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जलवायु परिवर्तन का भारतीय कृषि क्षेत्र पर दुष्प्रभाव

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मुंबई
9 जनवरी 2019

जिला स्तरीय अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून की बारिश में होने वाले बदलाव मराठवाड़ा और विदर्भ क्षेत्रों को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं। 

ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स के अनुसार, भारत जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित देशों में छठे स्थान पर है, जो कि देश में बाढ़, चक्रवात, और सूखे जैसी प्रकृतिक आपदाओं की बढ़ती आवृत्ति से  स्पष्ट हो जाता है। जलवायु परिवर्तन मानसून को प्रभावित करता है और भारतीय कृषि मानसून पर ही निर्भर है। हालाँकि कई अध्ययनों ने क्षेत्रीय स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन करने का प्रयास किया है किंतु  ऐसे अध्ययनों के आधार पर बनाई गई नीतियाँ जिला-स्तर पर कृषि की समस्या को हल करने में विफल रही हैं। एक अध्ययन में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई के शोधकर्ताओं ने महाराष्ट्र के जिलों में कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की जाँच की है।

दक्षिण-पश्चिम और उत्तर-पूर्व दिशाओं से बहने वाली नमीपूरित मौसमी मॉनसून हवाएँ सालाना मानसून की बारिश में आती हैं। ये बारिश भारत की वर्षा पोषित कृषि के लगभग ६०% के लिए महत्वपूर्ण हैं और मानसून की हवाओं का समय पर आगमन और पर्याप्तता हमारे कृषि प्रथाओं में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हवाओं की आवृत्ति प्रत्येक मौसम, वर्ष और दशक में भिन्न होती है, और इस बदलाव को मानसून परिवर्तनशीलता कहा जाता है।

सायन्स ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन ने बदलती जलवायु के संदर्भ में मानसून परिवर्तनशीलता को समझने की कोशिश की है। अध्ययन ने १९५१ और २०१३ के बीच ६२ वर्ष की अवधि का महाराष्ट्र के ३४ जिलों से एकत्रित दैनिक वर्षा के आँकड़ों का विश्लेषण किया गया। इस अध्ययन ने बिना किसी वर्षा (सूखा) के लगातार दिनों की संख्या में वृद्धि और जहाँ इस अवधि के दौरान बारिश न्यूनतम आवश्यक मात्रा से अधिक हुई (भारी वर्षा) की लगातार अवधि में कमी को ध्यान में रखा गया। इसने दैनिक वर्षा में  उतार चढ़ाव पर भी ध्यान दिया और साथ में अत्यधिक वर्ष (जिसमे भारी  और बहुत-भारी वर्षा शामिल है) पर भी ध्यान दिया।

इन आँकड़ों के आधार पर, शोधकर्ताओं ने अध्ययन किए गए प्रत्येक जिलों के लिए 'मॉनसून परिवर्तनीयता सूचकांक' की गणना की। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई के इस अध्ययन के प्रमुख प्राध्यापक  देवनाथन पार्थसारथी ने कहा, "अध्ययन यह समझने की कोशिश करता है कि कैसे मानसून परिवर्तनशीलता सूचकांक जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित महाराष्ट्र के जिलों में प्रमुख फसलों की उत्पादकता को प्रभावित कर रहे हैं।इस अध्ययन में उपयोग की जाने वाली विधियों को दुनिया भर में प्रशासनिक इकाइयों द्वारा अपनाया जा सकता है।"

शोधकर्ताओं ने पाया कि उपरोक्त सभी जिलों में पिछले कुछ वर्षों में सूखे की संख्या में वृद्धि हुई है। हालाँकि, उन्होंने अन्य मानसून परिवर्तनशीलता संकेतकों जैसे कड़ी वर्षा का होना, बारिश की संख्या और बारिश के पैटर्न के उतार-चढ़ाव में महत्त्वपूर्ण मतभेदों को पाया. शोधकर्ताओं ने मानसून परिवर्तशीलता सूचकांक के आधार पर जिलों को क्रम दिया और यह पाया कि विदर्भ और मराठवाड़ा के क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित थे. यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इन दो क्षेत्रों में किसानों के आत्महत्या की संख्या अधिकतम है. शोधकर्ताओं ने बताया कि मानसून परिवर्तनशीलता फसल की विफलता और उनकी औसत उपज में कमी का कारण बनती है।

अध्ययन की एक लेखिका सुश्री दीपिका स्वामी बताती हैं कि, "सिंचाई सुविधाओं की कमी, जलवायु परिवर्तन, अक्षम कृषि बाज़ार और सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूकता की कमी इन क्षेत्रों में कम उत्पादकता के अन्य प्रमुख कारण हैं।"

शोधकर्ता विभिन्न क्षेत्रों की जलवायु परिवर्तनशीलता में अंतर का आकलन करने और इन स्थितियों के आधार पर कृषि प्रथाओं का पालन करने की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. फिलहाल जलवायु परिवर्तन पर ‘क्लाइमेट चेंज पर राज्य कार्य योजना’ (एसएपीसीसी) राज्य स्तर पर कृषि-आधारित नीतियों को तैयार करती है. शोधकर्ताओं का कहना है कि क्षेत्रीय स्तर पर बहुत विविधता है, इसलिए जलवायु परिवर्तन के लिए व्यापक कार्य योजना बनाने की आवश्यकता है.

कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के तरीके के बारे में बोलते हुए डॉ. पार्थसारथी कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन की बदलती प्रवृत्ति से सामंजस्य बिठाने के लिए, हमें पहले स्वतंत्र रूप से प्रत्येक क्षेत्र की स्थिति को देखने की आवश्यकता है। हमें पूरे राज्य या बड़े क्षेत्र पर लागू अनुकूली उपायों का प्रस्ताव नहीं करना चाहिए।"

अध्ययन के परिणामों ने उन फसलों की भी पेहचान की है जो बदलते मौसम से सबसे अधिक प्रभावित हैं। मानसून परिवर्तनशीलता गन्ना, ज्वार, मूंगफली जैसी अधिकांश पारंपरिक फसलों को प्रभावित करती है। दूसरी ओर, कपास और अरहर की उत्पादकता पर प्रभाव काफी कम पाया गया।

शोधकर्ताओं ने राज्य में किसानों के हितों की रक्षा के लिए कुछ उपायों का सुझाव दिया है। “वर्तमान कृषि प्रथाओं से हट कर वैकल्पिक प्रथाओं का उपयोग, बुवाई / कटाई की तारीखों में बदलाव, बीज की विविधता का विस्तार, सिंचाई के वैकल्पिक साधन, वैकल्पिक आजीविका का चुनाव, और फसल बाजारों का विनियमन कुछ प्रावधान हैं जिनका पालन जलवायु परिवर्तनशीलता में बदलते रुझानों को अनुकूलित करने के लिए  किया जा सकता है”, ऐसा कहकर डॉ. पार्थसारथी ने अपनी बात समाप्त की।