रिफाइनरी से प्राप्त उपचारित अपशिष्ट जल जब बालू से होकर बहता है तो इस पर प्रदूषक-भक्षी जीवाणुओं की एक परत निर्मित कर देता है, जो पानी से हानिकारक यौगिकों को दूर करती है।

सौराष्ट्र बेसिन में मेसोज़ोइक रेत का अन्वेषण

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Mumbai
9 अगस्त 2024
पश्चिम भारत का मानचित्र जिसमें अध्ययन क्षेत्र को छायांकित किया गया है।  श्रेय : ए. बी. रॉय एवं एस. आर. जाखड़, 2002. जिओलॉजी ऑफ़ राजस्थान (नार्थवेस्ट इंडिया) प्रीकैम्ब्रियन टू रिसेंट. प्रकाशक: साइंटिफिक पब्लिशर्स

भारत के पश्चिम में पश्चिमी गुजरात एवं मुंबई तटरेखा के उत्तर में प्रसारित सौराष्ट्र तटीय घाटी (बेसिन), समुद्र एवं भूमि दोनों को समाविष्ट करता हुआ 2,40,000 वर्ग किलोमीटर तक विस्तारित क्षेत्र है। यहाँ का अधिकाँश भूभाग डेक्कन ट्रैप नाम से प्रसिद्ध ज्वालामुखीय शिलाओं में दबा हुआ है। यह क्षेत्र 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व क्रेटेशस काल-खंड में पश्चिमी घाट पर ज्वालामुखी विस्फोटों द्वारा निर्मित हुए थे। इन ज्वालामुखीय राख एवं शिलाओं के नीचे स्थित तलछट भारतीय उपमहाद्वीप की सहस्राब्दियों की असाधारण यात्रा को अपने आप में समाहित किये हुए है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी मुंबई) एवं राष्ट्रीय पृथ्वी विज्ञान अध्ययन केंद्र, तिरुवनंतपुरम द्वारा किया गया सौराष्ट्र बेसिन के तलछटों का एक प्रभावशाली अध्ययन हमें इस क्षेत्र की पुरा-भौगोलिक (पैलियोजियोग्राफिक) कड़ियों को एक साथ जोड़ने में सहायता प्रदान कर रहा है। ‘पुरा-भौगोलिक’ एक ऐसा ऐतिहासिक अध्ययन है जो हमें बताता है कि अतीत में पृथ्वी के भाग कैसे दिखते थे। नया अध्ययन भारत के भौगोलिक इतिहास एवं प्राचीन महाद्वीपीय विन्यास से सम्बंधित कुछ रहस्यों का उद्घाटन करता है तथा महाद्वीपों की निर्माण प्रक्रिया एवं समय के साथ इनकी गतिशीलता की जानकारी प्रदान करता है।

“सौराष्ट्र तटीय घाटी (बेसिन) का निर्माण लगभग 10 करोड़ वर्ष पूर्व माडागास्कर से भारत के पृथक होने के कारण हुआ था। पृथक होने के पूर्व भारत, माडागास्कर तथा सेशेल्स एक साथ जुड़े हुए थे। पृथक होने के उपरांत भारत का पश्चिमी तट तराई (लो-लैंड) के रूप में जबकि अध्ययन क्षेत्र का उत्तर एवं उत्तर-पूर्व भाग उच्चभूमि (हाई-लैंड) के रूप में सामने आया,” पृथ्वी विज्ञान विभाग, आईआईटी मुंबई के डॉ. पवन कुमार रजक, जो अध्ययन के प्रमुख लेखक हैं, बताते हैं।

उपमहाद्वीप के उत्तर एवं पूर्वी उच्च भू-क्षेत्रों से प्रवाहित होने वाली नदियों के साथ लाई गयी तलछट सौराष्ट्र घाटी की तराई में एकत्र हुई।

डॉ. रजक कहते हैं, “डेक्कन ज्वालामुखीयों के विस्फोट (जो बाद में हुए) ने सौराष्ट्र घाटी के एक बड़े क्षेत्र को आच्छादित किया, जिससे तलछट का अध्ययन करना कठिन हो गया है। वर्तमान में तलछट केवल पर्वत/पहाड़ियाँ, नदी-खंड एवं मार्ग में स्थित दरारों में से ही दिख सकती है।”

इस अध्ययन का केंद्र सौराष्ट्र घाटी में मेसोज़ोइक (मध्यजीवी) युग के बलुआ पत्थर हैं। मेसोज़ोइक युग, जिसे डायनासोर के युग के रूप में जाना जाता है, का विस्तार लगभग 25.2 से 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व तक है। खनिज सामग्री के परीक्षण एवं इन बलुआ पत्थरों पर अत्याधुनिक कालनिर्धारण (डेटिंग) तकनीकों के उपयोग के माध्यम से यह अध्ययन, सौराष्ट्र घाटी में उनके वर्तमान स्थान तक पहुँचने वाली सामग्रियों के स्रोत एवं मार्गों को जोड़ता है। शोध-दल ने इलेक्ट्रॉन प्रोब माइक्रोएनालिसिस (इलेक्ट्रॉन प्रोब की सहायता से किया गया सूक्ष्म विश्लेषण, ईपीएमए) एवं लेजर एब्लेशन-इंडक्टिवली कपल्ड प्लाज्मा-मास स्पेक्ट्रोमेट्री (ठोस पदार्थों के विश्लेषण हेतु एक संवेदनशील तंत्र, एलए-आईसीपी-एमएस) नामक दो तकनीकों का उपयोग किया।

इन तकनीकों के संबंध में डॉ रजक बताते हैं, “एलए-आईसीपी-एमएस की उच्च परिशुद्धता (हाई प्रिसिशन) एवं अल्प मात्रा में उपस्थित खनिजों का संसूचन करने की क्षमता खनिजों की संरचना एवं आयु बताने में सक्षम है। ईपीएमए के माध्यम से मोनाजाईट जैसे खनिजों की संरचना एवं इनकी यूरेनिअम-थोरियम आयु (यू-टीएच एज) का निर्धारण किया जा सकता है। साथ ही यह तकनीक स्रोत की पहचान करने में भी सहायक है।”

शोध-दल ने ज़िरकोन एवं मोनाजाइट पर ध्यान केंद्रित किया जो भूवैज्ञानिक डेटा को भलीभांति संरक्षित रखने के लिए जाने जाते हैं।

“दोनों खनिजों में दुर्लभ मृदा तत्व (रेअर अर्थ एलीमेन्ट्स) होते हैं एवं इनके क्रिस्टल लैटिस में यूरेनियम एवं थोरियम की एक महत्वपूर्ण मात्रा होती है। यूरेनियम अथवा थोरियम का सीसे (लेड) में क्षय (डिके) होना भूवैज्ञानिक कालनिर्धारण के लिए उपयोग किया जाता है। अत: इन खनिजों का अध्ययन हमें अतीत की महत्वपूर्ण भूवैज्ञानिक घटनाओं के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता है,” डॉ. रजक बताते हैं।

सौराष्ट्र घाटी के उत्तरपूर्वी भाग में जुरासिक काल के अंत से लेकर आरंभिक क्रेटेशस काल खंड का 600 मीटर मोटी तलछट वाला एक क्षेत्र है, जिसे ध्रांगध्रा समूह कहा जाता है। नवीन अध्ययन के अनुसार ध्रांगध्रा समूह में बलुआ पत्थर मुख्यत: दो प्राथमिक 'प्रीकैम्ब्रियन' स्रोतों से उत्पन्न हुए हैं। प्रीकैम्ब्रियन काल पृथ्वी के इतिहास का सबसे प्रारंभिक काल है जो हमारे ग्रह के अधिकांश काल-खंड को समाविष्ट करता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि नियोप्रोटेरोज़ोइक शिलाएं (लगभग 100 करोड़ से 54 करोड़ वर्ष पूर्व की) एवं आर्कियन शिलाएं (450 करोड़ से 250 करोड़ वर्ष पूर्व की) सौराष्ट्र बेसिन में तलछट की प्राथमिक स्रोत हैं।

यह अध्ययन पैलियो-ड्रेनेज पैटर्न अर्थात प्राचीन नदी प्रणालियों से सम्बंधित रहस्योद्घाटन के भी संकेत देता है। भूवैज्ञानिक बलों के कारण ये भू-परिदृश्य समय के साथ कैसे विकसित हुए एवं किस प्रकार इन्होंने आकार लिया, यह समझने के लिए इस अध्ययन के निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं। आगामी अध्ययन इन अध्ययन परिणामों का उपयोग कर प्राचीन नदी प्रणालियों से सम्बंधित नवीन खोजों का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं।

बलुआ पत्थर में रूटाइल एवं टूर्मलीन जैसे खनिजों के विश्लेषण से ग्रेनाइट, मेटापेलाइट्स (रूपांतरित मृत्तिका युक्त तलछट) एवं टूर्मलीनाइट्स जैसे अनेक भूगर्भीय स्रोतों से होने वाली विविध व्युत्पत्तियों का संकेत मिला। इनके रासायनिक अभिलक्षणों ने शिलाओं को उनके मूल उत्पत्ति स्थान, अरावली एवं दिल्ली सुपर-समूह जैसे पुराने भू-भागों में उनका पता लगाने में सहायता की। अरावली एवं दिल्ली सुपर-समूह प्रमुख क्षेत्रीय विशेषताएं हैं जो अपने दीर्घकालिक भूवैज्ञानिक इतिहास के लिए जानी जाती हैं।

“नमूनों के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि तलछट में योगदान करने वाले अनेक स्रोत हैं। जबकि प्रारम्भिक विचार यह था कि घाटी में केवल अरावली-दिल्ली फोल्ड बेल्ट (स्रोत क्षेत्र) का तलछट में योगदान था,” डॉ. रजक कहते हैं।

 

Graphical representation of sediment flow into the Saurashtra basin.  Credits: Pawan Kumar Rajak
सौराष्ट्र घाटी में तलछट प्रवाह का आरेखीय निरूपण. श्रेय: पवन कुमार रजक

भू-रासायनिक विश्लेषण एवं कालनिर्धारण हमें महत्वपूर्ण वैश्विक घटनाओं का संकेत देते हैं। ज़िरकोन खनिजों के अध्ययन से 350 करोड़ से 53.9 करोड़ वर्ष पूर्व की संरचनाओं के प्रमुख योगदान की जानकारी प्राप्त हुई है। ये समयरेखाएँ कोलंबिया, रोडीनिया तथा गोंडवाना जैसे प्राचीन महाद्वीप चक्रों के निर्माण एवं विघटन से संबंधित हैं। ये उन विशाल भू-भागों को दिए गए नाम हैं जिनमें कभी पृथ्वी के अधिकांश या सभी महाद्वीप सम्मिलित थे, किन्तु अंततः ये विभाजित हुए एवं पृथक हो कर आज के महाद्वीप बन गए।

“कोलंबिया (180 करोड़ वर्ष) एवं रोडीनिया (120 करोड़ वर्ष) महाद्वीपीय कालखंड में वर्तमान विश्व के समस्त महाद्वीप एक भाग में एकत्रित थे। हमारे अध्ययन में प्राप्त भूवैज्ञानिक युग इंगित करते हैं कि स्रोत शिलाएं (पर्वत) उसी समय-चक्र में निर्मित हुई थीं,” आईआईटी मुंबई के पृथ्वी विज्ञान विभाग के प्राध्यापक शांतनु बनर्जी बताते हैं।

ये निष्कर्ष केवल शैक्षणिक जिज्ञासा की दृष्टि से महत्वपूर्ण न होकर क्षेत्रीय भूविज्ञान एवं संसाधनों में व्यावहारिक अंतर्दृष्टि प्रदान करने में भी महत्वपूर्ण हैं। कैम्बे, कच्छ एवं नर्मदा जैसे निकटस्थ घाटियों के साथ सौराष्ट्र घाटी भारत के पश्चिमी तट का एक भाग निर्मित करते हैं, जिन्हें हाइड्रोकार्बन संसाधनों के संभावित स्थलों के रूप में पहचाना गया है। इन तलछटों की उत्पत्ति का ज्ञान अन्वेषण प्रयासों एवं इन संसाधनों के बेहतर प्रबंधन में सहायक हो सकता है।

इसके अतिरिक्त अध्ययन में बड़ी भूवैज्ञानिक घटनाओं पर भी प्रकाश डाला गया है, जैसे महत्वपूर्ण ओरोजीनीज अर्थात पर्वत निर्माण की घटनाएं एवं टेक्टोनिक विन्यास जिन्होंने पृथ्वी की पर्पटी (क्रस्ट) को आकार दिया। सौराष्ट्र में मेसोज़ोइक युग की रेत भीलवाड़ा, अरावली एवं दक्षिण दिल्ली के पर्वत निर्माण के इतिहास को समेटे हुए है। ये घटनाएँ महत्वपूर्ण कालखंडों का प्रतिनिधित्व करती हैं जहाँ टेक्टोनिक गतिविधियों के कारण पृथ्वी की पर्पटी में गतिशील रूप से परिवर्तन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप पर्वतों एवं अन्य भूवैज्ञानिक संरचनाओं का निर्माण हुआ।

इस क्षेत्र के हमारे भूवैज्ञानिक इतिहास संबंधी ज्ञानवर्धन करने हेतु, अध्ययन शोध-दल सौराष्ट्र घाटी के खनिजों की और अधिक जानकारी प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है।

“आगामी योजना इसी क्षेत्र में काम करने की है ताकि उस समय के स्रोत क्षेत्रों एवं पुरा-भौगोलिक परिवर्तनों संबंधी हमारे ज्ञान को परिष्कृत किया जा सके। हमें यह परीक्षण करना होगा कि क्या माडागास्कर एवं सेशेल्स भी इस तलछट के स्रोत हैं? हम अध्ययन के लिए आवश्यक भूकंपीय आँकड़े प्राप्त करने हेतु ओएनजीसी से संपर्क करने की योजना बना रहे हैं ताकि घाटी की संरचना की जानकारी एवं अरब सागर में तलछट के चिह्न प्राप्त किये जा सकें,” प्रा. बनर्जी भविष्य की योजना के सम्बन्ध में कहते हैं।