वैज्ञानिकों ने आरोपित विकृति के अंतर्गत 2-डी पदार्थों के परमाण्विक गुणों का सैद्धांतिक परीक्षण किया है।

सामाजिक-आर्थिक बाधाओं के चलते भारतीय किसान जलवायु परिवर्तन से कैसे अपना सामंजस्य स्थापित करते हैं?

Read time: 1 min
मुंबई
13 नवंबर 2020
सामाजिक-आर्थिक बाधाओं के चलते भारतीय किसान जलवायु परिवर्तन से कैसे अपना सामंजस्य स्थापित करते हैं?

चित्र: दर्पण शर्मा अनंस्प्लैश से

जलवायु परिवर्तन की स्थिति में सबसे उपयुक्त कृषि रणनीतियाँ निर्धारित करने के लिए वैज्ञानिकों ने महाराष्ट्र के ग्रामीण क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया  

पिछले कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन के कारण अस्थिर मौसम और अप्रत्याशित मानसून ने भारतीय कृषि तंत्र को हिला कर रख दिया है और हमारी खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है। यद्यपि सतत विकास को पूरा करने वाली नीतियों को पेश किया गया है, लेकिन इनके प्रभाव समय के साथ ही दिखाई देंगे। इस बीच, किसानों को गरीबी, कुपोषण, कर्ज और अशिक्षा सहित अन्य चुनौतियों का सामना करते हुए, फसल की विफलता को कम करने के लिए अप्रत्याशित मानसून से निपटने के तरीके खोजने होंगे।

हाल ही के एक अध्ययन में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मुंबई के शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि किसान अपने आप को अन्य सामाजिक और आधारभूत संरचना सम्बन्धी बाधाओं के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के अनुकूल कैसे करते हैं। अध्ययन के अवलोकन से सरकार की नीतियों को निर्देशित किया जा सकता है जिससे जलवायु परिवर्तनशीलता के कारण भारतीय कृषि का भविष्य अनिश्चितता से बचा रहे। यह अध्ययन जर्नल ऑफ़ एनवीरोंमेंट मैनेजमेंट  नामक पत्रिका में प्रकाशित किया गया है जिसे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन क्लाइमेट स्टडीज द्वारा समर्थित किया गया।

शोधकर्ताओं ने महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्रों के खेती करने वाले परिवारों का सर्वेक्षण किया ताकि इनकी अपने आपको जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने की विभिन्न रणनीतियों को समझा जा सके। हाल के वर्षों में, इन क्षेत्रों में राज्य को सबसे खराब मानसून परिवर्तनशीलता का सामना करना पड़ा है और, साथ ही बिगड़ी हुई सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के चलते, किसानों की आत्महत्याओं की बढ़ती हुई  संख्या देखी गई है।

अध्ययन के लेखकों में से एक, डॉ दीपिका स्वामी, जो आईआईटी मुंबई में जलवायु अध्ययन विभाग में शोधकर्ता हैं बताती हैं कि ''एक सामान्य ढाँचे के तहत विभन्न कारकों पर विचार करते हुए अनुकूलन कार्यो का अध्ययन करना, किसानों को जलवायु परिवर्तनशीलता और अन्य तनावों से उत्पन्न चुनौतियों को दूर करने में मदद कर सकता है''।

एक अनिश्चित जलवायु परिवर्तन के समायोजन और सूखे की अवधि के अनुसार कृषि प्रथाओं को बदलने की आवश्यकता होती है। किसानों को अनुकूलन रणनीतियों पर फैसलों का सामना करना पड़ता है, जैसे उत्पादकता बढ़ाने के लिए एक ही मौसम में कई फसलों की बुवाई करना, सूखा प्रतिरोधी फसलों का रोपण करना जो पानी की कमी का सामना कर सकें, ऐसी फसलें पैदा करना जो जल्दी पक जाएँ, मानसून के बदलाव के साथ रोपण और कटाई की तारीखों को बदलना, फसल बीमा का लाभ उठाना, और सिंचाई पद्धतियों को बदलना। लेकिन, सबसे उपयुक्त रणनीति खोजने के लिए किसानों को समय, ऊर्जा और पैसे की जरूरत होती है।

अध्ययन में पाया गया कि कई कारकों ने विभिन्न रणनीतियों के प्रति किसानों की वरीयताओं को प्रभावित किया है। पुराने अनुभवों ने किसानों को खेती के लिए सूखा प्रतिरोधी फसलों का प्रयोग करने के लिए रास्ता दिखाया, जबकि शिक्षण ने उन्हें एक साथ कई फसलें लगाने कि दिशा में राह दिखाई है। यदि उन्होंने अपनी फसलों के लिए एक सरकारी बीमा योजना का उपयोग किया था, तो वे कम अवधि में उपज देने वाली फसलों को बोने में अधिक इच्छुक थे, जो कम लागत वाली सूखा-प्रतिरोधी किस्मों के बजाय अधिक मुनाफा देती है। सरकार की नीति द्वारा दिए गए आश्वासन ने किसानों को एक ऐसी रणनीति का चयन करने की क्षमता दी, जिसने न केवल जलवायु परिवर्तन का मुकाबला किया, बल्कि बेहतर आय भी प्रदान की।

इसके विपरीत, यदि किसानों के पास मृदा स्वास्थ्य कार्ड होता है - जो मिट्टी में मौजूद सूक्ष्म पोषक तत्वों के बारे में रासायनिक विश्लेषण रिपोर्ट दिखाता है - तो वे अपनी फसल के प्रकार को बदलने से कतराएँगे । ये किसान अपने खेतों में खेती करने के लिए सरकारी निर्देशों का पालन करेंगे और अपने दम पर कोई जलवायु अनुकूलन कदम नहीं उठाएंगे। अध्ययन में यह भी पाया गया कि जिन किसानों ने अपनी फसलों का बीमा कराया था, वे कर्ज में डूबे हुए थे, जिससे पता चलता है कि उन्होंने सरकार की नीतियों पर बहुत भरोसा किया और बीमा पॉलिसी के लिए कर्ज लिया था।

लेकिन सिंचाई पद्धतियों को संशोधित करने, फसल बीमा प्राप्त करने और रोपण और कटाई की तारीखों को बदलने  की रणनीति किसानों के बीच सबसे कम पसंद की गई। लगभग 60% किसानों ने सरकारी कृषि योजनाओं का उपयोग नहीं किया। लेकिन, वे शिक्षित किसान, जिन्हें जलवायु परिवर्तन की बेहतर समझ, बेहतर आर्थिक स्थिति और सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूकता थी, ने इन योजनाओं को चुना।

डॉ स्वामी कहती है कि "इस अध्ययन में, हमने देखा कि जिन किसानों के पास टीवी, मोबाइल और साइकिल जैसी संपत्ति हैं, वे अपनी फसल काटने की तारीखों को बदलना पसंद करते हैं क्योंकि वे इन सामानों को इकट्ठा करने के बारे में ज्यादा परेशान नहीं होते हैं। इसके बजाय, उन्होंने अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए अपनी रोपण तिथियों को बदलकर फसल उत्पादकता बढ़ाने में अपनी आय का निवेश किया"।

फिर भी, भारत भर में भौगोलिक और जलवायु परिवर्तनशीलता के कारण कृषि नीति को डिजाइन करने के लिए अनेक चुनौतियाँ हैं। उदाहरण के लिए, पहाड़ी क्षेत्रों में किसानों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियाँ, मैदानी इलाकों में रहने वाले किसानों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियों से अलग हैं। मॉनसून में भिन्नता भी देश में विभिन्न भौगोलिक स्थिति पर असर करती है, मध्य और दक्षिण भारत में अत्यधिक वर्षा होती है जबकि पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में कम बारिश होती है।

वर्तमान अध्ययन आगे बताता है कि एक ही राज्य में विभिन्न ब्लॉकों में रहने वाले किसानों को अलग-अलग तरह की कृषि चुनौतियों का सामना करना पड़ा और जिसके लिए राहत सम्बंधित विभिन्न आवश्यकताएँ है। शोधकर्ता जलवायु क्षेत्रों के अनुसार देश को विभाजित करने का सुझाव देते हैं, इसमें उन भौगोलिक क्षेत्रो को साथ में रखा जा सकता हैं, जो अलग अलग राज्यों से संबंधित होने के बावजूद समान चुनौतियों का सामना करते हैं।

डॉ स्वामी कहती हैं कि, "यह सच है कि हम छोटे क्षेत्रों जैसे ब्लॉक या गाँवों को देखते हुए एक नीति का मसौदा तैयार नहीं कर सकते हैं। लेकिन, हम प्रत्येक जलवायु क्षेत्र में किसानों के लिए प्रमुख चुनौतियों की पहचान कर सकते हैं और एक उपयुक्त उपाय प्रदान कर सकते हैं।"

शोधकर्ताओं का सुझाव है कि, जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों को कृषि और जल संसाधन से संबंधित, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विकास योजनाओं में सम्मिलित किया जाना चाहिए।

डॉ स्वामी कहती है कि "जिला या ब्लॉक-स्तरीय अधिकारी गाँव में एक साप्ताहिक या मासिक संगोष्ठी का आयोजन कर सकते हैं जहाँ वे किसानों को जलवायु परिवर्तन के व्यावहारिक महत्व को बता सकते हैं जो इन परिणामों से निपटने के लिए उनकी जागरूकता और कार्यों को बढ़ावा देंगे।”