शोधकर्ताओं ने द्वि-आयामी पदार्थों पर आधारित ट्रांजिस्टर निर्मित किये हैं एवं ऑटोनॉमस रोबोट हेतु अत्यंत अल्प-ऊर्जा के कृत्रिम तंत्रिका कोशिका परिपथ निर्मित करने में इनका उपयोग किया है।

मदुरै की ऐतिहासिक जल-संभर प्रणाली को पुनर्जीवित करने हेतु तत्काल नीति परिवर्तन का आह्वान

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Madurai
7 फ़रवरी 2022
मदुरै की ऐतिहासिक जल-संभर प्रणाली को पुनर्जीवित करने हेतु तत्काल नीति परिवर्तन का आह्वान

वैज्ञानिक प्रबंधन प्रक्रियाओं की ओर निहारता वांदियुर जलाशय  (छायाचित्र -  शोधपत्र लेखक के द्वारा)

तमिलनाडु में मदुरै नगर अधिकांशत: अर्ध-शुष्क क्षेत्र में स्थित है, इसमें अल्प जल-संसाधन है एवं अनिश्चित वर्षा होती है। ऐतिहासिक दृष्टि से, प्राकृतिक संचयन जलाशयों का एक संजाल (नेटवर्क) जो वांदियुर तडाग निर्झर प्रणाली (वांदियुर टैंक केसकेड सिस्टम, वीटीसीएस) कहलाता है, मदुरै की जल-आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से पूरा करता आ रहा है । तथापि , वर्तमान समय में भूमि उपयोग गतिविधियों में द्रुतगामी परिवर्तन के कारण नगर उत्तरोत्तर विकट जल न्यूनता एवं बारंबार सूखे का सामना कर रहा है, जिससे तडाग संचयन क्षमता (टैंक संचयन कैपेसिटी) गंभीर रूप से प्रभावित हो रही है।

वैगइ की एक सहायक नदी उत्तर से दक्षिण की ओर मदुरै के आर-पार (अक्रॉस) बहती है। नगर का भूगोल  नदिका (रिव्युलेट) की प्रवाह रेखा के साथ प्राकृतिक उन्नयन एवं निम्नन (एलीवेशन एवं डिप्रेशन) को समाहित करता है। इसके परिणामस्वरूप, वैगइ नदी में प्रवेश के पूर्व जल प्राकृतिक रूप से आस-पास के निचले क्षेत्रों में प्रवाहित होता है।
          
इस भूदृश्य का लाभ लेते हुये, पूर्व शासकों ने 1600 के दशक में सहायक नदी की प्रवाह रेखा के साथ लगे जल संचयन क्षेत्रों में आठ बड़े  तडाग (टैंक) निर्मित किए थे। ये उच्च से निम्न ढलान की ओर व्यवस्थित किए गए थे। इस प्रकार निर्झर-प्रभाव (कैसकेडिंग-इफैक्ट) के कारण नदिका के वैगइ नदी से जुडने के पूर्व, जल का प्राकृतिक प्रवाह क्रमिक रूप से जलाशयों को भर देता था। जलाशयों की यह श्रंखला वांदियुर तडाग निर्झर प्रणाली कहलाती है। 

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बॉम्बे, मुंबई के शोधकर्ताओं ने वांदियुर तडाग निर्झर प्रणाली का एक व्यापक सर्वेक्षण किया है एवं अपने शोध कार्य को एस एन अप्लाइड साइंस नामक शोध पत्रिका   में प्रकाशित किया है। लेखकों का मानना है कि कभी अपने ऐतिहासिक एवं पुरातन महत्व के लिए ज्ञात वांदियुर तडाग प्रणाली उपेक्षा, वैज्ञानिक जानकारी के अभाव एवं इसके अनुरक्षण (मेंटिनेंस) को नियंत्रित करने वाली अपर्याप्त नीति के कारण श्वासरोधन (सफोकेशन) की स्थिति में है। इसके अतिरिक्त, यह पारंपरिक जल संचयन प्रणाली, क्षेत्र के तीव्र नगरीकरण के द्वारा तीव्रता से लीली जा रही है।

"इस जल-प्रणाली की विशिष्टता यह है कि प्रवही (फ्लोइंग) नदी में से नहरें निकालकर भरे जाने वाले पारंपरिक तडागों (टैंक) से भिन्न ये वीटीसीएस तडाग, नदी की प्रवाह रेखा में ही अन्तर्निहित हैं। इसके अतिरिक्त, ये परस्पर  अंतर्योजित (इंटर-कनैक्टेड) हैं। अत: जब तक एक तडाग भर नहीं जाता, नदी आगे की ओर प्रवाहित नहीं होती," इस अध्ययन शोध समूह को नेतृत्व प्रदान करने वाले, ग्रामीण क्षेत्रों हेतु प्रौद्योगिकी विकल्प केंद्र (सीटीएआरए) के डॉ. पेन्नान चिन्नास्वामी कहते हैं।

इसके अतिरिक्त,  तड़ाग जल-संचयन क्षेत्र के रूप में भी कार्य करते हैं । परिणामत: ये भूजल स्तर, एवं कूपों (वेल) को पर्याप्त रूप से पूरित करते थे, जिससे लोगों की परिवर्तनीय जल आवश्यकताएं पूर्ण होती थीं।


वांदियुर तडाग निर्झर प्रणाली का आरेखीय निरूपण (श्रेय लेखकगण)

शोधकर्ताओं ने तडाग प्रणाली की वर्तमान स्थिति के परीक्षण हेतु जल - संतुलन दृष्टिकोण अध्ययन (वाटर बैलेन्स अप्रोच स्टडी) किया। नदी एवं वर्षा के द्वारा तडाग में प्रवाहित होने वाले जल की मात्रा, तडाग का आयतन एवं क्षेत्र की जल आवश्यकताओं जैसे मापदण्डों का उन्होंने आकलन किया। उन्होंने मानवजनित गतिविधियों एवं नगरीकरण उपायों के कारण दो दशकों की अवधि में मापदंडों में होने वाले परिवर्तनों का कारण भी जाना। दल ने अपने आकलन हेतु विस्तृत क्षेत्रीय विश्लेषण एवं मानचित्रों के गूगल-अर्थ दूरस्थ संवेदन  डाटाबेस दोनों का उपयोग किया। 

लेखक क्षेत्रीय हित-धारकों जैसे  डवलपमेंट ऑफ़ ह्यूमन एक्शन फाउंडेशन (डीएचएएन), नामक एक एनजीओ के साथ अध्ययन कर स्पष्ट करते हैं कि, वर्तमान में  वीटीसीएस अत्यंत दयनीय स्थिति में है जिसे उचित प्रबंधन एवं जीर्णोद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त, उपरोक्त वर्णित बाह्य मापदंड, तडागों की संचयन क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं, जिससे उस क्षेत्र में उपयोग हेतु उपलब्ध जल मात्रा  अथवा ‘जल बजट ’ प्रभावित होता है।        

पुरातन काल में, भूमि की ग्रामीण अथवा नगरीय क्षेत्रों में द्विभाजन से रहित, एकल इकाई के रूप में मान्यता थी। यद्यपि वहाँ कोइ सुनिश्चित जल-संभर प्रणाली नहीं थी, तथापि पारंपरिक रूप से निर्मित तडागों का शासकों ने इतना अच्छा प्रबंधन किया था कि जल नगर में ही निहित रहता था और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता था।  

यद्यपि, वर्तमान काल में भूमि उपयोग - भूमि समाविष्ट (लैंड यूज - लैंड कवर्ड; LULC) नीतियों के विकास के उपरांत भूमि का ग्रामीण, अर्ध-ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में और अधिक सीमांकन किया गया। तदनुसार, ये तडाग (टैंक) अब विभिन्न प्रबंधन अभिकरणों के अंतर्गत आते हैं, जो अपनी सुनिश्चित क्षेत्रीय आवश्यकताओं के आधार पर स्वतंत्र निर्णय लेते हैं। साथ ही, प्रणाली में स्थित तडागों को एक  संयुक्त जलविज्ञान इकाई  के स्थान पर पृथक इकाइयों के रूप में देखा जाता है। अतएव,  अंतर्युग्मित तडागों (इंटर कनेक्टेड टैंक) का पृथक-पृथक रूप में प्रबंधन करना सम्पूर्ण प्रणाली को प्रभावित करेगा। 

"पारंपरिक जलाशयों के अस्तित्व/संचालन एवं नीतियों के साथ संयोजन, पर वैज्ञानिक समझ की अल्पता के कारण, यहाँ स्वामित्व का अभाव रहा है, जिसके परिणाम तडाग प्रबंधन गतिविधियों में नगण्य रूप में सामने आए हैं," डॉ. चिन्नास्वामी कहते हैं।

इसके अतिरिक्त, भूमि परिवर्तन एवं निर्माण गतिविधियों एवं अतिशय कृषि व्यवसाय जैसी गतिविधियों ने भू क्षरण में वृद्धि की है, जो तडागों में तलछट (सिल्ट) के रूप में बैठती है। यह इसकी जल संचयन क्षमता को गम्भीर संकट में डालता है। अपर्याप्त प्रबंधन एवं  तडागों के उन्नयन के अभाव में, नगर तीव्र जल असंतुलन की स्थिति का सामना कर रहा है, डॉ. चिन्नास्वामी ढृढ़ता पूर्वक कहते हैं। 

शोधकर्ताओं ने तब जल आय-व्यय मापदण्डों का आकलन किया। जल आय-व्यय लेखाविधि (अकाउंटिंग) के समरूप है जहाँ हम जल आगत एवं जल निर्गत की गणना करते हैं। जब भू-जल पुनर्भरण (आपूर्ति) एवं भू-जल उपयोग (माँग) संतुलित होते हैं तब भू-जल स्तर स्थिर रहता है। यह अपवाह (रन-ऑफ), वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन (अत्यधिक संवर्धनीय जल-कुंभी जैसे पौधों से) के कारण होने वाली जल हानियों एवं जल की चोरी जैसी अन्य सतही हानियों को न्यूनतम करके प्राप्त किया जा सकता है। एक संचयन घटक (स्टोरेज कॉम्पोनेंट) का संयोजन भू-जल पुनर्भरण (रीचार्ज) स्तर में उल्लेखनीय सुधार करता है।   

शोधकर्ताओं ने 20 वर्षों की अवधि के मापदण्ड उतार चढाव आंकड़ों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि नगरीकरण में 300 % वृद्धि, अपवाह (रन-ऑफ) के कारण जलग्रहण क्षेत्र के जल का 40 % भाग नष्ट करती है। कृषि कार्यों की अल्पता ने अपवाह को न्यून करने अथवा भू-जल पुनर्भरण की संभावना को और भी क्षीण कर दिया। यद्यपि यहाँ औसत वर्षा (931mm) में परिवर्तन नगण्य था, तथापि जब उन्होंने वर्षा विविधता का आकलन किया, अत्यधिक जल-प्रवाह के समय तडागों के रुग्ण अनुरक्षण (इल मेन्टिनेंस) के कारण अपवाह में वृद्धि हुई। 

"तडाग निर्झर प्रणाली (टैंक केस्केड सिस्टम) जलवायु की चरम स्थितियों का शमन कर सकती है एवं एक प्रतिरोधक (बफर) के रूप में कार्य कर सकती है, विशेष रूप से भविष्य की सूखा स्थितियों के लिए बाढ़-जल (फ्लड-वाटर) का संचय करके, " डॉ. चिन्नास्वामी कहते हैं। तथापि, तडाग पुनरोत्थान परियोजना वर्तमान नीतियों के कारण एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, वह आगे कहते हैं।

कुछ तात्कालिक उपचारात्मक उपाय सुझाते हुये, लेखक कहते हैं कि तलछट की सफाई करना, तडागों को जल-कुंभी से मुक्त करना एवं तटबंधों को सुदृढ़ता प्रदान करना, प्रणाली के पुनुरोत्थान में सहायक हो सकता है। धन संस्था (डीएचएएन फाउंडेशन) सार्वजनिक एवं निजी भागीदारी के अंतर्गत, पुनरोत्थान कार्यों का नेतृत्व कर रही है, एवं यह सीटीएआरए की सक्रिय सहयोगी है।      

इसके अतिरिक्त, डॉ. चिन्नास्वामी बल देकर कहते हैं कि "प्राथमिक रूप में, बेहतर प्रबंधन एवं तडाग कार्यक्षमता के लिए, निर्झर प्रणाली युक्त तडागों के एकल एकीकृत इकाई (सिंगल इंटेग्रेटेड यूनिट) जैसे समग्र रूप में प्रबंधन की आवश्यकता है।" वे कहते हैं नीति परिवर्तन इस समय की आवश्यकता है। एकल तडाग की समस्या का समाधान कर देना समस्त प्रणाली का उपचार नहीं करेगा, अपितु प्रणाली को श्रंखला बद्ध रूप से केवल नीचे की ओर ले जाएगा क्योंकि तडाग परस्पर जुड़े हुये हैं।