शोधकर्ताओं ने द्वि-आयामी पदार्थों पर आधारित ट्रांजिस्टर निर्मित किये हैं एवं ऑटोनॉमस रोबोट हेतु अत्यंत अल्प-ऊर्जा के कृत्रिम तंत्रिका कोशिका परिपथ निर्मित करने में इनका उपयोग किया है।

एकीकृत कचरा प्रबंधन

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मुंबई
9 फ़रवरी 2018
Photo: Jigu / Research Matters

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी मुंबई) के एक अध्ययन के अनुसार, एकीकृत कचरा प्रबंधन द्वारा खुले में कचरा फेंकने के कारण होने वाले प्रदूषण को कम किया जा सकता है।

विभिन्न नगरपालिका निकायों के सामने रोजाना निकलने वाले कई टन कचरे का उचित प्रबंधन करना एक बड़ी चुनौती है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी मुंबई) के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन ने इसका समाधान करने का प्रयास किया है। शोधकर्ताओं ने विभिन्न उपलब्ध कचरा प्रबंधन विधियों की तुलना की है और सुझाव देते हैं कि कचरे को खुले में फेंकने के बजाय, इन विभिन्न विधियों को एक साथ जोड़कर उपयोग में लाने से पर्यावरण पर होने वाले दुष्प्रभाव कम हो सकते हैं।

आंकड़े बताते हैं कि मुंबई में प्रतिदिन ९००० टन से ज्यादा सार्वजनिक ठोस कचरा निकलता है। इनमें से ज्यादातर या तो दो खुले डंप साइटों (कचरा फेंकने के लिए निश्चित किया स्थान) में फ़ेंक दी जाती है अथवा शहर के एक  जैव-रिएक्टर का गड्ढा भरने में प्रयोग होती है। अक्सर, कचरे को खुले में जला दिया जाता है, जिससे कई जहरीले प्रदूषक पदार्थ उत्पन्न होते हैं जो श्वाश रोग, ह्रदय रोग, व जन्मजात विसंगतियों के कारक हैं। इसके अलावा इतनी बड़ी मात्रा में कचरे के परिवहन, सञ्चालन व निपटान के दौरान ग्रीनहाउस गैसें, सल्फर डाइऑक्साइड के धुएं, नाइट्रोजन के ऑक्साइड (जिसे एसिड गैस भी कहा जाता है), सूक्ष्म पदार्थ, और अन्य जहरीले पदार्थ भी उत्सर्जित होते हैं।

हालांकि, कई ऐसे वैज्ञानिक विकल्प उपलब्ध हैं जो खुले में कचरा निपटान करने से बेहतर साबित होते हैं। कागज, प्लास्टिक, कपड़े और चमड़े का पुनर्नवीनीकरण (रीसाईकल) किया जा सकता है। रसोई कचरे को खाद में बदला जा सकता है। भस्मीकरण का उपयोग किया जा सकता है  -  जहां जैविक कचरे को जलाया जाता है और अजैविक कचरे को राख में बदल दिया जाता है। इतना ही नहीं बल्कि भस्मीकरण के दौरान उत्पन्न उष्मा को उष्मीय ऊर्जा संयंत्रों में उपयोग किया जा सकता है, इससे एक तो कार्बन उत्सर्जन में कमी होगी और दूसरी, पर्यावरण और समाज लाभान्वित होंगे।

कैसा हो यदि इन सभी लाभकारी विधियों को एकीकृत करके एक प्रबंधन योजना में लाया जाये? ऐसा ही कुछ आईआईटी मुंबई के शोधकर्ताओं ने किया है। उन्होंने जीवन चक्र आकलन अथवा लाइफ साइकिल असेस्मेंट (एल सी ए) नामक एक विधि का उपयोग किया है। एल सी ए, किसी भी उत्पाद, प्रक्रिया या गतिविधि के जीवन चक्र के दौरान होने वाले पर्यावरणीय प्रभाव का अनुमान लगाने का एक व्यवस्थित तरीका है।

इस अध्ययन की सामयिकता और महत्त्व के बारे में बात करते हुए आईआईटी मुंबई में पर्यावरण विज्ञान और अभियांत्रिकी के प्राध्यापक मुनीश चंदेल ने कहा, "कचरा प्रबंधन के संबंध में भारत में बहुत कम अध्ययन किए गए हैं। यह अध्ययन एक एकीकृत कचरा प्रबंधन दृष्टिकोण के तहत कचरा प्रबंधन के जीवन चक्र के दौरान होने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का विश्लेषण करता है"। प्रोफेसर चंदेल  इस अध्ययन के सह-लेखक भी हैं।

शोधकर्ताओं ने एकीकृत कचरा प्रबंधन के छह अलग-अलग संयोजनों की तुलना गड्ढा भरने के लिए खुले में कचरा निपटान करने की वर्तमान पद्धति से की। उन्होंने ऐसे परिदृश्यों पर विचार किया जहां कचरे के घटक, उसके पुर्ननवीनीकरण की योग्यता और कचरे के प्रकार के आधार पे कचरे का पुनर्नवीनीकरण, खाद निर्माण अथवा अवायुजीवी अपघटन  (ऑक्सीजन के अभाव में अपघटन) किया गया। उन्होंने वैश्विक और स्थानीय पर्यावरणीय प्रभावों का भी विश्लेषण किया है जिसमें सूक्ष्म पदार्थ, कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, डाइऑक्सीन, आर्सेनिक, निकॅल और नाइट्रोजन ऑक्साइड सहित २७ मापदंडों का उपयोग किया गया है। इन मापदंडों को ग्लोबल वार्मिंग, अम्लीकरण, यूट्रोफिकेशन (फॉस्फेट और नाइट्रेट युक्त प्रदूषण के कारण जल निकायों में शैवाल की अतिरिक्त वृद्धि), और मानव के लिए विषाक्त श्रेणियों के अंतर्गत रखा गया ।

पुनर्नवीनीकरण योग्य कचरा मुंबई में उत्पन्न कुल कचरे का लगभग १६ प्रतिशत है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन किया कि इस कचरे का कितना भाग पुनर्नवीनीकरण करने से पर्यावरण पर किस प्रकार का असर पड़ता है। इसके लिए उन्होंने १० प्रतिशत से लेकर ९० प्रतिशत पुनर्नवीनीकरण योग्य कचरे को पुनर्नवीकरण करने से होनेवाले असर का अभ्यास किया।

अध्ययन के परिणाम के अनुसार कोई भी अकेली विधि ऐसी नहीं है जो सभी मापदंडों पे खरी हो। हालांकि, खुले में कचरा निपटान के वर्तमान अभ्यास में एसिड गैसें बहुत काम मात्रा में निकलती हैं, लेकिन यह अन्य विधियों की तुलना में यूट्रोफिकेशन में सर्वाधिक योगदान देता है। दूसरी तरफ भस्मीकरण, जिसमें ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम मात्रा में होता है परन्तु इसमें अन्य विषाक्त और एसिड गैसों का उत्सर्जन होता है।

खाद निर्माण विधि का प्रभाव यूट्रोफिकेशन और मानव के लिए विषाक्त श्रेणियों पर न्यूनतम पाया गया, लेकिन यह सभी तरह के कचरे के लिए उपयोग में नहीं लाया जा सकता है। इसके अलावा, शोधकर्ताओं ने पाया कि खुले में कचरा निपटान के साथ पुनर्नवीनीकरण योग्य कचरे को अलग कर लेने से पर्यावरण पे होने वाले दुष्प्रभावों को निश्चित रूप से काम किया जा सकता है। इसलिए, शोधकर्ता एक ऐसे एकीकृत कचरा प्रबंधन की सलाह देते हैं जो खाद निर्माण, अवायुजीवी अपघटन और खुले में कचरा निपटान  को जोड़ती है, और प्रदूषण में समग्र रूप से कमी करने में मदद कर सकती है।

प्रोफेसर चंदेल ऐसे अध्ययनों की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि "ऐसे अध्ययन प्रबंधन के बाधाओं से जूझ रहे नीति निर्माताओं को कुछ दिशा देने में मदद कर सकते हैं और भारतीय नीति निर्माता कचरा प्रबंधन के जीवन चक्र के दौरान होने वाले पर्यावरणीय प्रभावों पर विचार करके विभिन्न कचरा प्रबंधन विकल्पों के कौन से तरीके बेहतर है, यह तय कर सकते हैं"।

हालाँकि अलग-अलग शहरों में सार्वजनिक कचरे के घटक में भिन्नता होने के कारण कचरा प्रबंधन की विधियों में भी भिन्नता हो ऐसा संभव है परन्तु अब यह आवश्यक हो चला है कि सभी शहर खुले में कचरा निपटान से होने वाली समस्याओं को समझने के लिए एक विशेष दृश्टिकोण अपनाएं और ऐसी संभावनाओं पे विचार करें जो समाज और पर्यावरण दोनों के लिए हितकारी हों।