पार्किंसंस के रोगियों में प्रोत्साहन एवं प्रेरणा जैसे कारकों की अस्वाभाविक प्रक्रिया के अध्ययन हेतु डाटा आधारित दृष्टिकोण

फ्रिक्शन वेल्डिंग : आकार परिवर्तन के माध्यम से वेल्डिंग की गुणवत्ता में उल्लेखनीय प्रगति

Mumbai
24 अप्रैल 2025
Friction Welding चित्र सौजन्य: गुब्बी लैब्स

जब मध्यकालीन लौहकार रक्त-तप्त धातुओं को हथौड़े से पीट-पीट कर अपने भट्टे में गढ़ा करते थे, उस काल से ही सभ्यता ने विभिन्न धातुओं को एक साथ जोड़ने तथा आधारभूत उपकरणों, संरचनाओं एवं अंततः जटिल मशीनों के निर्माण का मार्ग खोजने के प्रयास निरंतर किये हैं। आधुनिक वेल्डिंग, अग्नि एवं बल के सामान्य स्वरूप से बहुत आगे, विभिन्न तकनीकों की एक विस्तृत श्रृंखला है। उदाहरणार्थ रोटरी फ्रिक्शन वेल्डिंग एक 'ठोस अवस्था' (सॉलिड स्टेट) की आधुनिक प्रक्रिया है जिसमें धातुओं को उनके गलनांक तक गर्म करने के स्थान पर उच्च गति से घूमते हुए (रोटरी) धातु के दंड को एक अन्य स्थिर धातु दंड के विरुद्ध दबाया जाता है। उनके मध्य लगने वाला घर्षण (फ्रिक्शन) बल केवल इतनी ऊष्मा उत्पन्न करता है जो धातु की सतहों को मृदु (सॉफ्ट) करने के लिए पर्याप्त होती है, किन्तु पिघलाती नहीं। जब पर्याप्त बल लगाया जाता है, तो मृदुल हो चुकी धातुएँ एक साथ जुड़ जाती है, जिसे ठोस अवस्था वेल्डिंग (सॉलिड-स्टेट वेल्ड) कहते हैं।

रोटरी वेल्डिंग के दोषों को दूर करने एवं बंधों को दृढ़ता प्रदान करने की दिशा में वैज्ञानिक निरंतर प्रयासरत हैं। एक नए अध्ययन में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मुंबई, ISRO प्रोपल्सन कॉम्प्लेक्स, इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (IPRC-ISRO) एवं डिफेंस मेटलर्जिकल रिसर्च लेबोरेटरी (DMRL) ने रोटरी फ्रिक्शन वेल्डिंग में बंधों (बॉन्डिंग) को उत्कृष्ट बनाने हेतु एक सामान्य एवं अभिनव पद्धति विकसित की है। उन्होंने विशिष्टत: स्टेनलेस स्टील (SS321) एवं टाइटेनियम की मिश्र धातु (Ti6A14V) के मध्य बंधों को उन्नत करने की दिशा में कार्य किया। Ti6A14V सामान्यतः वातान्तरिक्ष (एरोस्पेस), रक्षा एवं अन्य औद्योगिक अनुप्रयोगों में एक महत्वपूर्ण मिश्र धातु है।

दो पृथक पदार्थों, जैसे कि स्टील एवं टाइटेनियम को जोड़ना वेल्डिंग के अन्तराफलक (इंटरफेस) पर बहुधा धातु असंगतता (मेटालर्जिकल इनकॉम्पैटिबिलिटी) को जन्म देता है। वेल्डिंग प्रक्रिया में उत्पन्न ऊष्मा एवं दबाव के अंतर्गत दोनों धातुओं के परमाणु वेल्डिंग परिसीमा पर विसरित (डिफ्यूज़) होते हैं एवं प्रतिक्रिया करते हुए अन्तराधात्विक यौगिक (इंटरमेटेलिक कंपाउंड ; IMCs) बनाते हैं। यह प्रक्रिया अंतिम उत्पाद को औद्योगिक उपयोग की दृष्टि से असंगत बनाती है। उदाहरण स्वरूप स्टील एवं टाइटेनियम के जोड़ते समय अन्तराधात्विक स्टील-टाइटेनियम यौगिक का निर्माण होता है, जो कि भंगुर (ब्रिटल) प्रकृति का होता है एवं शीघ्र ही सूक्ष्म फट (माइक्रोस्कोपिक क्रैक) निर्मित कर लेता है। इससे जोड़ अत्यधिक दुर्बल हो जाता है। इस प्रभाव को कम करने के लिए स्टील एवं टाइटेनियम के मध्य निकल धातु का एक पतला अंत:स्तर (इंटरलेयर) स्थापित किया जाता है।

“निकेल (Ni) भंगुर प्रकृति के Fe-Ti अन्तराधात्विक यौगिक के निर्माण को अवरुध्द करता है एवं इसके स्थान पर अधिक तन्य (डक्टाइल) प्रकृति के Ni-Ti अन्तराधात्विक यौगिक के निर्माण को उभार देता है, जिससे जोड़ के सामर्थ्य में वृद्धि होती है,” इस अध्ययन के अग्रणी शोधकर्ता डॉ. नीरज मिश्रा बताते हैं। उन्होंने आईआईटी मुंबई के यांत्रिक अभियांत्रिकी विभाग के प्राध्यापक अम्बर श्रीवास्तव के नेतृत्व में अपना पीएचडी शोध कार्य किया। 

यद्यपि अंत:स्तर के रूप में निकेल का उपयोग एक बड़ी चुनौती है। घर्षण वेल्डिंग (फ्रिक्शन वेल्डिंग) की प्रक्रिया में स्वाभाविक रूप से अत्यधिक मात्रा में फ्लैश उत्पन्न होता है। यह एक प्लास्टिसाइज़्ड पदार्थ होता है जो निकेल अंत:स्तर को भी सम्मिलित करता है एवं जोड़ से बाहर निकल आता है। फ्लैश को अपशिष्ट पदार्थ माना जाता है जिसे मशीनिंग के द्वारा निकाल दिया जाता है। धातु के अपव्यय के रूप में यह प्रक्रिया का एक अतिरिक्त चरण होता है। इस प्रकार अंत:स्तर से प्रक्रिया लागत एवं जटिलता में वृद्धि होती है। अंत:स्तरकी प्रभावशीलता वेल्डिंग प्रक्रिया के समय होने वाले तीव्र विरूपण (डिफॉर्मेशन) एवं तापन के समय इसकी दृढ़ता एवं मोटाई के टिके रहने पर निर्भर करती है।

नए अध्ययन में फ्लैश के कारण होने वाले पदार्थ के व्यय को कम करने एवं निकेल अंत:स्तर की पर्याप्त मोटाई बनाये रखने हेतु वैज्ञानिकों ने एक सरल समाधान प्रस्तुत किया है। उन्होंने अंतराफलक (इंटरफेस) की ज्यामिति को अथवा जहाँ दो धातु दंड मिलते हैं, उस सतह के आकार को इस प्रकार रूपांतरित किया कि फ्लैश सामग्री सरलता से बाहर न आ सके। विशिष्ठ रूप से उन्होंने एक सतह के सिरे को धीरे धीरे पतला होने वाला आकार दिया (टेपर एन्ड)। इस शोध कार्य में उन्होंने टाइटेनियम के एक सिरे को टेपर किया जिससे धातु दंडों को एक साथ दबाने पर बाहरी सिरे के निकट एक गुहा (कैविटी) निर्मित हो जाती है।

“इस अध्ययन में Ti6A14V वाले भाग के सिरे को टेपर किया गया क्योंकि टाइटेनियम स्टेनलेस स्टील से अधिक मृदु है एवं इसका विरूपण (डिफॉर्मेशन) भी शीघ्रता से हो जाता है, अतः यह सतत एवं एक समान अंतराफलक बंध (इंटरफेस बॉन्ड) को सुनिश्चित करता है,” प्रा. श्रीवास्तव टेपरिंग के लिए टाइटेनियम सिरे के चयन के सम्बन्ध में बताते हैं।

प्रा. श्रीवास्तव के अनुसार “ऊष्मा उत्पादन, पदार्थ के प्रवाह एवं फ्लैश प्रतिधारण (रिटेंशन) में अंतराफलक ज्यामिति (इंटरफेस ज्योमेट्री) की महत्वपूर्ण भूमिका है। एक समतल-टेपर अंतराफलक गुहा (कैविटी) निर्मित कर विरूपित फ्लैश को इसमें पकड़ लेता है। अर्थात फ्लैश बाहर नहीं निकल पाता। यह अत्यधिक विरूपित (हाईली डिफोफॉर्म्ड) फ्लैश आगे चलकर और प्लास्टिकी विरूपण अथवा सुघट्य विरूपण को प्राप्त होता है एवं जोड़ में ही रह जाता है। यह प्रक्रिया अंतराफलक में स्थित कणों (ग्रेन) को अत्यधिक परिष्कृत (रिफाइन) करती है, जिससे जोड़ की यांत्रिक सुदृढ़ता में वृद्धि होती है।”

अपनी इस खोज को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोग किए। उन्होंने स्टेनलेस स्टील (SS321) एवं टाइटेनियम मिश्र धातु (Ti6A14V) के रोटरी वेल्डिंग दंडों पर रोटरी फ्रिक्शन वेल्डिंग मशीन का उपयोग करते हुए दो स्थितियों की तुलना की। प्रथम, समतल-समतल अंतराफलक जिसमें समतल सिरों वाले मानक दंडों (स्टैण्डर्ड रॉड) का प्रयोग किया गया, एवं द्वितीय समतल-टेपर अंतराफलक जिसमें टाइटेनियम दंड को एक सिरे पर टेपर किया गया। दोनों ही स्थितियों में एक पतली निकेल परत को SS321 एवं Ti64 दंडों के मध्य स्थापित किया गया। 

वेल्डिंग करने के पश्चात प्रतिरूपों (सैंपल) को जोड़ की परिधि पर काट कर पृथक किया गया तथा उच्चतम तापमान एवं विरूपण का सामना करने वाले इस भाग का इलेक्ट्रॉन बॅक स्कैटर्ड डिफरेक्शन (EBSD) के माध्यम से परीक्षण किया गया। EBSD पदार्थ की विभिन्न अवस्थाओं, क्रिस्टलीय कणों के आकार एवं अभिविन्यास (ओरिएंटेशन), तथा आंतरिक तनाव मात्रा की जानकारी प्रदान करता है। उन्होंने वेल्ड किये गए दंड पर तन्यता परीक्षण (टेंसाइल टेस्ट) भी किया, जिसमें जोड़ की शक्ति को मापने हेतु इस पर तनाव को तब तक बढ़ाया जब तक वे टूट नहीं गए। उन्होंने एनर्जी डिस्पर्सिव स्पेक्ट्रोस्कोपी (EDS) से युक्त स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप (SEM) के द्वारा भंग (फ्रैक्चर्ड) सतहों का परीक्षण भी किया की, जो धातुओं की बंध प्रक्रिया (बॉन्डिंग) के समय बनने वाली सतह संरचनाओं एवं किसी भी सूक्ष्म रासायनिक अवस्थाओं को प्रदर्शित कर सकता है।

शोधदल ने सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने हेतु टेपर की लंबाई एवं कोण जैसे विभिन्न मापदंडों को भी परिष्कृत किया। विशेषकर, उन्हें दोषों से मुक्त एकसमान फ्लैश को प्रतिधारित (रिटेंशन) करना था, निकेल के अंत:स्तर की मोटाई को बनाये रखने से सम्बन्धित अनुकूलन करना था, अंतराफलक (इंटरफ़ेस) पर अत्यधिक ऊष्मा के उत्पादन को रोकना था तथा टेपर की लंबाई एवं न्यूनतम युग्मन व्यास (मेटिंग डायमीटर) का निर्धारण करना था। उन्होंने इन मापदंडों को सावधानीपूर्वक अनुकूलित किया ताकि दो धातुओं के मध्य एक सुदृढ़ वेल्ड बनाया जा सके।

 

वेल्डिंग संधि के चित्र: (a) SS321- Ni अंत:स्तर (b) संशोधित मेटिंग अंतराफलक (c) समतल - टेपर: संशोधित अंतराफलक ज्यामिति (d) समतल - समतल: अंतराफलक ज्यामिति। स्रोत: https://doi.org/10.1016/j.dt.2024.12.010

 

प्रयोगों के परिणाम विलक्षण थे। पारंपरिक समतल-समतल जोड़ की तुलना में समतल-टेपर ज्यामिति, फ्लैश को पकड़ कर रखने के साथ-साथ पांच गुना अधिक मोटे निकेल अंत:स्तर को बनाये रखने में भी अत्यधिक प्रभावी सिद्ध हुई। समतल-टेपर जोड़ का EBSD एवं EDS विश्लेषण बताता है कि प्रतिधारित निकेल का मोटा अंत:स्तर लोहे तथा टाइटेनियम को परस्पर मिश्रित नहीं होने देता। इस प्रकार यह भंगुर (ब्रिटिल) प्रकृति के Fe-Ti अन्तराधात्विक यौगिक (IMCs) के गठन को रोकता है। जबकि पारंपरिक विधियों में यह गठन अंतराफलक को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।

समतल-टेपर अंतराफलक वाले जोड़ों की तन्यता शक्ति (टेंसाइल स्ट्रेंथ) में भी महत्वपूर्ण उन्नति देखी गई। यह औसत रूप से 334.7 मेगापास्कल (MPa) थी, जो पारंपरिक समतल-समतल अंतराफलक वाले जोड़ो की तन्यता शक्ति 163.3 मेगापास्कल की तुलना में 105% अधिक है। भंग सतहों (फ्रैक्चर्ड सरफेस) का अध्ययन अर्थात फ्रैक्टोग्राफी, इसके कारणों की पुष्टि इस प्रकार करता है: समतल-समतल जोड़ भंगुर विफलता (ब्रिटिल फेलियर) को प्राप्त हुआ जिसके प्रमाण अंतरामिश्रण (इंटरमिक्सिंग) से जन्में Fe-Ti अन्तराधात्विक यौगिक (IMC) के रूप में प्राप्त हुए। इसके विपरीत समतल-टेपर जोड़ Ni-Ti अंतराफलक पर प्राथमिक रूप से विफल रहा, किंतु इसमें लोहे की महत्वपूर्ण उपस्थिति नहीं थी। यह दर्शाता है कि Ni अंत:स्तर (इंटरलेअर) दृढ़ता पूर्वक टिका रहा।

सूक्ष्म-संरचनात्मक (माइक्रोस्ट्रक्चरल) विश्लेषण से यह भी ज्ञात हुआ कि गुहा (कैविटी) में प्रतिधारित (रिटेन्ड) फ्लैश ने डायनामिक रीक्रिस्टलाइज़ेशन नामक एक घटना का भी सामना किया। अत्यधिक तापमान एवं दबाव के अंतर्गत धातुएं डायनामिक रीक्रिस्टलाइज़ेशन अवस्था को प्राप्त कर सकती हैं, जिसमें उनके कणों (ग्रेन) की संरचना का पुनर्गठन या पुनर्क्रिस्टलीकरण सूक्ष्मतर एवं अधिक अनियमित क्रम में होता है, जबकि धातु अभी भी गर्म एवं विरूपित (डिफॉर्म) होता है। मानक (स्टैण्डर्ड) जोड़ की तुलना में इस नवीन पद्धति के द्वारा, विशिष्टत: टाइटेनियम सिरे पर अधिक सूक्ष्म (रिफाइन) कण प्राप्त हुए। वेल्ड की बढ़ी हुई तन्यता शक्ति में सूक्ष्म ग्रेन कणों का भी योगदान है। 

डॉ. मिश्रा का कहना है कि “विरूपण तनाव (डिफॉर्मेशन स्ट्रेन), तनाव दरों (स्ट्रेन रेट) एवं प्रक्रिया मापदंडों के अनुकूलन पर और अधिक शोध करने की आवश्यकता है ताकि रीक्रिस्टलाइज़ेशन को और अधिक परिष्कृत करते हुए जोड़ के प्रदर्शन को श्रेष्ठतम तक पहुंचाया जा सके”।

अध्ययन इंगित करता है कि एक सुदृढ़ वेल्डिंग जोड़ का समाधान केवल उसकी धातुओं में सन्निहित न होकर उनके मध्य निर्मित किये गये युक्तिपूर्ण आकार पर भी निर्भर करता है। यह अध्ययन विशिष्टत: स्टील-टाइटेनियम-निकेल संयोजन एवं इनके परिधीय गुणों पर आधारित है। अंतराफलक ज्यामिति का उपयोग कर फ्लैश एवं अंत:स्तर के व्यवहार को नियंत्रित करने में आकार परिवर्तन का मूल सिद्धांत उपयोगी है। विभिन्न पदार्थ प्रणालियों में फ्रिक्शन वेल्डिंग के अनुकूलित उपयोग के लिए यह सिद्धांत एक आशाजनक मार्ग प्रशस्त करता है।

 

“इस तकनीक को अन्य असमान पदार्थों के संयोजनों तक विस्तारित किए जाने की आवश्यकता है। आगे कुछ ऐसे मॉडल विकसित किये जाने की आवश्यकता है जो टेपर के कोण, अंत:स्तर की मोटाई एवं प्रक्रिया मापदंडों के प्रदर्शन के सामूहिक प्रभाव को ग्रहण कर सकें,” प्रा. श्रीवास्तव शोध की आगामी प्रगति के सम्बन्ध में चर्चा करते हैं।

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