वेस्टर्न घाट रीजन (पश्चिम घाट क्षेत्र, डब्ल्यूजीआर) भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी भाग से लगा भारत का एक अनूठा भूदृश्य है, जो उत्तर में दक्षिण गुजरात से लेकर दक्षिण में केरल और तमिलनाडु तक विस्तारित है। यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्राप्त यह क्षेत्र पृथ्वी के जैव विविधता वाले 36 हॉटस्पॉट में से एक है। यद्यपि अस्थिर एवं अनियोजित गतिविधियों के दबाव के चलते यह क्षेत्र कई चुनौतियों का सामना कर रहा है।
एक नूतन अध्ययन में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटीबी) के प्राध्यापक पेन्नन चिन्नासामी और सुश्री वैष्णवी होनप ने डब्ल्यूजीआर में मिट्टी के तीव्रता से हो रहे क्षरण को प्रकट किया है। डब्ल्यूजीआर के कुछ भागों में 1990 से 2020 के मध्य मिट्टी के कटाव की दर में 94% की वृद्धि देखी गई है। यह अध्ययन पूरे डब्ल्यूजीआर में मिट्टी की दीर्घकालिक क्षति को मापने के लिए दूरस्थ संवेदन (रिमोट सेंसिंग) डेटा का उपयोग करने वाला प्रथम अध्ययन है। यह अध्ययन मृदा अपरदन दर (सॉयल इरोजन रेट) में भारी वृद्धि को दर्शाने के साथ–साथ, राज्य स्तर पर भी मृदा अपरदन की भयानक वृद्धि को दर्शाता है।
"पश्चिमी घाट एक जैव विविधता वाला हॉटस्पॉट है जो विविध जीवन-रूपों को समाहित किए हुये है। यह विश्व का अत्यंत अनूठा स्थान है। यद्यपि इसके पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन पर अधिक ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। पानी और मिट्टी इस क्षेत्र में जीवनदाई अंग हैं। चूंकि मिट्टी के कटाव पर दृष्टि नहीं रखी जाती अत: हमने मिट्टी की क्षति का आकलन किया है,” इस अध्ययन की प्रेरणा के बारे में प्राध्यापक पेन्नन चिन्नासामी कहते हैं।
मिट्टी की क्षति के मात्रात्मक आकलन के लिए, शोधकर्ताओं ने यूनीवर्सल सॉयल लॉस इक्वेशन (यूएसएलई) विधि का उपयोग किया है। यूएसएलई के माध्यम से अनेकों अध्ययन किए गए हैं, क्योंकि इसे चलाने के लिए आवश्यक अधिकांश डेटा मुक्त-स्रोत (ओपन सोर्स) है, और जीआईएस (जिऑग्राफिकल इन्फॉर्मेशन सिस्टिम्स) का उपयोग करके प्राप्त किया जा सकता है।
यूएसएलई, मृदा कटाव एवं इसके कारकों के आकलन हेतु एक सुविधाजनक रूपरेखा प्रस्तुत करता है। वर्षा, स्थलाकृति विज्ञान (टोपोग्राफी), मिट्टी का क्षरण, भूसंधारण प्रबंधन एवं संरक्षण की प्रचलित प्रथाएं, यूएसएलई द्वारा विचार किए जाने वाले प्रमुख कारक हैं। इनको प्रक्रिया-आधारित समीकरणों के रूप में दर्शाया जाता है एवं इनके माध्यम से तलछट की मात्रा एवं सघनता के संदर्भ में मिट्टी की क्षति-मात्रा का अनुमान लगाया जाता है। वर्तमान अध्ययन में, पश्चिमी घाट के लिए यूएसएलई का उपयोग नूतन है और समय एवं स्थान के पैमाने पर इस प्रकार का मूल्यांकन संभवत: प्रथमत: किया गया है।
"यूएसएलई समीकरण में कई मापदंड (पैरामीटर) हैं और उनमें से कुछ को शोध साहित्य के अनुसार माना जाना चाहिए। इस कार्य के लिए भौतिक परीक्षणों की सहायता सीमित थी। अतएव कुछ मापदंड प्रकाशित साहित्य के आधार पर ही मान्य किए गए। भविष्य के अध्ययनों में इन आँकड़ों को क्षेत्र आधारित मापन के साथ आगे बढ़ाना चाहिए," प्राध्यापक पेन्नन चिन्नासामी इस अध्ययन के प्रतिबंधों एवं आगे की रूपरेखा के संबंध में कहते हैं।
90 एवं उसके बाद के दशकों के उपलब्ध आँकड़ों का उपयोग करते हुए, शोधकर्ताओं ने 1990 से 2020 तक मिट्टी की क्षति का आकलन किया है। अध्ययन से ज्ञात हुआ है कि वर्ष 1990, 2000, 2010 एवं 2020 के लिए इस क्षेत्र में औसत मिट्टी क्षति क्रमशः 32.3, 46.2, 50.2 और 62.7 टन प्रति हेक्टेयर प्रति वर्ष थी। आँकड़े मिट्टी के कटाव में 94% की वृद्धि को दर्शाते हैं। विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण इस क्षेत्र की जैव विविधता के लिए यह चिंताजनक प्रवृत्ति हानिकारक है।
पश्चिमी घाट के मापन स्तर को देखते हुए, शोधकर्ताओं को बड़े डेटासेट को संसाधित करना पड़ा।
"आईआईटी मुंबई की उन्नत कंप्यूटिंग सुविधाओं के उपयोग के साथ हम कम चुनौतियों के साथ डेटासेट को संसाधित करने में सक्षम थे। यद्यपि इस चुनौती से निपटने के लिए हमने कार्य को कई समानांतर कड़ियों में विभाजित कर दिया था," प्राध्यापक पेन्नन चिन्नासामी कहते हैं।
प्राध्यापक पेन्नन चिन्नासामी आगे कहते हैं, "पश्चिमी घाट के लिए अध्ययन क्षेत्र की सीमा प्राप्त करना बड़ी चुनौती थी। चूंकि डब्ल्यूजीआर विभिन्न राज्यों के मध्य सीमापारीय क्षेत्र है, एवं प्रत्येक राज्य की अपनी-अपनी सीमा होने के कारण हमारे उपयोग के लिए यह क्षेत्र स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं था। अत: पश्चिमी घाट की समेकित सीमाओं को प्राप्त करने के लिए हमें कई मानचित्रों को डिजिटल रूप देना पड़ा।"
परिणामों का विश्लेषण बताता है कि पश्चिमी घाट राज्यों के अंतर्गत सर्वाधिक मिट्टी की क्षति तमिलनाडु राज्य में अंकित की गई जो 1990 से 2020 तक 121% की असाधारण वृद्धि के रूप में थी। इसी क्रम में केरल, जहाँ 1990 से 2020 तक मिट्टी की क्षति में 90% की वृद्धि पाई गई तथा कर्नाटक जहाँ क्षति वृद्धि 56% थी, भी मिट्टी कटाव की अस्थिर दर का सामना कर रहे हैं।
गोवा एवं गुजरात में भी डब्ल्यूजीआर के लिए स्थिति समान रूप से गंभीर हैं। 1990 से 2020 तक जहाँ गोवा क्षेत्र में मिट्टी के कटाव में 80% की वृद्धि देखी गई वहीं समान अवधि के लिए गुजरात में यह 119% की भयावह वृद्धि के साथ अंकित की गई। महाराष्ट्र में भी मिट्टी की क्षति में 97% की वृद्धि देखी गई है।
पारिस्थितिकी तंत्र, जैविक विविधता एवं डब्ल्यूजीआर पर निर्भर समुदायों के लिए मिट्टी कटाव की यह गति पर्याप्त संकट उत्पन्न करती है। यह क्षेत्र अद्वितीय जैवभौतिक प्रक्रियाओं एवं प्रजातियों को आश्रय देता है। उपजाऊ मिट्टी के क्षरण के कारण इसकी निरंतरता गंभीर संकट में है। मिट्टी क्षरण के इस भयावह स्तर के चलते कृषि उत्पादकता घट सकती है, पानी की गुणवत्ता कम हो सकती है एवं मीठे पानी के स्रोत प्रभावित हो सकते हैं। यह इस क्षेत्र की जैव विविधता को प्रभावित करने के अतिरिक्त महत्वपूर्ण पारिस्थितिक एवं सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां उत्पन्न कर सकता है।
यह स्थिति नीति निर्माताओं के समक्ष अपूर्व चुनौतियाँ प्रस्तुत करती है।
प्राध्यापक पेन्नन चिन्नासामी लिखते हैं कि "राज्य प्रतिनिधि संस्थाओं को प्रभाव क्षेत्र या प्रशासन क्षेत्र में कार्य करना चाहिए एवं मिट्टी के क्षरण को रोकने के उपाय कर इसका संरक्षण करना चाहिए। क्षेत्रीय भागों में छोटे-छोटे कार्यालय होते हैं जो स्थानीय प्रशासन पर ध्यान केंद्रित कर मिट्टी का प्रबंधन कर सकते हैं। आईआईटी मुंबई के शोधार्थी उनके साथ साझेदार के रूप में इन प्रबंधन गतिविधियों से संबन्धित सहायता प्रदान कर सकते हैं।"
समीक्षात्मक रूप से यह अध्ययन मिट्टी के कटाव में वृद्धि के प्रमुख कारक के रूप में भूमि कुप्रबंधन के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव को इंगित करता है। मानवीय हस्तक्षेप को कम करने एवं संरक्षण गतिविधियों को बढ़ाने पर केन्द्रित योजनाओं के तत्काल कार्यान्वयन की आवश्यकता है। वर्तमान अध्ययन, पश्चिमी घाट में अनेक स्थानों पर मिट्टी के कटाव एवं क्षरण के भौतिक परीक्षणों के माध्यम से, रिमोट सेंसिंग डेटा की वैज्ञानिक मान्यता को प्रदर्शित करने की आवश्यकता पर बल देता है।
पश्चिमी घाट में मृदा संरक्षण गतिविधियों में वृद्धि कर एवं मानव हस्तक्षेप को कम करके जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम किया जा सकता है, साथ ही भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र में क्षरण द्वारा उत्पन्न इस प्रकार की क्षति को रोका जा सकता है।
प्राध्यापक पेन्नन चिन्नासामी का कहना है, "भविष्य के कार्यों में मृदा क्षति निवारण के लिए क्षेत्रीय हॉट-स्पॉट के आधार पर वैज्ञानिक रूप से मान्य और डेटा संचालित सर्वोत्तम प्रबंध योजनाओं का विकास करना सम्मिलित है। इन संवेदनशील क्षेत्रों एवं बीएमपी (बेस्ट मैनेजमेंट प्लान) का उपयोग करने के लिए राज्य प्रतिनिधि संस्थाओं से संपर्क किया जा सकता है, एवं मिट्टी पर गहन दृष्टि रखने तथा प्रबंधन के लिए संयुक्त गतिविधियों आदि पर विचार किया जा सकता है। संयुक्त प्रस्तावों को सरकार एवं द्विपक्षीय संस्थाओं द्वारा वित्त पोषित किया जा सकता है जो पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य एवं मृदा संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करते हैं।"