सन् २००८ में स्वीडन में एक व्यक्ति मूत्र मार्ग में संक्रमण के कारण अस्पताल में भर्ती हुआ। मूत्र मार्ग में संक्रमण एक साधारण समस्या है जिसमे जैविक संक्रमण के कारण जलन का अनुभव होता है। प्रायः जैविक संक्रमण में एंटीबायोटिक दवाओं के उपचार से मरीज़ की दशा में सुधार होता है परन्तु इस मामले में उल्लेखनीय बात यह थी कि सभी प्रकार के एंटीबायोटिक दवाइयों के प्रयोग के बाद भी संक्रमण बना रहा। यह संक्रमण चिकित्सकों के लिए अचंभा का कारण था। इसके बाद चिकित्सकों ने कारक जीवाणु का परीक्षण किया और यह पाया कि इस जीवाणु में एक नया जीन है जो इसे एंटीबायोटिक की उपस्तिथि में भी जीवित रहने में सहायता करता है। ये जीवाणु अपने आप को एंटीबायोटिक के प्रभाव से प्रतिरक्षित कर लेता है, इसलिये इसे ‘सुपरबग’ नाम देना उचित है। अमेरिका के रोग निवारण एवं नियंत्रण की संस्था (सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) के अनुसार प्रतिवर्ष करीब २० लाख लोग सुपरबग से संक्रमित होते हैं जिसमे से लगभग २३ हजार लोगों की मृत्यु हो जाती है।
जीवाणु में पाए गए इस नए जीन को नई दिल्ली के नाम पर न्यू देल्ही-मेटैलो-बीटा-लैक्टमेज (एन डी एम) नाम दिया गया क्योंकि पीड़ित (स्वीडिश) व्यक्ति संक्रमण के पूर्व नई दिल्ली आया था। इस घटना के उपरांत एन डी एम-१ देश भर में कई जैविक संक्रमणों में चिन्हित किया गया है जिस पे कई जानी मानी एंटीबायोटिक दवाएं भी असरदार नहीं हैं।
एंटीबायोटिक -- दोधारी तलवार
पिछले दशक में जीवाणु के बारे में प्राप्त यथेष्ट जानकारी से हमें प्रभावी औषधियों के निर्माण में सहायता मिली है। जैविक संक्रमण जैसे कि टायफॉइड, क्षय रोग, हैजा और निमोनिया जो प्री-एंटीबायोटिक युग में मृत्यु दर के मुख्य कारण थे, आज उनका प्रभावी उपचार एंटीबायोटिक के प्रयोग से संभव है। फलस्वरूप आज पैदा होने व्यक्तियों की औसत आयु ७१ वर्ष है जो ५० के दशक से पहले ४७ वर्ष थी। जीवन प्रत्याशा में लगभग ५० प्रतिशत की यह अद्भुत बढ़ोतरी इन जादुई गोलियों से संभव हुई है जिन्हे एंटीबायोटिक कहा जाता है।
सर अलेक्जेंडर फ्लेमिंग को नोबेल पुरस्कार दिलाने वाली पेनिसिलिन की खोज ने एंटीबायोटिक युग की शुरुआत की। तब से अब तक करीब १०० विभिन्न प्रकार के एंटीबायोटिक विकसित हुए हैं जो कई प्रकार के जैविक संक्रमण के उपचार में प्रयोग आते हैं। इनके प्रभावशीलता के कारण इनका उपयोग बढ़ा और ये अधिक सुलभ और किफायती दरों में उपलब्ध होने लगी।
एंटीबायोटिक न ही केवल मनुष्यों के उपचार में बल्कि पशुओं के उपचार में भी उपयोग में लाते हैं। गाय, भैंस, पोल्ट्री, शूकर और मछली में रोग के उपचार अथवा रोकथाम के लिए एंटीबायोटिक का उपयोग करना एक सामान्य बात है। हालाँकि, एंटीबायोटिक के उपयोग से पशुओं के स्वास्थ्य में सुधार और उत्पादन में बढ़ोतरी तो हुई है परन्तु जब हम इन पशु उत्पादों का सेवन करते हैं तो ये एंटीबायोटिक खाद्य श्रंखला से होते हुए हमारे शरीर में प्रवेश कर जाते हैं।
एंटीबायोटिक के अनुचित उपयोग अथवा दुरूपयोग के परिणाम और भी दुखद हैं। आंकड़े दर्शाते हैं कि जीवाणुओं के अंदर कई प्रकार के एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोध विकसित होने से उपचार की क्षमता घटती जा रही है। सारांश यह है कि जीवाणु और ताकतवर होते जा रहे हैं और एंटीबायोटिक पिछड़ रहे हैं। परन्तु ये जीवाणु जो कभी इन्ही एंटीबायोटिक दवाओं से नष्ट होते थे आज प्रतिरोध करने में सक्षम कैसे हो गए हैं? इसका उत्तर क्रम-विकास (इवॉल्यूशन) के सिद्धांतों में निहित है।
‘बग’ से ‘सुपरबग’ में विकास
सुपरबग के विकास के बारे में गहन चर्चा से पहले हम एंटीबायोटिक के कार्य प्रणाली के बारे में संक्षिप्त रूप से समझने का प्रयास करते हैं। कुछ एंटीबायोटिक जीवाणु के विभाजन को रोकते हैं; कुछ जीवन के लिए आवश्यक प्रोटीन्स के उत्पादन में हस्तक्षेप करके उन्हें नष्ट करते हैं। कई जीवाणु, फफूँद और अन्य सूक्ष्मजीवी स्वाभाविक रूप से एंटीबायोटिक उत्पन्न करते हैं। वास्तव में, पेनिसिलिन, प्रथम एंटीबायोटिक, एक फफूँद पेनिसिलियम नोटेटम से स्रावित द्रव में पाया गया था।
यदि एंटीबायोटिक जीवाणु को पूरी तरह से मारने में इतने सक्षम हैं, तो फिर जीवाणु प्रतिरोध कैसे विकसित करते हैं? पता चला है, कुछ जीवाणु स्वाभाविक रूप से एंटीबायोटिक के प्रतिरोधी हैं और कुछ जीवाणु समय के साथ प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते हैं। प्राकृतिक चयन के सिद्धांत के अनुसार, जीव समय के साथ प्राकृतिक रूप से विकास करते हुए ऐसी विषेशताओं को समावेषित करते हैं जो उन्हें वातावरण में जीवित रखने में सहायक हों। एंटीबायोटिक ऐसा वातावरण प्रदान करते हैं जिसमे वही जीवाणु जीवित रह सकते हैं जो एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोधी क्षमता रखते हैं या समय के साथ प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं।
जीवाणु पे सेलेक्शन प्रेशर (चयन दबाव) बहुत अच्छी तरह से काम करता है। प्रत्येक बार जब जीवाणु का विभाजन होता है ये एक स्वाभाविक जेनेटिक (अनुवांशिक) परिवर्तन से गुज़रता है यानि कि उसके डीएनए के क्रम में यादृच्छिक परिवर्तन होता है। यदि आप इस तरह के जीवाणु पर एक एंटीबायोटिक का प्रयोग करते हैं, तो यह एक आनुवंशिक परिवर्तन से गुज़रता है जो इसे एक ऐसा पदार्थ बनाने के लिए सक्षम बनाता है जो एंटीबायोटिक को या तो अप्रभावी बनाता है या कोशिका से बाहर कर देता है। वे जीवाणु जो इन परिवर्तनों को प्राप्त करने में सफल होते - आगे बढ़ते हैं ,वहीं बाकी नष्ट हो जाते हैं। समय के साथ, ये जीवाणु गैर-प्रतिरोधी जीवाणु को पीछे कर देंगे और एंटीबायोटिक को अप्रभावी बना देंगे। इन एंटीबायोटिक प्रतिरोधी जीवाणुओं को आमतौर पर 'सुपरबग' कहा जाता है।
जीवाणुओं के बारे में एक और रोचक और जटिल बात यह है कि मनुष्य से विपरीत जो अपने अनुवांशिक पदार्थ को केवल अपनी संतानो को स्थानांतरित कर सकते हैं, ये जीवाणु किसी भी और असंबंधित जीवाणु को भी अपना अनुवांशिक पदार्थ स्थानांतरित कर सकते हैं। इस प्रकार कई भिन्न जीवाणुओं के समूह में यदि एक भी सुपरबग बनता है तो समय के साथ अनुवांशिक पदार्थ के स्थानांतरण द्वारा कई और जीवाणु भी बग से सुपरबग बन जायेंगे।
एंटीबायोटिक के प्रतिरोध की मात्रा को मापने व मानकीकरण करने के लिए यूरोपियन रोग नियंत्रण व निवारण केंद्र (यूरोपियन सेंटर फॉर डिजीज प्रिवेंशन एंड कंट्रोल) तथा अमेरिका के रोग निवारण एवं नियंत्रण की संस्था (सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) के विशेषज्ञों ने सुपरबग को मल्टी-ड्रग प्रतिरोधी (एम.डी.आर.), व्यापक ड्रग प्रतिरोधी (एक्स.डी.आर.) और पैन-ड्रग प्रतिरोधी (पी.डी.आर.) वर्गों में वर्गीकृत किया है। एम.डी.आर. एक से अधिक एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोधी होते हैं, एक्स.डी.आर. अधिकांश एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोधी होते हैं और पी.डी.आर जो जबसे ज्यादा जानलेवा होते हैं, सभी प्रकार के एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोधी होते हैं।
सुपरबग के विरुद्ध भारत की लड़ाई
विश्व के जैविक संक्रमण के मामलों की संख्या में भारत सबसे ज्यादा संख्या रखने वाले देश में एक है; उदाहरणतः क्षय रोग (टीबी), हैज़ा, टायफॉइड, निमोनिया व अन्य। वास्तव में विश्व में सबसे ज्यादा टीबी के रोगी भारत में पाए जाते हैं जो विश्व के कुल आंकड़े का एक चौथाई है। एम.डी.आर. और एक्स.डी.आर. टीबी के मामले बढ़ती संख्या में दर्ज किये जा रहे हैं।
सामान्य टीबी के विपरीत एम.डी.आर. और एक्स.डी.आर. टीबी के संक्रमण के उपचार में विशेष नैदानिक जाँच और कुछ विशेष एंटीबायोटिक के मिश्रण को लम्बे समय तक प्रयोग में लाना होता है। इसके वजह से निदान करना कठिन और उपचार महंगे पड़ते हैं। भारत जैसे देश में जहाँ २२ प्रतिशत जनसँख्या अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करती है, उपचार महंगे होने से सही और पूर्ण उपचार होने की संभावना काम हो जाती है जिसकी वजह से संक्रमित व्यक्ति बिना उपचार के रह जाता है। चूँकि टीबी हवा के द्वारा फ़ैलाने वाली बीमारी है, यह बिना उपचार के कई जगह संक्रमण फैला सकता है जो एक महामारी का रूप ले सकती है। स्थिति और भी गंभीर होती दिखती है जब हम एम.डी.आर. और एक्स.डी.आर. टीबी की बात करते हैं, क्यूंकि ये एक लाइलाज टीबी है जो महामारी का रूप ले सकती है।
मात्र टीबी ही सुपरबग की समस्या से ग्रसित नहीं है। निमोनिया, एक अन्य साधारण जैविक संक्रमण भी इस सूची में है। २०१७ में किये एक अध्ययन में ११ राज्यों के कई अस्पतालों से निमोनिया संक्रमित बच्चो के रक्त में ऐस. निमोनिया जीवाणु का परिक्षण किया गया और यह पाया गया कि इनमे से ज्यादातर जीवाणु प्रथम श्रेणी के एंटीबायोटिक दवाओं के लिए प्रतिरोधी थे - ६६% को-ट्राइमोक्साज़ोल के लिए, ३७% एरीथ्रोमाइसिन के लिएऔर ८% पेनिसिलिन के लिए प्रतिरोधी थे। २०१७ के एक और अध्ययन जिसने निमोनिया के एक अधिक गंभीर रूप की जाँच की, यह पाया कि के. निमोनिया (क्लेबसिएला निमोनिया) सुपरबग से संक्रमित ६९% रोगी जीवित रहने में असफल रहे। ये सुपरबग, कार्बापेनेम्स- एम.डी.आर. संक्रमण के उपचार के लिए उपयोगी, कोलिस्टीन-एंटीबायोटिक जो बाकी एंटीबायोटिक के काम नहीं करने की दशा में आखिरी सहारा होती है, इन दोनों एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोधी थे। ऐसी ही तीव्रता से अन्य जैविक संक्रमणों में जैसे कि टाइफॉयड, हैज़ा और गोनोर्हिआ में भी प्रतिरोध विकसित हो रहा है।
संक्षेप में, यह खतरा वास्तविक है और इस पर तत्काल ध्यान व कार्रवाई की आवश्यकता है। क्या कार्रवाइयां की जा सकती हैं? लोग क्या कर सकते हैं? इन जैविक संक्रमण की अनुकूल परिस्थितियाँ क्या हैं? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके तत्काल उत्तर की आवश्यकता है। तथापि पहला कदम ये है कि एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी जीवाणु के आशय को समझें और एंटीबायोटिक के सही तरीके के उपयोग के प्रति लोगों को जागरूक करें।