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चीनी मिलों के लिए लाभकारिता में वृद्धि का अवसर

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मुंबई
22 नवंबर 2021
चीनी मिलों के लिए लाभकारिता में वृद्धि का अवसर

छायाचित्र: महाराष्ट्र, भारत में चीनी मिल (स्रोत: विकीमीडिया कॉमन्स)

पृथ्वी पर गन्ना उपजाने एवं इससे चीनी उत्पादन की तकनीक विकसित करने वाले अग्रणी जनों में न्यू गिनी के मूल निवासियों के साथ-साथ भारतीय थे। पिछले कुछ वर्षों में, गन्ने से अधिकतम रस निष्कर्षित करने तथा किसानों और चीनी निर्माताओं के लिए चीनी उत्पादन को लाभदायक बनाने हेतु नई प्रक्रियाएं विकसित की गई हैं। यद्यपि वैश्विक स्तर पर भारत के द्वितीय बड़े गन्ना उत्पादक होने के उपरांत भी, भारत में किसान एवं चीनी निर्माता अत्यधिक आर्थिक हानि का सामना कर रहे हैं।  देश में चीनी का मूल्य अपेक्षाकृत कम रहा है क्योंकि उत्पादन, अभियाचना (डिमांड) से अधिक है। निर्यात सदैव वहनीय नहीं होता क्योंकि वैश्विक स्तर पर चीनी का मूल्य बहुधा कम होता है।

किसानों की हानि को कम करने एवं चीनी निर्माणियों को आर्थिक दृष्टि से सक्षम करने के मार्गों में से एक है गन्ने के अपशिष्ट, जैसे खोई का उपयोग मूल्य संवर्धित उत्पादों (वैल्यू एडेड प्रोडक्ट्स) के उत्पादन हेतु करना। खोई का उपयोग पशुओं के चारे के रूप में, बिजली उत्पन्न करने या एथेनोल का उत्पादन करने के लिए किया जाता है। वे अन्य जैव-रसायन जैसे कि किण्वक (एंजाइम), लैक्टिक अम्ल या कार्बनिक अम्ल निर्मित कर रहे हैं जो राजस्व हेतु आकर्षक मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। यद्यपि, इस सम्बन्ध में आर्थिक रूप से व्यवहार्य विधियाँ विकसित करना एक चुनौती है।

रसायन अभियांत्रिकी विभाग, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई तथा अल्कोहल प्रौद्योगिकी एवं जैव-ईंधन विभाग, वसंतदादा शर्करा संस्थान, पुणे के शोधार्थियों ने नव्यसा (रिसेंटली) अध्ययन किया कि गन्ने की खोई (बगैस) से लैक्टिक अम्ल उत्पादित करना तकनीकी एवं आर्थिक दृष्टि से कितना व्यवहार्य है। उन्होंने उत्पादन प्रक्रिया के पर्यावरणीय प्रभाव का भी अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि एक चीनी-निर्माणी से जुड़ी हुई लैक्टिक अम्ल उत्पादन सुविधा के महत्वपूर्ण आर्थिक एवं पर्यावरणीय लाभ हो सकते हैं।

वर्तमान में वैश्विक स्तर पर उत्पादित कुल लैक्टिक अम्ल का एक लघु भाग, लैक्टोबैसिलस या फिलामेंटस कवक जैसे लैक्टिक अम्ल जीवाणु (बैक्टीरिया) के उपयोग से शर्करा के किण्वन द्वारा उत्पादित किया जाता है। पिछले कुछ वर्षों में, शोधकर्ताओं ने लैक्टिक अम्ल के उत्पादन की क्षमता बढाने एवं इसे मूल्य-प्रभावी बनाने का प्रयास किया है। “ मात्रा और मूल्य के दृष्टिकोण से लैक्टिक अम्ल का आपण क्षेत्र (मार्केट साइज़) अत्यधिक बड़ा है (500000 टन/वर्ष; $ 2.9 बिलियन)। औषधीय, खाद्य, सौन्दर्य प्रसाधन एवं बहुलक (पॉलीमर) उद्योगों में इसका उपयोग किया जाता है,” रसायन अभियांत्रिकी विभाग, आईआईटी मुंबई के प्राध्यापक एवं इस शोधपत्र के सहलेखक प्रा. योगेन्द्र शास्त्री ने बताया। यद्यपि, क्रिया-विधियों के पर्यावरणीय प्रभाव को अधिक महत्व नहीं दिया गया। पूर्व-उपचार की स्थिति, खोई लदान (लोडिंग), प्रक्रिया स्थितियाँ एवं शुद्धिकरण की विधि जैसे कारक, लैक्टिक अम्ल उत्पादन के आर्थिक एवं पर्यावरणीय प्रदर्शन, दोनों को प्रभावित करते हैं, तथा परिणाम अध्ययन क्षेत्र के अंतर्गत प्रासंगिक हैं।

नव्यसा (रिसेंटली) वसंतदादा शर्करा संस्थान (वीएसआई) ने प्रयोगशाला स्तर पर खोई से लैक्टिक अम्ल उत्पादित करने की एक नवीन पद्धति विकसित की है। इस प्रक्रिया में चार चरण सम्मिलित हैं: पूर्वोपचार, जल-अपघटन (हाइड्रोलिसिस), किण्वन (फरमेंटेशन) तथा पृथक्करण या शुद्धीकरण। खोई का पूर्वोपचार सोडियम हाइड्रॉक्साइड के द्वारा किया जाता है; तत्पश्चात उपचारित खोई जल-अपघटनीय किण्वकों (एंजाइम्स) की सहायता से जल-अपघटित की जाती है। इस चरण से प्राप्त विलायित (डिसाल्व) अंश का उपयोग जीवाणुओं के किण्वन हेतु  लैक्टिक अम्ल के उत्पादन में अपक्व सामग्री के रूप में किया जाता है। इसकी अम्लता को न्यून करने एवं कैल्शियम लैक्टेट के रूप में लैक्टिक अम्ल के निष्कर्षण हेतु अतिरिक्त कैल्शियम कार्बोनेट को किण्वन द्रव में मिलाया जाता है, जिसे 99.9% लैक्टिक अम्ल के उत्पादन हेतु और शुद्ध किया जाता है। इस प्रक्रिया में सह-उत्पाद के रूप में जिप्सम प्राप्त होता है, जिसका उपयोग सीमेंट उद्योग में किया जाता है।

वर्तमान अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने भारत में व्यावसायिक स्तर पर इस नवीन प्रक्रिया के पर्यावरणीय प्रभाव को समझने के लिए एक तकनीक-लाभप्रद  (टेक्नो-इकनॉमिक) तथा जीवन चक्र आकलन (एलसीए) सम्पन्न किया। आईएसओ 14040 द्वारा निर्धारित कार्यप्रणाली में लक्ष्य एवं कार्य क्षेत्र को परिभाषित करना, सामग्री सूची का विश्लेषण एवं अपक्व सामग्री, परिवहन एवं उत्पादों के पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन करना तथा परिणामों की व्याख्या करना सम्मिलित था। उन्होंने इष्टतम आर्थिक लाभों का विचार करते हुये महाराष्ट्र में विद्यमान एक चीनी निर्माणी के साथ वाणिज्यिक संयंत्र को संबद्ध माना।   

शोधकर्ताओं ने पूर्वोपचार से किण्वन तक की प्रक्रिया के प्रथम तीन चरणों के लिए वसंतदादा शर्करा संस्थान  (वीएसआई) में उत्पन्न प्रायोगिक आंकड़ों को संयोजित रूप में उपयोग किया, जबकि लैक्टिक अम्ल के शुद्धिकरण हेतु उन्होंने शेष प्रक्रियाओं का एएसपीईएन® नामक विश्लेषक पर अम्लता, खोई की मात्रा, तापमान जैसे अन्य  प्रक्रिया मापदंडों को प्रेषित कर मिथ्याभास (सिमुलेशन) किया।

शोधकर्ताओं ने पाया कि उत्पादित लैक्टिक अम्ल के प्रति किलोग्राम पर 4.62 किलोग्राम CO2 समकक्ष उत्पन्न हुई, जो कि 1 लीटर पेट्रोल के उपयोग से होने वाले उत्सर्जन से लगभग 50% अधिक है। पूर्वोपचार एवं जल-अपघटन के चरण इस उत्सर्जन के प्रमुख सहायक थे। पूर्वोपचार में उपयोग किये गए सोडियम हाइड्रॉक्साइड के उत्पादन ने कुल पर्यावरणीय परिवर्तन प्रभाव का 50 %  से अधिक योगदान किया। तथैव, शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि कुल उत्पादन मूल्य मुख्य रूप से अपक्व सामग्री एवं उपयोगिता सहित परिवर्ती मूल्यों से प्रभावित था। प्रक्रिया के चरणों में सोडियम हाइड्रॉक्साइड एवं किण्वकों के उपयोग के कारण मूल्य में संयोजित रूप से 80% से अधिक का योगदान करते हुए, पूर्वोपचार एवं जल-अपघटन भी मूल्यवृद्धि में प्रमुख सहायक थे। तकनीक-लाभकर आकलन ने यह भी पाया  कि लैक्टिक अम्ल उत्पादन प्रक्रिया प्रचलित आपण मूल्यों पर छह वर्ष उपरांत लाभदायक हो जाएगी।

चूँकि प्रयोगशाला परीक्षण एवं मिथ्याभास (सिमुलेशन) एक आदर्श  एवं नियंत्रित वातावरण में किए गए हैं, शोधकर्ता वास्तविक लोक परिणामों के प्रयोगशाला परिणामों से भिन्न होने की अपेक्षा करते हैं। "प्रक्रिया निवेशन (इनपुट) में व्यवधान एवं उतार -चढ़ाव सामान्य हैं । अत: कोई व्यक्ति लाभ के कम होने की आशंका व्यक्त कर सकता है, जो अर्थव्यवस्था को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा," प्रा. शास्त्री अभियाचना (क्लेम) करते हैं। तथापि, व्यावसायिक उत्पादन संयंत्र स्वचालित प्रक्रिया नियंत्रण, उत्कृष्ट प्रक्रिया उपकरण एवं उन्नत प्रक्रिया दक्षता सहित अनेक लाभ प्रस्तावित करते हैं। "कुल मिलाकर, हम अभियाचना करते हैं कि वास्तविक लोक मूल्य हमारे द्वारा गणना किए गए मूल्य का ± 25% हो सकता है," उन्होंने आगे कहा।

इन परिणामों ने प्रक्रिया को उन्नत करने हेतु अवसरों को चिन्हित करने में शोधकर्ताओं की सहायता की। उन्होंने जाना कि सोडियम हाइड्रॉक्साइड के पुनर्चक्रण (रिसाइक्लिंग), अधिक खोई रोपित कर तथा  किण्वकों के उपयोग को कम करके मूल्य तथा पर्यावरण परिवर्तन प्रभाव में 50% से अधिक न्यूनीकरण किया जा सकता है। 

जिस प्रकार विश्व चक्रीय अर्थव्यवस्था सिद्धांतों को अपनाता जा रहा है, यह आवश्यक है कि अपशिष्ट समुपयोग हेतु आर्थिक दृष्टि से व्यवहार्य प्रक्रियाओं को विकसित करने के अवसरों की पहचान की जाये। यह भी प्रासंगिक है कि ये नवीन प्रक्रियाएं पर्यावरण पर होने वाले नकारात्मक प्रभाव को कम करती हैं। इस संबंध में, एक ऐसी जैव परिष्करण शाला (बायोरिफाइनरी ) जो लाभ उपार्जन करने हेतु उत्पादन प्रक्रिया के प्रत्येक घटक का उपयोग करती है, एक अग्रगामी उपाय है।