अध्ययन से पता चला है कि कैसे भूमि के आकार, सिंचाई और किरायेदारी के आधार पर किसान कपास के खेतों में कीटनाशकों पर खर्च करते हैं
भारत विश्व में कपास के तीन प्रमुख निर्यातकों में से एक है एवं यहाँ विश्व में सबसे अधिक क्षेत्र में कपास की खेती होती है। इसके बावजूद, दुर्भाग्य से, भारत में कपास की खेती की हालत उतनी अच्छी नहीं है क्योंकि इस फसल में उत्पादकता तुलनात्मक रूप से कम है साथ ही कीटों के हमलों के कारण किसानों को बड़े पैमाने पर नुकसान होता है। अधिकांश कपास की खेती करने वाले किसान रासायनिक कीटनाशकों का सहारा लेते हैं और अन्य फसलों के लिए उपयोग किए जाने वाले कीटनाशकों की मात्रा के मुकाबले कहीं अधिक मात्रा का उपयोग करते हैं जो केवल अधिक खतरनाक ही नहीं बल्कि अमूमन प्रतिबंधित या नकली भी हो सकते हैं। हाल ही में एक अध्ययन में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बॉम्बे, भारतीय प्रबंधन संस्थान नागपुर, और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के शोधकर्ताओं ने भारत में कपास किसानों के द्वारा कीटनाशकों के प्रयोग में परिवर्तनों का अध्ययन करने के लिए कीटनाशकों के उपयोग पर उपलब्ध आँकड़ों का विश्लेषण किया और यह जाना कि यह कैसे भूमि के आकार, स्वामित्व और सिंचाई जैसे कारकों के अनुसार कीटनाशकों का प्रयोग बदलता है।
मार्च २००२ में, भारत सरकार ने 'बीटी कॉटन’ की बिक्री को वैध घोषित कर दिया, ताकि बॉलवर्म या कीट के लार्वा के संक्रमण से होने वाले नुकसान को रोका जा सके और कीटनाशकों के लगातार उपयोग को कम किया जा सके। बीटी कॉटन एक आनुवांशिक रूप से संशोधित किस्म है, जो कि अमेरिकी बॉलवर्म और पिंक बॉलवर्म जैसे कीटों के खिलाफ विषाक्त पदार्थों का उत्पादन करता है जो सबसे आम प्रकार के कपास कीट हैं। लेकिन , इसके व्यावसायीकरण के एक दशक बाद भी, कपास किसानों के बीच कीटनाशक का उपयोग कैसे बदला है, इस पर सीमित साक्ष्य हैं।
पिछले कई अध्ययन बताते हैं कि भारत में कृषि संकट मुख्य रूप से खेती की बढ़ती लागत के कारण है। आईआईटी बॉम्बे के प्राध्यापक सार्थक गौरव ने अपने अध्ययन की नवीनता बताते हुए कहा, "हमारा अध्ययन भूमि के आकार, सिंचाई, किरायेदारी प्रतिरूप, और राज्य द्वारा इकाई स्तर के आँकड़ों के अंतर को दर्शाता है। जबकि ऐसा दूसरे अध्ययनों में नहीं दिखाया गया।”
‘इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ में प्रकाशित इस अध्ययन में नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ), जो देश में बड़े पैमाने पर सर्वेक्षण करता है, द्वारा दो क्रम के सर्वेक्षण में एकत्र किए गए डेटा का इस्तेमाल किया गया है। शोधकर्ताओं ने खरीफ सीजन के दौरान कपास के किसानों के कीटनाशक व्यय डेटा का विश्लेषण किया, जो भारतीय मानसून के साथ मेल खाता है। उन्होंने एक दशक में कीटनाशक के उपयोग में परिवर्तन को व्याख्या करने के लिए, २००२-२००३ और २०१२-२०१३ के दौरान किए गए एनएसएसओ सर्वेक्षण के आँकड़ों पर विचार किया।
अध्ययन में पाया गया कि कपास की खेती के तहत क्षेत्र और दस वर्षों के दौरान कपास की खेती करने वाले परिवारों की संख्या, दोनों में काफी वृद्धि हुई है। कई छोटे और सीमांत किसानों ने २००२-२००३ की तुलना में २०१२-२०१३ में कपास की खेती चालू की थी। अध्ययन में उन किसानों के बीच बढ़ती प्रवृत्ति के प्रमाण भी दिए गए, जो अपने खेतों में एक ही फसल या मोनोक्रॉप के रूप में कपास उगाते हैं।
जब खेती की लागत की बात आती है, तो शोधकर्ताओं ने पाया कि दस साल पहले की तुलना में २०१२-१३ में कपास की खेती में कीटनाशक की लागत में,कुल खेती की लागत के अनुपात में, कमी थी। हालाँकि, २०१२-१३ के दौरान कपास के बीजों की कीमत बढ़ गई थी। शोधकर्ताओं का मानना है कि पिछले दस वर्षों में बीटी कपास के व्यापक उपयोग में हुई उल्लेखनीय वृद्धि इस बदलाव का मुख्य कारण है। उन्होंने यह भी पाया कि कर्नाटक और तमिलनाडु को छोड़कर, देश में कपास किसानों द्वारा प्रति हेक्टेयर औसत कीटनाशकों पर व्यय, 0.६५ गुना कम हो गया था। हालाँकि, गुलाबी बॉलवर्म के प्रतिरोध का उभार, और द्वितीयक कीटों जैसे कि जसिड्स और एफिड्स से हमला, किसानों को अधिक कीटनाशकों का उपयोग करने के लिए मजबूर करता है, जो कीटनाशक खर्च कम करने में एक चुनौती है।
सांख्यिकीय विधियों का उपयोग करते हुए, अध्ययन में कीटनाशकों के उपयोग के पीछे महत्त्वपूर्ण जनसांख्यिकीय और आर्थिक कारक भी पाए गए। उदाहरण के लिए, जिन किसानों के पास बुनियादी स्तर की शिक्षा थी, वे उन लोगों की तुलना में प्रति हेक्टेयर अधिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करते थे जो अपेक्षाकृत बेहतर शिक्षित थे। इसके अलावा, छोटी जोत वाले किसान, जिनमें अधिकतर कपास उत्पादक किसान हैं, बड़े जोत वाले किसानों की तुलना में, कीटनाशकों पर प्रति हेक्टेयर अधिक मात्रा में खर्च करते पाए गए।
विश्लेषण से यह भी पता चला कि जब बैंक से कर्ज़ा उपलब्ध था, तब कीटनाशकों का अधिक प्रयोग किया गया था । इसके अलावा, कृषि प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले किसानों में कीटनाशकों के प्रयोग करने की संभावना अधिक थी, किंतु कृषि प्रशिक्षण ना लेने वाले किसानों की तुलना में उन्होंने कीटनाशकों पर कम खर्च किया । दिलचस्प बात यह है कि पट्टे पर ली गयी भूमि एवं सींचित भूमि में कीटनाशकों पर अधिक खर्च किया जा रहा था। शोधकर्ताओं का मानना है कि जो किसान पट्टे पर दी गई भूमि पर खेती करते हैं, वे कीटनाशकों पर अधिक खर्च करते हैं क्योंकि वे फसल के नुकसान का जोखिम नहीं उठाना चाहते ।
जैसे-जैसे भारत का कपास उत्पादन नई ऊँचाइयों पर पहुँच रहा है, कीटनाशक विषाक्तीकरण के बारे में चिंता बढ़ रही है, विशेष रूप से वर्षा से सिंचित कपास उगाने वाले क्षेत्रों में। अतः बुद्धिमानी इसी में है कि हम स्वास्थ्य, पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर कीटनाशकों के उपयोग के निहितार्थ को समझें । शोधकर्ताओं ने कहा कि अध्ययन के निष्कर्ष देश में कीटनाशकों के भविष्य में होने वाले उपयोग की तुलना करने के लिए एक आधार रेखा प्रदान कर सकते हैं।
"हम मानते हैं कि हमारे अध्ययन से नीति निर्माताओं और गैर-सरकारी संगठनों को कीटनाशक के उपयोग के पैटर्न में भिन्नता को समझने में सहायता मिलेगी और कीटनाशकों का तर्कहीन उपयोग और संबंधित ख़तरों के समाधान के लिए किसान समूह के बीच कमजोर समुदायों की पहचान में सुधार होगा", प्राध्यापक गौरव कहते हैं।
शोधकर्ता खेती की लागत को कम करने, बाजार में उपलब्ध कपास के बीजों की गुणवत्ता को विनियमित करने, कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग को कम करने, कपास संकरों के लंबी अवधि के उपयोग पर पुनर्विचार करने, औपचारिक वित्तीय सेवाएँ प्रदान करने और स्थानीय रूप से प्रासंगिक कृषि प्रथाओं पर किसानों को शिक्षित करने की आवश्यकता का समर्थन करते हैं। साथ ही साथ शोधकर्ताओ का तर्क है कि टिकाऊ कीट प्रबंधन प्रथाओं, जैव कीटनाशकों के उपयोग और एकीकृत कीट प्रबंधन प्रथाओं पर किसानों को शिक्षित करना भी मदद कर सकता है।
शोधकर्ता का अगला कदम भविष्य में महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में कीटनाशकों के उपयोग पर एक व्यापक अध्ययन करना है जो कृषि संकट और कीटनाशक से संबंधित विषाक्तता पर केंद्रित होगा । “हमने किसानों द्वारा उपयोग किए जाने वाले कीटनाशकों की मात्रा और ब्रांड सहित कीटों और कीटनाशकों के प्रकारों पर विस्तृत डेटा एकत्र किया है। हमने कई उत्पादक विक्रेताओं से साक्षात्कार किया है और कीटनाशकों के प्रयोग के तरीके और इनसे होने वाले ख़तरों के बारे में किसानों की जागरूकता के बारे में दस्तावेज़ इकट्ठे किये हैं”, ऐसा कहकर प्राध्यापक गौरव ने अपनी बात समाप्त की।