भारत में, गंगा नदी को माँ की उपाधि दी गयी हैं। गंगा नदी के बारे में एक पुरानी कहावत है, "कोई भी बच्चा इतना गंदा नहीं होता कि उसे उसकी माँ गले ना लगा सके।" यद्यपि, आधुनिक भारत में, यह कथन अब विडंबना के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि गंगा नदी इतनी प्रदूषित हो गयी है कि किसी को भी गले नहीं लगा सकती। भारत में लगभग सभी जल निकायों की दुर्दशा समान है। देश का 80% सतही जल दूषित है क्योंकि प्रतिदिन लगभग 40527 मिलियन लीटर अनुपचारित अपशिष्ट जल नदियों और झीलों में बहा दिया जाता है।
भारत जैसे विकासशील देशों में दूषित पानी का विनाशकारी प्रभाव पड़ता है, जहाँ अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल और उपभोग हेतु स्वच्छ पानी की गंभीर कमी है। उदाहरण स्वरुप, डायरिया बीमारी, जो उपचार योग्य है, अनुपयुक्त स्वच्छता के कारण भारत में प्रति वर्ष 4,00,000 से अधिक बच्चों की जान ले लेती है। इस समस्या के स्रोत का पता लगाने के लिए, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई के शोधकर्ता प्राध्यापक प्रदीप कलबर ने भारत के अपशिष्ट जल उपचार प्रणाली में एक आदर्श परिवर्तन का प्रस्ताव दिया है।
भारत में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) वर्तमान में कुल उत्पन्न अपशिष्ट जल का केवल 44% ही उपचार कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, ये उपचार संयंत्र, 2019 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) द्वारा जारी शोधन मानकों को पूरा नहीं करते हैं। ट्रिब्यूनल की कठोर आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पूर्व से विद्यमान उपचार संयंत्रों को अद्यतन करने की आवश्यकता है। साथ ही, बिना उपचार किये गए 56% अपशिष्ट जल के लिए नए उपचार संयंत्रों को स्थापित करने की भी आवश्यकता है। इस प्रकार के वृहद् प्रयास, कई चुनौतियां प्रस्तुत करते हैं क्योंकि उपचार संयंत्र अपने वर्तमान स्वरूप में ट्रिब्यूनल द्वारा दी गयी नई आवश्यकता को स्थायी रूप से पूरा नहीं करेंगे। उन्हें अद्यतन करने के लिए बहुत अधिक संसाधनों और अधिक पूंजी की आवश्यकता होगी। इसलिए, भारत में अपशिष्ट जल उपचार का एक पद्धतिबद्ध परिवर्तन, जैसा कि डॉ कलबर ने प्रस्तावित किया है, इस समय की आवश्यकता है।
सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट दो तरह की प्रणाली पर काम करते हैं- यंत्रीकृत या मैकेनाइज्ड उपचार प्रणाली और प्राकृतिक या नेचुरल उपचार प्रणाली। बायोरिएक्टर जैसे यंत्रीकृत सिस्टम, दूषित पदार्थों को समाप्त करने के लिए रसायनों, टैंकों, पंपों और अन्य घटकों का उपयोग करके एक कृत्रिम वातावरण बनाकर उपचार प्राप्त करते हैं। दूसरी ओर, प्राकृतिक प्रणालियाँ पूरी तरह से प्राकृतिक प्रक्रियाओं पर निर्भर करती हैं। भारत में, निर्मित आर्द्रभूमि, प्राकृतिक प्रणालियों का प्रमुख रूप है, जिसमें प्राकृतिक आर्द्रभूमि की निस्पंदन प्रक्रियाओं की नकल करने के लिए कृत्रिम रूप से आर्द्रभूमि का निर्माण किया जाता है। इन निर्मित जैविक प्रणालियों के पौधे, सूक्ष्म जीव और सबस्ट्रेट्स दूषित पदार्थों को समाप्त करते हैं।
यंत्रीकृत और प्राकृतिक प्रणालियों के अपने अपने लाभ और हानियां हैं- यंत्रीकृत प्रणालियों के लिए कम भूमि की आवश्यकता होती है, लेकिन वे अधिक महंगी होती हैं, क्योंकि उनमे ऊर्जा की अत्यधिक आवश्यकता होती है और साथ ही बाहरी अभिकर्मकों की भी आवश्यकता होती है। प्राकृतिक प्रणालियों जैसे कि निर्मित आर्द्रभूमि को संचालन के लिए अधिक व्यापक भूमि की आवश्यकता होती है। फिर भी, वे उल्लेखनीय रूप से सस्ती हैं क्योंकि प्रक्रियाएं पूरी तरह से प्राकृतिक हैं और इनमें न्यूनतम रखरखाव एवं कम बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है। इन कारणों से, प्राकृतिक प्रणालियों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
ट्रिब्यूनल के आदेश से पहले, उपचार संयंत्रों को यह सुनिश्चित करना आवश्यक था कि उपचारित पानी में जैव रासायनिक ऑक्सीजन की मांग (बीओडी) का स्तर 30 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम हो। यहां, बीओडी अपशिष्ट जल में कार्बनिक पदार्थ (प्रदूषक) की मात्रा को बताता है, इसलिए कह सकते हैं कि जितना कम कार्बनिक पदार्थ, उतना ही कम बीओडी का मान। संशोधित आवश्यकताओं में यह सुनिश्चित करने के लिए उपचार संयंत्रों की आवश्यकता थी कि उनके उपचारित पानी का बीओडी स्तर 10 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम हो। कम बीओडी का अर्थ यह है कि पानी स्वच्छ है, और अपशिष्ट जल के पुनर्चक्रण को बढ़ाया जा सकता है। वर्तमान प्रणाली के साथ, इस नए मानक को प्राप्त करना किसी भी विधि से बहुत कठिन होगा।
यंत्रीकृत प्रणालियां 30 मिलीग्राम प्रति लीटर के बीओडी तक व्यवहार्य हैं। इससे ज्यादा शुद्धिकरण के लिए लागत कई गुना बढ़ जाएगी क्योंकि इसके लिए उन्नत उपचार तकनीकों की आवश्यकता होती है। इसी तरह, प्राकृतिक प्रणालियों जैसे कि निर्मित आर्द्रभूमि को आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए व्यापक भूमि की आवश्यकता होगी, क्योंकि इसमें प्रत्येक अतिरिक्त बीओडी को हटाने के लिए भूमि की आवश्यकता कई गुना बढ़ जाती है। इस समस्या को हल करने के लिए, डॉ कलबर ने हाइब्रिड उपचार प्रणाली नामक एक नई प्रणाली का प्रस्ताव दिया है, जो निर्वहन आवश्यकताओं को प्राप्त करने के लिए यंत्रीकृत प्रणालियों और प्राकृतिक प्रणालियों दोनों को जोड़ती है।
बसे पहले, अपशिष्ट जल (आमतौर पर जिसका बीओडी लगभग 300 मिलीग्राम प्रति लीटर होता है) को एक यंत्रीकृत प्रणाली से उपचारित किया जाता है, और इसे 30 मिलीग्राम प्रति लीटर के बीओडी के स्तर में लाया जाता है। चूंकि इसके बाद मशीनीकृत प्रणालियों के साथ आगे के उपचार के लिए बहुत अधिक संसाधनों की आवश्यकता होगी, पानी को अब एक प्राकृतिक प्रणाली के साथ उपचारित किया जाता है जब तक कि 10 मिलीग्रामप्रति लीटर का बीओडी प्राप्त नहीं हो जाता। इस संकर प्रणाली में बीओडी को 10 मिलीग्राम प्रति लीटर तक लाने के लिए प्राकृतिक प्रणालियों द्वारा भूमि की काफी कम आवश्यकता होती है क्योंकि अधिकांश उपचार प्रारंभिक मशीनीकृत प्रणाली द्वारा हो जाता है। इस प्रकार, दोनों प्रणालियों के संयोजन का उपयोग करके, हम लागत पर खर्च किए बिना और बहुत अधिक भूमि के बिना, वांछित बीओडी स्तर प्राप्त कर सकते हैं। भले ही भूमि की लागत को जोड़ लिया जाए, फिर भी हाइब्रिड सिस्टम, विशुद्ध रूप से मशीनीकृत प्रणालियों की तुलना में सस्ता होगा क्योंकि हाइब्रिड सिस्टम संचालित करने के लिए संसाधनों की निरंतर आपूर्ति की मांग नहीं होती है। एक उपचार संयंत्र के लिए 30 वर्षों के सामान्य जीवनकाल के दौरान, एक मशीनीकृत प्रणाली की वार्षिक लागत जुड़ते हुए बढ़ती चली जाएगी, जो एक संकर प्रणाली के लिए आवश्यक प्रारंभिक भूमि निवेश से अधिक होगी।
30 मिलीग्राम प्रति लीटर से आगे के उपचार के लिए उच्च-मांग वाली मशीनीकृत प्रणालियों के स्थान पर हाइब्रिड प्रणालियों का उपयोग लागत और संसाधनों को काफी कम कर सकता है। महंगे उपचार से बचने और ट्रिब्यूनल की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पूरे देश में इस तरह की प्रणालियों को लागू करने से अंततः 540 GWh की वार्षिक बचत होगी, जो पूरे मुंबई को आधे साल की विद्युत् आपूर्ति के लिए पर्याप्त है। आर्द्रभूमि जैसी प्राकृतिक प्रणालियाँ पोषक तत्वों, कार्बनिक पदार्थों और फ़ार्मास्यूटिकल्स और कीटाणुनाशक जैसे दूषित पदार्थों को हटाने में भी बेहतर हैं। डॉ कलबर बताते हैं कि वे केवल बीओडी स्तरों के अतिरिक्त अन्य मापदंडों पर हाइब्रिड सिस्टम की प्रभावशीलता का आकलन करके वर्तमान अध्ययन का विस्तार कर सकते हैं। हाइब्रिड सिस्टम के सामाजिक लाभों (रोज़गार और राजस्व) का उचित मूल्यांकन और उद्योगों द्वारा उत्पन्न विषाक्त कचरे के उपचार में उनकी व्यवहार्यता इस अध्ययन के भविष्य के उद्देश्य हैं।
“वर्तमान में, शहरों की परिधि में, और छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में भी, सीवेज उपचार के लिए अत्यधिक मशीनीकृत प्रणालियों को प्रस्तावित / उपयोग किया जाता हैं। यदि हाइब्रिड उपचार प्रणालियों का उपयोग किया जाता है, तो वे स्थानीय लोगों के लिए रोजगार सृजित करेंगे। उप-उत्पादों से उत्पन्न राजस्व स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दे सकता है और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में योगदान कर सकते है,” डॉ कलबर कहते है।
भारत में अपशिष्ट जल उपचार में भारी कमी, हमें मौजूदा प्रणाली को पूरी तरह से सुधारने और शोधन किए गए पानी की गुणवत्ता में सुधार करने का अवसर प्रदान करती है। हम सभी मोर्चों पर स्थिरता में उल्लेखनीय वृद्धि कर सकते हैं। चूंकि सीवेज उपचार संयंत्र सामान्यतः शहर के बाहरी क्षेत्र में स्थित होते हैं, उचित योजना के साथ प्रस्तावित हाइब्रिड सिस्टम को न्यूनतम भूमि बाधाओं के साथ स्थापित किया जा सकता है।