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खाद्य अपशिष्ट को परिवर्तित करके अर्थ व्यवस्था को बढ़ावा देने में बायोरिफाइनरी की भूमिका

नवंबर 20,2018 Read time: 5 mins
पुराबी देशपांडे

वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद - भारतीय रसायन तकनीकी संस्थान (सी एसआईआर-आईआईसीटी), हैदराबाद के शोधकर्ता एकीकृत तकनीकों के एक सैट पर काम कर रहे हैं जिससे आज दुनिया की दो प्रमुख चुनौतियों का समाधान हो सकता है - खाद्य अपशिष्ट और ऊर्जा का अभाव। शोधकर्ताओं ने चर्चा की है कि कैसे बायो रिफाइनरी एक ऐसी सुविधा है जो ईंधन , बिजली, गर्मी और मूल्य-वर्धित रसायनों का उत्पादन करने के लिए बायोजेनिक अपशिष्ट परिवर्तन प्रक्रियाओं और प्रौद्योगिकियों को जोड़ती है। यह जैवअर्थव्यवस्था के लिए एक टिकाऊ तरीक़ा हो सकता है।

खाद्य अपशिष्ट खाद्य आपूर्ति श्रृंखला के विभिन्न चरणों में खाद्य की कमी को बतलाता है जो गलती से या जानबूझकर किया गया हो सकता है लेकिन इसका अंत अवांछित कार्बनिक अपशिष्ट के रूप में होता है। एक रिपोर्ट में बताया गया है कि विश्व में हमारी भोजन की ज़रूरतों का एक तिहाई हिस्सा, लगभग 1.3 अरब टन, सालाना बर्बाद हो जाता है। खाद्य अपशिष्ट केवल भोजन की बर्बादी भर नहीं है बल्कि इससे कहीं ज़्यादा ज़मीन, पानी, ऊर्जा और निवेश की भी बर्बादी जो कि भोजन के साथ कचरे में चले जाते हैं। जब संयुक्त राष्ट्र ने खाद्य अपशिष्ट को एक वैश्विक समस्या करार दिया था तब साथ ही यह भी बताया था कि लगभग 8 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन खाद्य अपशिष्ट से आता है।
ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का अन्य प्रमुख स्रोत जीवाश्म ईंधन  हैं जो पहले से ही “ऊर्जा के भूखे” विश्व के साथ तेज़ी से ऊर्जा का अरक्षणीय स्रोत बन रहे हैं। ऊर्जा उत्पादन की वर्तमान विधियाँ खपत की दर से मेल नहीं खाती हैं और आज हरित ऊर्जा को बढ़ाने के साथ जीएचजी को कम करने की भी ज़रूरत है।

सीएसआईआर-आईआईसीटी के प्राध्यापक वैज्ञानिक डॉ. एस.वैंकट मोहन के नेतृत्व में बायोरिसोर्स टेक्नॉलॉजी जर्नल में समीक्षात्मक अध्ययन प्रकाशित हुआ है। यह अध्ययन खाद्य और इससे सम्बंधित बायोजेनिक अपशिष्ट पदार्थों से वर्तमान और भविष्य की तकनीकी से हरित ऊर्जा और अन्य रसायनों को बनाने का एक अवलोकन देता है, जो बदले में जैव-अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ा सकता है।

खाद्य अपशिष्ट मुख्य रूप से कार्बोहाड्रेट, प्रोटीन और लिपिड (वसा) जैसे कार्बनिक यौगिकों से बनते हैं। जिसे सरल यौगिकों में तोड़ा जा सकता है और फिर जैविक या जैव-रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा कई  उत्पाद तैयार किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, एसिडोजेनिक किण्वन या एसिडोजेनेसिस से कार्बनिक यौगिक टूटते हैं और इस जैविक प्रक्रिया में यौगिकों के परिवर्तन से बहुत से वसा अम्ल बन जाते हैं जैसे फार्मिक अम्ल, एसिटिक अम्ल, प्रोपिओनिक अम्ल, ब्यूटेरिक अम्ल, आईएसओ-ब्यूटेरिक अम्ल और वॉलेरिक अम्ल। इन अम्लों के साथ कार्बन डायऑक्साइड और जैव-हाइड्रोजन भी बनते हैं। एनोरबिक पाचन इन अम्लों को जैव-मीथेन बना देता है। आगे जैव-हाइड्रोजन और जैव-मीथेन की मात्रा को अनुकूलित करने से जैव-हाइथेन उत्पन्न होता है। ये अम्ल अपने आप में उपयोगी रसायन हैं और इनसे कई और रसायन भी बनाये जा सकते हैं। डीज़ल के ऊष्माजनक मूल्य -र्इंधन के पूर्ण दहन द्वारा उत्पन्न ऊर्जा की मात्रा-  की बात करें तो  45.5 मैगा जूल (एमजे)/किग्रा और जैव हाइड्रोजन का 141.80 किजू/किग्रा होता है। दूसरी ओर, आदर्श परिस्थिति में जलाया गया एक किलोग्राम डीजल 2.65 किग्रा कार्बन डायऑक्साइड का उत्पादन करेगा और 1 किग्रा पेट्रोल 2.3 किग्रा कार्बन डायऑक्साइड उत्पन्न करेगा। जब कि जैव-हाइड्रोजन को जलाने पर कोई कार्बन डायऑक्साइड उत्सर्जित नहीं होती है इसलिए यह एक आदर्श हरित र्इंधन है, ऐसा कहना है डॉ. मोहन का, जब वे जैव-हाइड्रोजन के हरित पहलू पर बात करते हैं।

कुछ हद तक जल्द ही पेट्रोलियम डीजल का स्थान बायोडीजल ले लेंगे। लेकिन इसे बायोडीजल ऑक्सीडेटिव स्थिरता की प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करना पड़ता है यदि ऑक्सीकरण के कारण जैव- ईंधन को ठीक से संसाधित और संचय नहीं किया जावे। इसलिए शोधकर्ता इस चुनौती पर काम कर रहे हैं। “आमतौर पर ऑटोमोबाइल्स में इस्तेमाल किए जाने वाले बायोडीजल में आयतन के आधार पर बी5 से बी20 (डीजल के साथ 5 और 20 प्रतिशत बायोडीजल ) तक के मिश्रण होते हैं। साथ ही बायोडीजल की ऑक्सीडेटिव स्थिरता में सुधार करने के लिए एंटीऑक्सीडेंट्स मिलाये जाते हैं। इसके अलावा बायोडीजल के उत्पादन के लिए फीडस्टॉक के रूप में माइक्रोएल्गी का उपयोग वनस्पति -आधारित बायोडीजल से होने वाले नुकसान को कुछ हद तक रोक सकता है। माइक्रोएल्गी प्रति एकड़ में 40 प्रतिशत ज़्यादा तेल उत्पादित कर सकता है बजाय बायो-तेल उत्पादित पौधों के। इस माइक्रोअल्गल  बायोडीजल में ऑक्सीकरण स्थिरता वनस्पति -आधारित बायोडीजल से कहीं ज़्यादा है, इसका मतलब है कि इसे वनस्पति -आधारित बायोडीजल के मुकाबले ज़्यादा लंबे समय तक संग्रहीत किया जा सकता है।”ऐसा डॉ. मोहन का कहना है।

शोधकर्ताओं के अनुसार एक और विधि है इलेक्ट्रो-किण्वन। यह एक प्रक्रिया है जिसमें इलेक्ट्रोड्स का इस्तेमाल इलेक्ट्रोरसायन के रूप में सूक्ष्मजीव किण्वन को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है। यह एक आशाजनक प्रक्रिया है जिसमें कार्बनिक स्रोत को मूल्यवान रसायनों और बायोर्इंधन में बदला जा सकता है। “सूक्ष्मजीव वातावरण में इलेक्ट्रोड लगाने से एक पोटेंशियल का निर्माण होता है जिससे इलेक्ट्रॉन के प्रवाह का नियमन होता है जो प्रक्रिया की दर को प्रभावित करता है, इससे बायोप्रक्रिया से मिलने वाले संसाधनों में बढ़ोत्तरी की जा सकती है।”, डा.मोहन कहते हैं।  इस विलयन के जैवरासायनिक संश्लेषण से बायो-इथेनॉल और बायोब्यूटेनॉल जैसे सामान्य उत्पाद बनते हैं, जो निकट भविष्य में वैकल्पिक र्इंधन के स्रोत के रूप में उपयोगी हो सकते हैं। खाद्य अपशिष्ट इलेक्ट्रोएक्टिव बैक्टीरिया (ईएबी) - बैक्टीरिया का एक वर्ग जो कोशिकाओं के बाहर एक इलेक्ट्रोड या धातु अयस्क  के लिए इलेक्ट्रॉन स्थानांतरित करने में सक्षम होता है को काफी मात्रा में इलेक्ट्रान प्रदान करता है और इस प्रकार यह बायोइलेक्ट्रिसिटी के एक स्रोत के रूप में काम करता है। साथ ही वैज्ञानिकों ने बायो-उर्वरकों और बायो-पॉलीमरों को उत्पन्न करने के लिए भी इसी तरह की तकनीकों का विकास किया है, जो वर्तमान में इस्तेमाल हो रहे इन संसाधनों का हरित विकल्प देता है।

भविष्य में जैवअर्थव्यवस्था से ढेरों उम्मीदें हैं। बीसीसी रिसर्च द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, बायोरिफाइनरी तकनीकों के लिए वैश्विक बाज़ार 2016 में 466.6 अरब डॉलर से बढ़कर 2021 तक 714.6 अरब डॉलर हो जाएगा, जो 2016-2021 तक की अवधि के लिए 8.9 प्रतिशत की संयुक्त चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर है। बेशक, नागरिकों द्वारा घरों में बुनियादी बायोरिफाइनरियों बनाने के लिए नीति निर्माता और सरकार द्वारा प्रमुख भूमिका निभाई जा रही है। इससे प्राप्त राजस्व को अर्जित करने के लिए बहुत कुछ करने की ज़रूरत है।

“अपशिष्ट खनन और बायोरिफाइनरियों के साथ मौजूदा संभावित अवसरों को साकार करने के कदम उठाए जाने चाहिए। सरकार सॉफ्ट लोन या ज़मीन के आवंटन के ज़रिए बायोरिफाइनरियों को बढ़ावा दे सकती है। जैवअर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार को लंबी-अवधि के प्रोत्साहन ढाँचे, नीति और बाज़ार विकृतियों से जूझने की योजना बनानी चाहिए।,” डा मोहन का कहना है।

वास्तव में बायोरिफाइनरी हम सभी के लिए एक क्रांतिकारी स्वच्छ और हरित भविष्य का वादा करती है। कौन जानता है कि जो खाना आज हम फेंक रहे हैं कल वह हमारे फोन को चार्ज करने के काम आ सकता है या हमारी कारें दौड़ाने के काम आ सकता है।

यह लेख “ Food Waste Biorefinery: Sustainable Strategy for Circular Bioeconomy” नामक लेख पर  आधारित है जो बायोरेसोर्स टेक्नोलॉजी जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसे वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद  से नेटवर्क प्रोजेक्ट और डिपार्टमेंट ऑफ़ बायोटेक्नोलॉजी (DBT) के शोध अनुदान के रूप में वित्तीय सहायता मिली है।