शोधकर्ताओं ने अध्ययन किया है कि खराब मौसम की चेतावनी से मछुआरे कैसे निबटते हैं और किस तरह से वे जलवायु परिवर्तन के बुरे प्रभावों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हैं।
जलवायु परिवर्तन, परिणामत: चरम मौसमी घटनाएँ एवं बढ़ते प्रदूषण के कारण समुद्री मछलियों की आबादी में काफी कमी आई है। यदि यही दौर जारी रहा तो, तो आप न केवल अपने पसंदीदा समुद्री भोजन को खो सकते हैं, बल्कि हजारों मछुआरों की आजीविका भी ख़तरे में पड़ जाएगी। मछुआरे जलवायु परिवर्तन और इसके फलस्वरूप उत्पन्न चुनौतियों का सामना आखिर कैसे करते हैं? एक अध्ययन श्रृंखला में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई (आईआईटी बॉम्बे) के शोधकर्ताओं ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि मछुआरे मत्स्य आखेट एवं जीविकोपार्जन के लिए अपनाई जाने वाली रणनीतियों, और उनके निर्णय को प्रभावित करने वाले कारकों सहित, मौसम की चेतावनी से आखिर कैसे निबटते हैं?
भारत में ३२८८ समुद्री मत्स्य-आखेट ग्राम हैं, जो नौ तटीय राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में स्थित हैं। राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (जी डी पी) में मत्स्य पालन और जलीय कृषि का योगदान १.०७% है। इसलिए, मत्स्याखेट वाले समुदाय की गतिविधियों का अध्ययन न केवल आजीविका हेतु इस पर निर्भर हजारों को सुरक्षित करने में मदद करेगा, बल्कि उनकी बेहतरी के लिए नीतियाँ तैयार करने में भी सहायक होगा ।
शोधकर्ताओं ने मछुआरा समुदायों, खोजपरक क्षेत्रकार्य, केन्द्रित समूह चर्चाओं और महाराष्ट्र के नगरीय, अर्ध-नगरीय एवं ग्रामीण मत्स्याखेट क्षेत्रों के ६०१ मछुआरों के घरेलू सर्वेक्षण पर आधारित पूर्व अध्ययन के माध्यम से आँकड़े एकत्र किए । मछुआरे कैसे मौसम चेतावनी से निबटते हैं और कैसे इसके साथ उनके सामंजस्य की रणनीतियाँ परिवर्तित होती हैं, इनको प्रभावित करने वाले कारकों को शोधकर्ताओं ने एकत्रित आँकड़ों के आधार पर खोजा। पिछले अध्ययनों के विपरीत, इस शोध ने नगरीय, अर्ध-नगरीय और ग्रामीण मत्स्याखेट समुदायों में अनुकूलन अथवा सामंजस्य की रणनीतियों और मौसम चेतावनी के प्रति उनकी प्रतिक्रियाओं में व्यवहार-गत बदलाव को देखा।
संक्षेप मे, शोधकर्ताओं ने पाया कि मछुआरों के मौसम चेतावनी के साथ अनुकूलन और निदान प्रतिक्रियाओं पर निम्नलिखित कारकों का महत्वपूर्ण योगदान है: अच्छे सामुदायिक संबंध, मौसम सूचना प्रसार अधिकारियों पर भरोसा, मौसम चेतावनी की दृष्टिगत विश्वसनीयता, जोखिम बोध और मछुआरों का शैक्षणिक स्तर। शोधकर्ताओं ने यह भी देखा कि प्रगाढ़ सामाजिक सम्बन्धों से युक्त ग्रामीण मछुवारों के समुदायों ने जोखिम संबंधी सूचनाओं को भली-भाँति प्रसारित करते हुये स्वयं को जीवन क्षति से बचाया, जबकि नगरीय मछुआरों ने मशीनीकृत नौकाओं का उपयोग करके जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन अर्थात सामंजस्य स्थापित किया। व्यापारिक प्रतिस्पर्धा एवं प्रदूषण जैसे कारकों ने नगरीय एवं अर्ध-नगरीय मछुआरों की अनुकूलन युक्ति अर्थात अडाप्टेशन स्ट्रेटेजी संबंधी निर्धारण को प्रभावित किया।
एक स्थायी आजीविका की ओर
अपने विश्लेषणों से, शोधकर्ताओं को ज्ञात हुआ कि मछुआरे बदलती जलवायु और घटते आखेट के विरुद्ध छह मुख्य अनुकूलन रणनीतियों का उपयोग करते हैं। ये हैं, बेहतर मत्स्याखेट उपकरणों का उपयोग, जैसे बेहतर नावें, विभिन्न प्रकार के जालों का उपयोग, कार्य-अवधि में बढ़ोत्तरी, पहले की तुलना में समुद्र में और आगे तक जाना, नौका बीमा का भुगतान और अपनी आजीविका-पूर्ति के लिए अन्य नौकरियों का सहारा लेना। इन रणनीतियों को आकार देने में शिक्षा, व्यवसाय का अनुभव, बचत, साख और परिसंपत्तियाँ, आजीविका को प्रभावित करने वाले परिवर्तनों और जोखिमों का बोध, सामाजिक नेटवर्क का सहारा एवं प्रदूषण जैसे कारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अध्ययन बताता है कि मछुआरों की शिक्षा ने मत्स्याखेट संबंधी सूचनाओं, नौका बीमा एवं मशीनीकृत नौकाओं तक उनकी पहुँच का मार्ग प्रशस्त किया।
“हमारे अध्ययन से ज्ञात हुआ कि उच्च-शिक्षित मछुआरे इस बदलाव और प्रभाव को समझने में बेहतर सुसज्जित होते हैं। मछुआरों के तापमान एवं वर्षा में बदलाव आदि को समझने में शिक्षा का बहुत महत्व है”, ऐसा कहना है आई आई टी बॉम्बे की प्राध्यापक तृप्ति मिश्रा का, जिन्होंने इस अध्ययन का नेतृत्व किया।
सरकार द्वारा प्रदत्त अनुदान, नगरीय, अर्ध-नगरीय और ग्रामीण, तीनों समूहों में अनुकूलन में सहायक रहा, क्योंकि औपचारिक ऋण अधिकांश लोगों की पहुँच से बाहर है। इसलिए शोधकर्ता, मछुआरा समुदाय के सहायतार्थ सार्वजनिक संस्थानों द्वारा प्रदत्त अनुदान एवं साख योजनाओं की वकालत करते हैं।
ग्रामीण मत्स्याखेट समुदायों के बीच सामुदायिक समर्थन एवं मित्रों के मध्य आपसी सामाजिक संबंध प्रगाढ़ पाये गए जिसने अनुकूलन रणनीतियों को योजनाबद्ध करने में एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य किया। शोधकर्ता कहते हैं कि योजनाकारों और नीति निर्माताओं को अपनी अनुकूलन योजनाओं में इस पहलू पर विचार करने की आवश्यकता है। अध्ययन में अधिकारियों के प्रति मत्स्याखेट समुदायों के विश्वास में कमी भी देखी गई।
यह ध्यान देने योग्य है कि नगरीय मछुआरे, जो अपने ग्रामीण और अर्ध-ग्रामीण समकक्षों की तुलना में समुद्र में आगे जाने का साहस करते थे, चाहते थे कि उनके बच्चे मत्स्याखेट से जुड़े जोखिमों के कारण एक अलग आजीविका को अपनाएँ। जब कि ग्रामीण एवं अर्ध नगरीय मछुआरा समुदायों का विश्वास था कि मत्स्याखेट ने आजीविका से अधिक उनकी सांस्कृतिक पहचान को प्रतिबिंबित किया है, इसलिए अन्य विकल्पों पर विचार करने के लिए वे अनिच्छुक थे।
शोधकर्ताओं ने पाया कि मछुआरों ने समुद्री प्रदूषण को प्लास्टिक अवशेष, विभिन्न ठोस कचरे, तेल छलकाव, निकटस्थ नगरीय मल-निकास और उद्योग अपशिष्ट के संदर्भ में मान्यता दी। चूंकि ठोस एवं नुकीला कचरा मत्स्याखेट उपकरणों और जालों को क्षति पहुँचाता है, प्रदूषण ने विभिन्न प्रकार के जालों और मोटर चालित नौकाओं के उपयोग के बारे में निर्णयों को प्रभावित किया। नगरीय एवं अर्ध-नगरीय मछुआरों ने अपने ग्रामीण समकक्षों की तुलना में विविध जालों और मोटर चालित नौकाओं का अधिक उपयोग किया।
अनुकूलन रणनीतियों को आकार देने में व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा एक दूसरा निर्णायक कारक था, ऐसा अध्ययन में पाया गया । जिन लोगों ने इस बढ़ी हुयी प्रतिस्पर्धा को समझा, वे बहुत से जालों के प्रयोग के बारे में और अपनी नौकाओं का बीमा करने हेतु अधिक संभावित थे। ग्रामीण एवं अर्ध-नगरीय मछुआरा समुदायों की तुलना में नगरीय क्षेत्र के लोगों का सोचना था कि इस प्रतिस्पर्धा ने उनकी आजीविका पर प्रतिकूल असर डाला है। "व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा में वृद्धि की यह धारणा विविध प्रकार के जालों को अपनाने और उन्नत मत्स्याखेट हेतु अधिक से अधिक रणनीतियों को समाहित करने से जुड़ी हुई है, जैसे कि उन्नत नौकाओं का उपयोग करना, लंबी अवधि तक एवं समुद्र में और आगे जाकर मत्स्याखेट करना” प्राध्यापक मिश्रा दावा करती हैं।
मौसम की चेतावनी पर प्रतिक्रिया
जब मछुआरे समुद्र में आगे बढ़ने का साहस करते हैं, चरम मौसमी घटनायेँ जैसे मूसलाधार बारिश और तूफान, इस समुदाय के लिए एक बड़ा संकट उत्पन्न करते हैं। इसलिए मौसम-चेतावनी का पालन करना जीवन को बचाने के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है, यद्यपि वास्तविकता यह है कि सभी इस पर ध्यान नहीं देते। मछुआरा समुदाय मौसम -चेतावनी को किस तरह से देखता है और क्या प्रतिक्रिया देता है, इसे आकार देने वाले कई कारकों का शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पता लगाया । तूफान और चक्रवात के अनुभव, नाव के प्रकार और उनका बीमा, सुरक्षा और स्थानीय ज्ञान पर विश्वास, समाज और स्थानीय सरकारी प्राधिकरणों में विश्वास, सामाजिक नेटवर्क, क्षेत्रीय पृष्ठभूमि, औपचारिक शिक्षा और मछली पकड़ने में वर्षों का अनुभव जैसे कारकों ने उनकी प्रतिक्रिया को संचालित किया।
मछुआरे, जिन्होंने चरम मौसमी घटनाओं का अनुभव किया था अथवा जो युवा थे, उन्होने अपनी सुरक्षा को ध्यान में रखते हुये मौसम चेतावनी के अनुसार सावधानी बरती। दस में से नौ ग्रामीण मछुआरों ने मौसम की जानकारी का उपयोग किया, जबकि अर्ध-शहरी समुदायों में तीन में से केवल दो और शहरी समुदायों में दो में से एक ही ने इस पर भरोसा किया। नौका बीमा कराने वालों ने भी किसी जोखिम को टालने हेतु वातावरण चेतावनी पर ध्यान दिया। सामाजिक सहायता से वंचित मछुआरा समुदाय अधिक सावधान थे और उन्होने वातावरण चेतावनी को भली-भाँति स्वीकार किया, क्योंकि उनके पास इन चरम मौसमी घटनाओं के दुष्प्रभाव का सामना करने के लिए कोई तंत्र नहीं था। दूसरी ओर कई वर्षों के अनुभवी मछुआरों अथवा जिनके पास यंत्रीकृत नौकायेँ थी, ने मौसम की चेतावनी का पालन नहीं किया। इन समुदायों के शिक्षा स्तर ने उनकी इस प्रतिक्रिया या मौसम जानकारी के उपयोग को प्रभावित नहीं किया।
शोधकर्ताओं ने चरम मौसमी घटनाओं में वृद्धि और चेतावनियों पर नजर रखने के महत्व को समझने में इन समुदायों की मदद करने हेतु जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने का सुझाव दिया। व्यक्तिगत वार्तालाप एवं कार्यशालाओं के माध्यम से समुदायों और सूचना प्रदाताओं के बीच विश्वास की कमी को कम करने का प्रयास भी कारगर हो सकता है। शोधकर्ताओं ने कहा कि अंततः,शिक्षा ही विभिन्न आजीविका एवं अवसरों का चयन करने के लिए सामंजस्य निर्णयों को बेहतर बना सकती है।
अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि विभिन्न मछुआरा समुदायों के मछुवारे, निर्णय कैसे लेते हैं एवं कौन से कारक उनके निर्णय को प्रेरित करते हैं।
“ इस अध्ययन के परिणाम, समस्त क्षेत्रीय समूहों में मछुआरों की आजीविका-सुधार हेतु स्थानीय सरकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता पर बल देते हैं। वे मत्स्याखेट उपकरण के लिए ऋण एवं अनुदान प्रदान करने, सहकारी समितियों के काम में सहायता करने एवं बंदरगाह जैसे सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे के प्रावधान हेतु सरकार की पहल के महत्व को दर्शाते हैं”, ऐसा कहकर अध्ययन में शामिल, जलवायु अध्ययन से संबंधित अंतर्विषयक कार्यक्रम (इंटर्डिसिप्लिनरी प्रोग्राम) की पी.एच.डी. छात्रा सुश्री कृष्णा मालाकर ने अपनी बात समाप्त की।