानसिक रोग के सुरक्षात्मक और भावी सूचक कारक, दोनों ही ऐसे मुद्दों से संबंधित हैं जो भारत के लिये विशिष्ट हैं। मानसिक बीमारियों के अनुसंधान और उपचार को एक भारतीय महिला के जीवन के कई पहलुओं को ध्यान में रखना चाहिए। शोध बताते हैं कि महिलाओं में मानसिक स्वास्थ्य का आकलन करते हुए लिंग आधारित हिंसा और पूर्वाग्रह को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर शोध
भारतीय बच्चों में सबसे अधिक शोधित मानसिक विकार बौद्धिक विकलांगता, सीखने के विकार, श्रवण और दृश्य हानि, भाषण और भाषा की समस्याएं, स्वलीनता (ऑटिज्म), और अतिसक्रियता विकार (एडीएचडी) हैं। भारतीय बच्चों में तंत्रिका-विकासात्मक (न्यूरोडेवलपमेंटल) विकारों के प्रभाव पर शोध की कमी है, जो इस समस्या का समाधान करने के लिए आवश्यक नीतिगत परिवर्तनों के निर्धारण में एक बाधा है। 2018 में तंत्रिका-विकासात्मक विकारों की व्यापकता का अनुमान लगाने के लिए कांगड़ा, पलवल, ढेंकनाल, हैदराबाद और गोवा में, दो से नौ वर्ष के बीच के, 3964 बच्चों पर सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण का निष्कर्ष यह निकला कि इस आयु वर्ग में, आठ में से एक बच्चा, किसी ना किसी तंत्रिका-विकासात्मक विकार से पीड़ित है। छह से नौ साल के बच्चे विशेष रूप से कमजोर होते हैं, जिनमें से कुछ में एक से अधिक विकार होते हैं।
अध्ययन से पता चला कि कुछ शिशुओं में तंत्रिका-विकासात्मक विकारों के विकास का उच्च जोखिम था। इनमें वे बच्चे शामिल थे जिन्होंने घर में जन्म लिया, जिनका जन्म के समय कम भार था, जिन्होंने जन्म के समय रोने में देरी की, जिनका कालपूर्व जन्म था या जो मस्तिष्क में संक्रमण, नवजात शिशु रोग, या अवरुद्ध विकास से पीड़ित थे। अनुसंधान से पता चलता है कि तंत्रिका-विकासात्मक क्षति से बचाने के लिए इन जोखिम कारकों की शीघ्र पहचान और उपचार आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि इन जोखिम कारकों के विषय में जागरूकता अति महत्वपूर्ण है।
2018 के एक अध्ययन के अनुसार, दो से छह वर्षीय बच्चों में तंत्रिका-विकासात्मक विकारों की व्यापकता दर प्रति 1000 बच्चों में 29 से 187 रोगियों तक की थी। पिछले एक अध्ययन ने भारतीय बच्चों में बौद्धिक अक्षमताओं की व्यापकता का अनुमान लगाने के लिए, 2002 के 58वें दौर के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों का उपयोग किया था। उन्होंने पाया कि प्रत्येक 1000 बच्चों में से 10.5 एक बौद्धिक विकलांगता से पीड़ित हैं। वर्तमान अध्ययन और 1970 के दशक की शुरूआत में किये गये अध्ययनों के परिणामों में तुलनीय व्यापकता दर पायी गयी, जहाँ दस वर्ष से कम आयु के बच्चों की शहरी आबादी में प्रति 1000 पर 94 बच्चे, और ग्रामीण आबादी में प्रति 1000 पर 81 बच्चे पीड़ित पाये गये। इसके विपरीत, 1981 में भारत में विद्यालयों में किए गए अध्ययनों में उच्चतर व्यापकता दर पायी गयी, जिनमें प्रति 1000 बच्चों पर 207 पीड़ित पाये गये। कुल मिलाकर, बच्चों में मानसिक रोगों की व्यापकता दर 1978 से 2002 तक अपेक्षाकृत बनी रही। फिर भी, अध्ययनों में जब भी विद्यालयों के स्थान पर समुदाय पर ध्यान केंद्रित किया गया तो परिणाम बहुत भिन्न थे।
बौद्धिक विकलांगता, भाषा संबंधी समस्याएं, और मिर्गी जैसे तंत्रिका-विकासात्मक विकारों के अतिरिक्त कई और विशिष्ट विकार हैं जिनके महामारी संबंधी आंकड़े भारत में उपलब्ध नहीं हैं। इन बीमारियों में एंजेलमैन सिंड्रोम, प्रेडर-विली सिंड्रोम, रिट्ट सिंड्रोम, फ्रैजाइल एक्स, निकोलायड्स-बैरिटसर सिंड्रोम, और कॉफिन-सिरिस सिंड्रोम शामिल हैं। ये आनुवंशिक रोग हैं जो अत्यधिक विकलांगता का कारण बन सकते हैं। इन कम ज्ञात रोगों की व्यापकता के बारे में शोध से इन बीमारियों के प्रबंधन के प्रति जागरूकता और प्रशिक्षण को बढ़ावा मिलेगा। भारत में एडीएचडी के अनुसंधान की स्थिति पर एक अध्ययन ने यहां पर समुदाय-आधारित अध्ययनों की कमी को इंगित किया गया है। समय के साथ एडीएचडी की व्यापकता दर कैसे बदली है, इस पर कोई जानकारी नहीं है। इसके अतिरिक्त, मूल्यांकन विधियों में भिन्नता है, जिससे एडीएचडी पर उपलब्ध आंकड़ों की तुलना करना कठिन है।
वैश्विक अनुसंधान में भारत का योगदान: 10/66 मनोभ्रंश अनुसंधान समूह
मनोभ्रंश के कुल रोगियों में से लगभग 66% निम्न और मध्यम आय वाले देशों में रहते हैं, फिर भी इन देशों का मनोभ्रंश के लिए जनसंख्या-आधारित अध्ययन में 10% योगदान ही है। 1998 में लैटिन अमेरिका, कैरिबियन, भारत, रूस, चीन, और दक्षिण पूर्व एशिया के 20 देशों में जनसंख्या-आधारित अध्ययन के लिए 10/66 डिमेंशिया अनुसंधान पहल के रूप में दुनिया भर के शोधकर्ता एक साथ आए। इस समूह द्वारा प्रकाशन में भारत का योगदान सबसे अधिक रहा। यह योगदान वैश्विक सूचना कोष में भी वृद्धि करता है, जहां हिस्पैनिक और चीनी आबादी के आंकड़ों की तुलना भारत से की जा सकती है।
बुढ़ापे और मनोभ्रंश जैसे विषयों पर अनुसंधान से डब्ल्यूएचओ जैसै संगठन सूचना कोष उत्पन्न करते हैं, जिससे निम्न और मध्यम आय वाले देशों को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के प्रबंधन में सहायता प्राप्त होती है। 2008 में मनोभ्रंश रोगियों और उनके देखभालकर्ताओं पर किए गए एक अध्ययन में मानसिक स्वास्थ्य के कुशल प्रबंधन हेतु समुदाय-आधारित कार्यक्रमों के पक्ष में प्रमाण प्रदान किया गया। 10/66 अनुसंधान समूह के परिणामों से पता चलता है कि मनोभ्रंश निदान के लिए परीक्षण रोगी की आबादी के सांस्कृतिक मानदंडों के अनुसार बनाये जाने चाहिए। उदाहरणस्वरूप, यूरोपीय आबादी एक वायलनचेलो (संगीत उपकरण) की पहचान कर सकती है, जबकि भारतीय आसानी से सितार को पहचान सकते हैं। वैश्विक आबादी के लिए सामान्यीकृत मनोभ्रंश परीक्षण से विभिन्न संस्कृतियों में त्रुटिपूर्ण निदान होगा। भारत में शोधकर्ताओं ने मनोभ्रंश के निदान के लिए परीक्षणों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने का काम किया है। इन सांस्कृतिक और भाषा प्रासंगिक परीक्षणों ने भारत में सकारात्मक परिणाम दिखाए हैं। हालांकि, इन सभी नैदानिक परीक्षणों के लिये साक्षरता की आवश्यकता है। जो लोग पढ़ और लिख नहीं सकते, उनके लिए नैदानिक परीक्षण विकसित करने के लिए अधिक शोध आवश्यक है।
निष्कर्ष
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के पूर्व प्रमुख, डॉ. एन. के. गांगुली ने मानसिक स्वास्थ्य अनुसंधान में की गई प्रगति की सराहना करते हुए जनता के लिए इसकी अनुपलब्धता को इंगित किया।
आईसीएमआर द्वारा मानसिक स्वास्थ्य अनुसंधान की एक संकलित रिपोर्ट में वे लिखते हैं, "अतीत की असहायता को उम्मीद से बदल दिया गया है क्योंकि स्किज़ोफ़्रेनिया जैसी स्वास्थ्य की स्थिति का उपचार कभी बंद संस्थानों में किया जाता था, जो अब सामान्य अस्पतालों में, प्राथमिक देखभाल सेवाओं द्वारा और घर पर हस्तक्षेप के माध्यम से किया जाता है। शीघ्र स्वास्थ्यलाभ हेतु शीघ्र उपचार आवश्यक है।”
भारत ने पिछले एक दशक में मानसिक स्वास्थ्य अनुसंधान और जागरूकता में सराहनीय प्रगति की है। हालांकि, मानसिक स्वास्थ्य पर लंबी अवधि तक व्यापक जनसंख्या पर किये जाने वाले अध्ययनों की आवश्यकता है। अन्यथा, हम कभी नहीं जान पाएंगे कि वर्तमान नीति परिवर्तनों का देश की मानसिक स्वास्थ्य स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता है। सही जनसंख्या अध्ययन वर्तमान में मानसिक रोगों की वास्तविक व्यापकता को निर्धारित करने और भविष्य के लिए नीतिगत निर्णयों को मजबूत करने में सहायता प्रदान करेंगे।
इसके साथ, हम मानसिक स्वास्थ्य पर अपनी श्रृंखला का समापन करते हैं, जिसके माध्यम से हमें अनुभूति हुई है कि भारत मानसिक स्वास्थ्य नीतियों, देखभाल और अनुसंधान में धीमी गति से ही सही, पर प्रगति कर रहा है। हम आशा करते हैं कि वर्तमान मानसिक स्वास्थ्य नीतियों को शासन के विभिन्न स्तरों पर कड़ाई से लागू किया जाएगा, और साथ ही भविष्य के अनुसंधान के लिए आवश्यक डेटा भी एकत्रित किया जाएगा। हम यह भी आशा करते हैं कि यह श्रृंखला भारत में मानसिक स्वास्थ्य के सभी पहलुओं के विषय पर जागरूकता बढ़ाने के लिए उठाए गए कई कदमों में से एक है।