क्या आपने बारिश के बाद हवा की गंध पर गौर किया है? ये वही ताजी मिट्टी की गंध है जो हमें हमारे बचपन में वापस ले जाती है और जिससे प्रेरित होकर कई कवियों और लेखकों में रचनात्मकता पनपी है।
लगभग १९६० के दशक के दौरान दो ऑस्ट्रेलियाई खनिज वैज्ञानिकों, इसाबेल जॉय बेयर और रिचर्ड ग्रेनेफ़ेल थॉमस ने मिट्टी की इस गंध के लिए ज़िम्मेदार यौगिक का पता लगाया। उन्होंने, ग्रीक पौराणिक कथाओं में देवताओं की नसों में बहने वाले तरल पदार्थ के नाम पर इस यौगिक का नाम "पेट्रिकोर" रखा। अनोखी बात यह है कि उनके इस शोध से कई वर्षों पूर्व भारत के उत्तर प्रदेश के एक गांव कन्नौज के इत्र निर्माता इत्र की शीशी में मिट्टी की सुगंध को एकत्रित करने में सक्षम थे। उन्होंने इसे "मिट्टी का इत्र" की संज्ञा दी थी। इत्र निर्माता अप्रैल और मई के गर्म और शुष्क महीनों में धूप में पकी मिट्टी की चकती रखते थे और फिर आसवन (डिस्टिलेशन) की प्रक्रिया से मिट्टी का इत्र निकालते थे।
इसाबेल और ग्रेनेफ़ेल ने १९६४ में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध पत्र में कन्नौज के इत्र निर्माताओं के योगदान का उल्लेख किया। उन्होंने "पेट्रिकोर" को विभिन्न रसायनों के मिश्रण के रूप में परिभाषित किया, जो विभिन्न मौसमों में विभिन्न स्थानों में भिन्न हो सकते हैं। यदि अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग प्रकार की मिट्टी होती है तो पानी के कुछ छींटों के बाद दुनिया भर में मिट्टी से एक ही तरह की गंध क्यों आती है?
इसका कारण एक विशेष वर्ग के जीवाणु हैं जिन्हेँ एक्टिनोमाइसेट्स कहा जाता है। ये जीवाणु स्ट्रेप्टोमाइसिन का उत्पादन करते हैं जो कि टी.बी. की बीमारी के विरूद्ध एक प्रतिजीव (एंटीबायोटिक) है। ये जीवाणु दुनिया भर की मिट्टी में उपलब्ध हैं। शुष्क और गर्म जलवायु में ये निष्क्रिय हो कर बीजाणु में परिवर्तित हो जाते हैं। इन बीजाणुओं से मिट्टी की सोंधी गंध युक्त "जियोसमाइन" नामक रसायनिक यौगिक का स्राव होता है। दिलचस्प बात यह है कि चुकंदर में मिट्टी की सोंधी गंध और कैटफ़िश में कीचड़ जैसे स्वाद के लिए भी यही रसायन ज़िम्मेदार है। मनुष्य की नासिका "जियोसमाइन" के प्रति अतिसंवेदनशील है। हम इस रसायन की पांच बटा एक खरब सान्द्रता को सूंघ सकते हैं जो कि पानी से भरे चार ओलंपिक आकार के तरण ताल में एक बूंद जियोसमाइन के बराबर है।
हाल ही में, अमेरिका के एम. आई. टी. विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन से ये पता चला है की यह गंध हवा तक कैसे पहुँचती है। जब वर्षा की एक बूँद सुराखदार मिट्टी की सतह पर गिरती है तब उसमें बहुत ही सूक्ष्म मात्रा में वायु प्रवेश कर जाती है। पानी में फंसे हवा के बुलबुले शीघ्रता से ऊपर की ओर उठते हैं और बहुत ही बारीक़ कणों में टूट कर हवा में एयरोसोल बनाते हैं। इन एयरोसोल में ताजी मिट्टी की सोंधी सुगंध होती है।
इस खोज के बाद इसाबेल और रिचर्ड्स प्रसिद्ध हो गए और उनके काम को अभी भी याद किया जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम कन्नौज के अग्रणी इत्र निर्माताओं को नहीं जानते जो मिट्टी की सोंधी सुगंध को इसाबेल और रिचर्ड्स से कई वर्षों पूर्व ही कैद करने में सक्षम थे। कन्नौज के इत्र उद्योग में लगातार गिरावट आ रही है और "मिट्टी के इत्र" के ५० मिलीलीटर के लिए १६ डॉलर की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।