शोधकर्ताओं ने द्वि-आयामी पदार्थों पर आधारित ट्रांजिस्टर निर्मित किये हैं एवं ऑटोनॉमस रोबोट हेतु अत्यंत अल्प-ऊर्जा के कृत्रिम तंत्रिका कोशिका परिपथ निर्मित करने में इनका उपयोग किया है।

मानव-वन्यजीवन अंत:क्रियाओं का अध्ययन: हमें संघर्ष से परे देखने की आवश्यकता क्यों है

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मुंबई
12 अप्रैल 2021
मानव-वन्यजीवन अंत:क्रियाओं का अध्ययन: हमें संघर्ष से परे देखने की आवश्यकता क्यों है

हर साल, गुजरात में नृशंस मगरमच्छों के कई हमले होते हैं,  जिनके कारण कई जानें जाती हैं। लेकिन इस ज़िले ने मीडिया का ध्यान अपनी ओर हमलों के कारण नहीं अपितु स्थानीय लोगों और मगरमच्छों के बीच सकारात्मक सम्बन्धों के कारण खींचा है। इन समुदायों को नृशंस मगरमच्छों की सक्रिय रूप से रक्षा करने के लिए जाना जाता है और यहाँ तक कि वे खतरे के बावजूद गाँव के तालाबों में छोटे द्वीपों का निर्माण करते हैं। शोधकर्ता, वालंटरी नेचर कंजरवेंसी, गुजरात के अनिरुद्ध कुमार वसावा और बिर्कबेक युनिवर्सिटी ऑफ लंदन, यूके के साइमन पूले ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर यह समझने का प्रयास किया कि यह सहअस्तित्व कैसे हुआ। उन्हें जल्द ही यह महसूस हुआ कि सहअस्तित्व का अध्ययन कोई आसान काम नहीं है, चुनौतियों का अवलोकन करने पर उन्होंने यह पता लगाने का प्रयास किया कि कैसे हम मानव -वन्यजीवन सम्बन्धों के बारे में सोचते हैं और उनका अध्ययन करते हैं। इसके बारे में उन्होंने कंजर्वेशन बायोलॉजी जर्नल में एक निबंध लिखा है।

गुजरात के खेड़ा, आणंद और वडोदरा ज़िलों में घूमते हुए शोधकर्ताओं ने ऐसे लोगों के साक्षात्कार लिए जो मगरमच्छों द्वारा काटे जा चुके थे अथवा मानव-मगरमच्छों के संघर्ष में शामिल थे। अक्सर स्थानीय लोग मगरमच्छों के हमलों से सम्बन्धित प्रश्नों को टाल देते थे या गोलमाल उत्तर देते थे। इसके अलावा, अक्सर उनसे बातचीत करना और उनके सवालों का अनुवाद करना भी चुनौतीपूर्ण था।

मानव-वन्यजीवन सहअस्तित्व का अकादमिक रूप से बहुत सीमित अध्ययन किया गया है। हमारा उद्देश्य सहअस्तित्व का अध्ययन करने की आवश्यकताओं और चुनौतियों पर एक व्यापक संवाद  शुरू करना था। यह कहना है डॉ. सलोनी भाटिया का जो भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बॉम्बे (आईआईटी बॉम्बे) में एक पोस्ट डॉक्टरल फैलो हैं और वे इस अध्ययन में शामिल थीं। वास्तव में, अध्ययनों से पता चलता है कि  मानव-वन्यजीवन सम्बन्धों पर शोध संघर्ष की ओर झुका हुआ है। सन 2019 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 71 प्रतिशत प्रमुख साहित्य मानव-वन्यजीवन सम्बन्धों के संघर्ष पर केंद्रित थे, जबकि  मात्र 2 प्रतिशत स्पष्ट रूप से सहअस्तित्व पर केंद्रित थे।

लेखक बताते हैं कि संरक्षण अनुसंधान प्रायः – संघर्ष के कारण हुई मौतों, फसलों को नुक्सान और अन्य आर्थिक लागत के आंकड़े एकत्रित करने पर आधारित होता है । यह  मानव-वन्यजीवन संघर्ष के प्रभावों के बारे में तो हमारी समझ को बढ़ा सकता है, लेकिन इस तरह से किए गए शोध संघर्ष के अधिक सूक्ष्म प्रभावों  की अनदेखी करते हैं, जैसे कि मनुष्यों और जानवरों दोनों को आघात का सामना करना पड़ता है और कैसे इसे विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में निपटा जाता है। महत्त्वपूर्ण रूप से, यह अध्ययन संघर्ष के कारण और विविध जनसमूह और संस्कृतियां वन्यजीवन और प्रकृति के साथ साझा किए गए सम्बन्धों को  कैसा अनुभव  करते हैं, इसकी अनदेखी करता है।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि  मानव-वन्यजीवन संघर्ष के मनुष्यों पर पड़ने वाले प्रभाव से निपटने के लिए  पश्चिमी मूल्य प्रणालियाँ भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों में गलत तरीके से लागू की जा रही हैं।  उदाहरण के लिए, मनोविज्ञान और व्यवहार के पश्चिमी विचारों को प्रायः मानव-वन्यजीवन परस्पर क्रियाओं के शोध के तौर पर प्रयुक्त  किया जाता है, और लोगों की मानव-वन्यजीवन संघर्ष के अपघात से निपटने में स्थानीय धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं और संस्कारों की अनदेखी की जाती है।

शोधकर्ताओं ने जानवरों में अभिघात के साक्ष्य की ओर इशारा किया जैसे मानव-वन्यजीवन संघर्ष के कारण एशियाई हाथियों में मनोवैज्ञानिक तनाव का अवलोकन किया गया था। लेकिन शोधकर्ताओं ने पाया कि इस बात पर बहुत कम शोध हुए हैं कि संघर्ष का सामना करते हुए जानवर किस तरह से प्रभावित होते हैं। मनुष्य-पशु सहअस्तित्व की एक व्यापक समझ मात्र मनुष्य के आसपास केंद्रित दृष्टिकोण से संभव नहीं है। यह बात न केवल संघर्ष पर बल्कि सहअस्तित्व के उदासीन और सकारात्मक पहलुओं पर भी लागू होती हैं।

लेखकों के अनुसार, सहअस्तित्व की अवधारणा में “यह मानना चाहिए कि इस परिदृश्य में यह सामंजस्य मात्र मनुष्य ही नहीं बिठा सकते अपितु वन्य जीवों में भी मानवीय मौजूदगी को समायोजित करने की क्षमता होती है।”

वर्तमान अनुसंधान प्रथाओं के बारे एक और चिंता यह है कि मानव-वन्यजीवन संघर्ष के बारे में  अधिकांश अध्ययन ‘जंगल’ में आयोजित किए गए हैं, जहाँ मनुष्यों की उपस्थिति कम या नगण्य होती है। लेखक बताते हैं कि यह ग्रामीण गुजरात के आद्रभूमि जैसे मनुष्यों से आबाद या परिवर्तित परिदृश्य में संरक्षित क्षेत्रों के बाहर अधिकांश वन्यजीवन के जीवित रहने के कारण अप्रभावी सिद्ध हुआ है। प्रायः मानव-वन्यजीवन सम्बन्ध का  त्रुटिपूर्ण विधि से अध्ययन किया जाता है जैसे कि यह विरोधाभास था, जिसे संघर्ष से पृथक किया गया था। संघर्ष को वास्तव में समझने के लिए  यह महत्त्वपूर्ण है कि मानवीय गतिविधियों वाली जगहों, जैसे कृषि क्षेत्रों या आवास के लिए अतिक्रमित क्षेत्र और वनोन्मूलन वाले स्थानों आदि का पता लगाया जाए। लेखक एक आदर्श परिवर्तन का आग्रह करते हैं कि : संघर्ष सहअस्तित्व का एक अंतर्निहित  भाग है, और यह सहअस्तित्व मनुष्यों और वन्यजीवन के साझा अनुभव से उत्पन्न होता है।

शोधकर्ता मानव-वन्यजीवन सहअस्तित्व पर शोध की चुनौतियों को समझाने का भी प्रयास करते हैं। सहअस्तित्व के अर्थ को समझना और इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है इसके लिए मनुष्य और पशु व्यवहार के जटिल पहलुओं का अध्ययन करना आवश्यक है। वन्य पशुओं के साथ जीवन-बदल देने वाली मुठभेड़ों और आक्रमणों जिनमें विभिन्न जनसमूहों, संस्कृतियों के पशुधन, खाद्य और फसलों की हानि के  बाद के अभिघातजन्य प्रभावों का दस्तावेजीकरण और विश्लेषण किया जाता है इसमें बहुत प्रयास, समय और संसाधन लगते हैं। शोधकर्ताओं को नृवंशविज्ञान (ethnographic) का अध्ययन करने के लिए एक विशिष्ट समुदाय के साथ कई महीनों या वर्षों तक उनकी मान्यताओं और परंपराओं और प्रकृति के साथ उनके सम्बन्धों को समझने के लिए समय लगाना होगा। इससे इस अध्ययन का दृष्टिकोण मानव-वन्यजीवन  पारस्परिक के मात्रात्मक अध्ययन की बजाय मानव-पशु समुदायों के अंत:विषय अध्ययनों में परिवर्तित हो जाएगा।

हालांकि कई नैतिक चिन्ताएँ इस प्रकार के अध्ययन को सीमित करती हैं। मानव-वन्यजीवन संघर्ष से सम्बन्धित दर्दनाक घटनाओं के बारे में बातचीत और विचार विमर्श दस्तावेज़ करने के लिए अप्रिय हो सकता है। कुछ मामलों में, ये चर्चाएँ अवैध गतिविधियों जैसे कि वन्यजीवन व्यापार के लिए अवैध शिकार के  चारों ओर घूम सकती हैं और इन्हें शोधकर्ताओं द्वारा सरकार के नैतिक दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए साझा नहीं किया जा सकता है।

निबंध में, शोधकर्ताओं ने चर्चा की कि संरक्षण और मानव-वन्यजीवन सहअस्तित्व पर अध्ययन को जलवायु परिवर्तन, उभरते संक्रामक रोगों और पारिस्थितिक पुनर्स्थापन जैसे बड़े मुद्दों के संदर्भ में रखा जाना चाहिए। अध्ययनों में यह भी देखा जाना चाहिए कि ये कारक समुदायों के सामाजिक इतिहास और मनुष्यों द्वारा भूमि और अन्य संसाधनों के उपयोग के साथ कैसे प्रतिच्छेद करते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि खुले-  रूप में सभी अनुसंधान को शामिल करना चुनौतीपूर्ण सिद्ध हो सकता है। उनका आशय यह नहीं है कि शोधकर्ता इन सभी पहलुओं की गहराई तक जाएँ। इसकी बजाय, वे सलाह देते हैं कि शोधकर्ता व्यापक दृष्टिकोण के साथ सह-अस्तित्व में भूमिका निभाने वाले विभिन्न कारकों की पहचान के साथ प्रारम्भ  करें, मनुष्यों और पशुओं की जीवंत वास्तविकताओं और चिंताओं का पता लगाएँ, और अंत में अधिक विशिष्ट क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करें जिसमें  विस्तृत अनुसंधान की आवश्यकता है।

शोधकर्ताओं ने सहअस्तित्व को एक स्थाई और गतिशील स्थिति के रूप में वर्णित किया है, जहाँ मनुष्य और वन्यजीवन परिदृश्य को साझा करते हैं और प्रतिकूल मनुष्य-वन्यजीवन परस्पर क्रिया को प्रभावी और सामाजिक रूप से स्वीकार्य प्रबंधन द्वारा न्यूनतम किया जा सकता है। यह स्वीकार करना महत्त्वपूर्ण है कि संघर्ष मानव-वन्यजीवन समुदाय का एक अंतर्निहित हिस्सा है और यह समझने के लिए कि संघर्ष के साथ इस तरह के समुदाय कैसे काम करते हैं इसके लिए और अधिक संदर्भ-संवेदनशील शोध की आवश्यकता है।

विचारों में इस परिवर्तन को अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है “हमें सहअस्तित्व के अध्ययन के  महत्त्व को समझाने के लिए विभिन्न शोधकर्ताओं को मनाने की आवश्यकता है, साथ ही उन्हें यह सोचने के लिए बाध्य करें कि सहअस्तित्व क्या है और उन्हें आवश्यक कौशल सीखने और विषय में अनुसंधान करने के लिए प्रेरित करें। हमें संगठनों को यह भी समझाने की आवश्यकता है कि यह एक वैध शोध विषय है जो अंततः बेहतर नीतियां बनाने में प्रयुक्त होगा,” डॉ. भाटिया टिप्पणी करते हैं।