शोधकर्ताओं ने द्वि-आयामी पदार्थों पर आधारित ट्रांजिस्टर निर्मित किये हैं एवं ऑटोनॉमस रोबोट हेतु अत्यंत अल्प-ऊर्जा के कृत्रिम तंत्रिका कोशिका परिपथ निर्मित करने में इनका उपयोग किया है।

स्मार्ट फोन को सूक्ष्मदर्शी में परिवर्तित करने में सक्षम किफ़ायती लेंस

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मुंबई
14 अगस्त 2019
आई. आई. टी. बॉम्बे के शोधार्थियों ने अत्यंत छोटे एवं किफ़ायती लेंस बनाने की तकनीक विकसित की है, जिसका उपयोग स्मार्टफोन में किया जा सकता है।

आई. आई. टी. बॉम्बे के शोधार्थियों ने अत्यंत छोटे एवं किफ़ायती लेंस बनाने की तकनीक विकसित की है, जिसका उपयोग स्मार्टफोन में किया जा सकता है। 

कितना अच्छा होता यदि हम अपने स्मार्टफोन में छोटे और किफ़ायती लेंसों को लगाकर अपनी रक्त कोशिकाओं को गहराई से देख पाते, या फिर नकली नोटों की पहचान कर पाते? भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई के प्राध्यापक सौम्यो मुखर्जी और उनके अनुसंधान दल ने कुछ ऐसा ही कर पाने में सक्षम छोटे लेंस बनाने की एक सस्ती एवं टिकाऊ तकनीक विकसित करने में सफलता प्राप्त की है। आईआईटी मुंबई के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी वार्षिकोत्सव, टेकफेस्ट - २०१८ में, उनकी प्रयोगशाला के विभिन्न प्रदर्शनो के मध्य इन लेंसों का प्रदर्शन एक बड़े जन-समुदाय को आकर्षित करने में सफल रहा।

परंपरागत रूप से, लेंसों का निर्माण काँच की घिसाई तत्पश्चात इसका गीला परिमार्जन अथवा यदि प्लास्टिक है तो इसको साँचे में ढालकर किया जाता है। किन्तु कुशल कारीगरी और कीमती उपकरण इस पारंपरिक प्रक्रिया को मॅंहगा बना देते हैं। तरल पदार्थों के उपयोग से लेंस का निर्माण करना एक नवीन विकल्प है। यद्यपि यह भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य है क्योंकि इसके लिए एक ऐसी प्रणाली की आवश्यकता है जो तरल को कुशलतापूर्वक एक लेंस का आकार देने के साथ-साथ इसके स्थायित्व को भी सुनिश्चित कर सके कि आगे चलकर तरल में  कोई प्रवाह नहीं होगा।

एक काँच की परखनली में आंशिक रूप से पानी भरने पर आप देखेंगे कि पानी की सतह समतल नहीं बल्कि वक्रीय होती है। किन्हीं दो तरल पदार्थों के मध्य स्थित संधिस्थल में इसी तरह की अर्धचंद्राकार एवं पृथक-पृथक वक्रता वाली सतहें निर्मित होती हैं, जिन्हें विज्ञान की भाषा में “मैनिस्की” कहा जाता है। शोधकर्ताओं ने तरल पदार्थों के इसी गुणधर्म का उपयोग लेंस बनाने के लिए किया है, जिसमें पॉली-डाईमिथाइल-सिलोक्ज़ेन (पीडीएमएस) नामक एक सिलिक़ॉन इलास्टोमर का प्रयोग किया गया है।

शोधकर्ताओं ने पीडीएमएस को एक ऐसे तरल पदार्थ पर डाला जिसके साथ यह मिश्रित नहीं होता, जैसे  ग्लिसरॉल या पानी। यह तरल पदार्थों के संधिस्थल पर एक वक्रीय आकृति बनाता है। अब पीडीएमएस के उपचार हेतु एक उष्ण -वायु धौकनी का उपयोग किया जाता है जो इसकी पर्त को छीलकर संधिस्थल को वांछित अर्धचंद्राकार रूप प्रदान करता है। इसके अलावा, तरल-संधिस्थल के एक सिरे पर अतिरिक्त दबाव लगाकर शोधकर्ता इस अर्धचंद्र आकार को परिवर्तित भी कर सकते हैं, जिससे लेंस की वक्रता में परिवर्तन कर इसकी आवर्धन क्षमता में परिवर्तन किया जा सकता है। इस तकनीक का विस्तृत विवरण जर्नल ऑफ बायोमेडिकल ऑप्टिक्स  में प्रकाशित एक अध्ययन में किया गया है।

प्रो. मुखर्जी का कहना है कि सूक्ष्म लेंसों के पुनरोत्पादन योग्य निर्माण की दिशा में यह एक सुगम, सस्ता एवं  त्वरित उपयोगी दृष्टिकोण है। हम साधारण दाब नियंत्रण प्रणाली के उपयोग से, लेंस निर्माण के लिए एक विधेय साँचे का निर्माण कर इसकी वक्रता का अनुकूलन कर सकते हैं। अभी तक ऐसे लेंसों का पुनरोत्पादनीय निर्माण एक चुनौती थी, क्योंकि इसके लिए श्यान या चिपचिपे तरल के नियंत्रित प्रवाह की आवश्यकता होती है। अपने  शोध के माध्यम से हम यह कह सकते हैं कि यह पद्धति अत्यधिक पुनरोत्पादनीय वक्रता वाले लेंस का उत्पादन करने में सक्षम है।

आई.आई.टी. मुंबई में अपने पीएचडी शोध कार्य के दौरान इस तकनीक को विकसित करने वाली डॉ. भुवनेश्वरी करुणाकरण के अनुसार, "इस तकनीक के उपयोग से तैयार लेंस गोलाकार होता है, जिसमें गोलाकार विपथन नामक एक दोष अंतर्निहित होता है।" गोलाकार विपथन एक ऐसी घटना है जिसमें लेंस के किनारों पर आपतित प्रकाश किरणें अभिसरित होकर उस बिन्दु पर केन्द्रित नहीं होती जहाँ लेंस के केंद्र से गुजरने वाली प्रकाश किरणें केंद्रित होती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि लेंस के मध्य भाग की तुलना में किनारों पर अपवर्तन अधिक होता है (कृपया चित्र देखें)। यह घटना धुंधली छवियों को जन्म देती है। इस समस्या के समाधान हेतु शोधकर्ताओं के दल ने समान सिद्धांतों पर आधारित एक वैकल्पिक तकनीक विकसित की है, जो लेंस को गोलाकार विपथन से दोषमुक्त कर असंगोलीय लेंस बनाती है। डॉ. करुणाकरण के अनुसार "ऐसे लेंस गोलाकार लेंस की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करते हैं।" इस पद्धति का विस्तृत विवरण ‘प्रोसीडिंग्स ऑफ एसपीआईई ऑप्टिकल इंजीनियरिंग एंड एप्लीकेशन’ में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में किया गया है।

शोधकर्ताओं ने इन लेंसों का उपयोग करके एक “स्मार्टफोन सूक्ष्मदर्शी” विकसित किया है, जिसमें इस प्रकार से निर्मित लेंस को स्मार्टफोन के कैमरे पर लगा दिया जाता है। इस सूक्ष्मदर्शी का विभेदन १.४ माइक्रोमीटर है जो कि प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी के समतुल्य ही है, और इसका प्रयोग काँच की स्लाइड पर स्थित पराग कणों  एवं बैंक के नोटों पर स्थित सूक्ष्म नमूने को देखने के लिए किया जा चुका है। शोधकर्ताओं के अनुसार उनके इस लेंस के उपयोग से स्मार्टफोन का उपयोग संभवतः मुद्रा नोटों की प्रामाणिकता को सत्यापित करने के लिए किया जा सकता है।

इसके अलावा, इन लेंसों का उपयोग वृहद विस्तार वाले जैव चिकित्सा अनुप्रयोगों के लिए भी किया जा सकता है। “यह एक मलेरिया संक्रमित मानव के स्टेंड रक्त स्मीयर में संक्रमित कोशिकाओं की पहचान के लिए और अन्य जैव-चिकित्सा अनुप्रयोगों जैसे एंडोस्कोप (पोले अंगों या गुहाओं के अंदरूनी हिस्सों की जाँच के लिए उपकरण), ऑटोस्कोप (कान की जांच के लिए उपकरण), शुक्राणुओं की गिनती, दंत परीक्षण और न्यूनतम इनवेसिव शल्य प्रक्रियाओं आदि में उपयोग किया जा सकता है। डॉ. करुणाकरण ने विस्तार से बताया कि इसका उपयोग पानी में दूषित पदार्थों जैसे कि माइक्रो-एल्गी आदि की पहचान के लिए और अन्य विधि-चिकित्सा अनुप्रयोगों के लिए एक प्रकाशीय प्रणाली की संरचना करने में भी किया जा सकता है।” 

अभिनव तकनीकी अनुसंधान को व्यवहार्य उत्पादों में परिवर्तित करना बहुधा चुनौतीपूर्ण हो सकता है। किन्तु इस कार्य में रत शोधकर्ता इसका व्यावसायीकरण करने के लिए तत्पर हैं। भविष्य की योजनाओं का विवरण देते हुये प्राध्यापक मुखर्जी ने संकेत दिया कि “हम इस दिशा में आगे सहयोग के लिए बातचीत कर रहे हैं जिसमें इस प्रकार निर्मित लेंसों को लघु उपकरणों के साथ जोड़कर, इनमें तरल पदार्थ एकत्रित करके एवं कुछ हेर-फेर कर विभिन्न उपयोगों, जैसे कि मलेरिया की पहचान,में काम में लाया जा सकता है।”