कुछ अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिकों के समूह ने हाल ही के एक नए अध्ययन में बिहार में कुष्ठ रोग के निदान के लिए एक सरकारी सहायता प्राप्त कार्यक्रम की कुछ अप्रिय वास्तविकता का खुलासा किया है। साथ ही इस बात का अनुमान लगाया है कि कैसे इस कुष्ठ रोग का सटीक निदान हो सके। ये वैज्ञानिक डेमियन फाउंडेशन इंडिया ट्रस्ट, डेमियन फाउंडेशन, बेल्जियम, जवाहरलाल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्टग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, पुदुचेरी, इंटरनेशनल यूनियन फॉर ट्यूबरकुलोसिस एंड लंग डिजीज, फ्रांस और श्री मनकूला विनयगर मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल, पुदुचेरी के थे। इस अध्ययन के परिणाम प्लॉस समूह के एक सहायक पत्रिका उपेक्षित उष्णकटिबंधीय रोगों में प्रकाशित किए गए थे।
कुष्ठ रोग एक ऐसी बीमारी है जो त्वचा और परिधीय तंत्रिकाओं को प्रभावित करती है। यह एक पुराना संक्रमण है जो बैक्टीरिया माइकोबैक्टीरियम लेप्री के कारण होता है। हर साल विश्व के लगभग ६०% नए कुष्ठ रोग मामलों की दर्ज़ के साथ, भारत पर कुष्ठ रोग का सबसे अधिक बोझ है। रोग के प्रसार पर जाँच रखने के लिए, राष्ट्रीय कुष्ठ उन्मूलन कार्यक्रम (एनएलईपी) ने २०१६ में एक वार्षिक अभियान की शुरुआत की, जिसमें संक्रमण वाले क्षेत्रों में कुष्ठ रोग के मामलों का पता लगाया जा सके। हालाँकि, इस कदम के साथ एक महत्वपूर्ण चुनौती जुड़ी हुई है क्योंकि बहुत सारे लोग जिनको ये रोग नहीं होता उनको भी गलत जांच के कारण कुष्ठ रोग का मरीज़ बताया जाता है।
वर्तमान अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने बिहार के चार जिलों के आठ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पी एच सी) में २०१६ और २०१८ के कुष्ठ निरोधी अभियानों के तहत इस तरह की झूठी सकारात्मकता के अनुपात का अनुमान लगाया। बिहार उन राज्यों में से एक है जहां हर साल देश के १५ -२०% नए कुष्ठ रोग के मामले सामने आते हैं।
वैज्ञानिकों ने पाया कि यद्यपि दो वर्षों के बीच उन आठ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में निदान किए गए कुष्ठ रोग के मामलों की कुल संख्या में ६२% की गिरावट थी, लेकिन बीमारी कि जांच और उसको पता लगाने का तरीका सही नहीं था। २०१६ में निदान किए गए लगभग ३०% मामले गलत थे।
"बीमारी न होने पर भी बीमारी की मार झेलना पड़ता हैं जिसके कारण अनावश्यक दवा, सामाजिक कलंक, अलगाव, भेदभाव के साथ-साथ कई बार रोजगार तक से हाथ धोना पड़ सकता है, जो रोगियों और उनके परिवारों को काफी मानसिक आघात और पीड़ा देता है", लेखकों ने गलत निदान से जुड़ी समस्याओं के बारे में कहा।
वैज्ञानिकों ने २०१८ के अभियान से पहले प्रशंसनीय जांच नामक एक दृष्टिकोण पेश किया और पी एच सी के स्वास्थ्य कर्मचारियों को उसमें शामिल किया। "प्रशंसात्मक जाँच एक प्रक्रिया है जो समस्या की पहचान, रक्षात्मकता और कार्यक्रम की ताकत को नकारने के बजाये इस बात पर बल देता है कि कैसे किसी स्थिति या फिर संदर्भ में अच्छी तरह से काम किया जाये ", लेखक ऐसा समझाते हैं। इस दृष्टिकोण ने कर्मचारियों के लिए प्रेरणा के रूप में कार्य किया और निम्न और मध्यम आय वाले देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों की स्थिरता बढ़ाने में मदद की।
प्रशंसनीय जांच शुरू होने के बाद, वैज्ञानिकों ने पाया कि बीमारी के झूठे मामलों में, २०१६ में जहाँ हर ३ में से एक (२९.६%) मामला होता था अब वही २०१८ में चार मामलों (२३.४%) में से एक मामला ही गलत होता है। हालांकि यह सुधार सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण नहीं है परन्तु वैज्ञानिकों का मानना है कि यह इस दृष्टिकोण के संभावित लाभों को उजागर करता है।
"प्रशंसनीय जांच ने बीमारी के गलत जांच वाले मामलों को कम करने में एक भूमिका निभाई हो सकती है, और यह परिवर्तन दोहरा प्रशिक्षण, सहायक पर्यवेक्षण और निगरानी के माध्यम से भी हो सकता है", ऐसा लेखक तर्क देते हैं।
यह अध्ययन कुष्ठ रोग का पता लगाना वाले अभियान (एलसीडीसी) की कमियों को दूर करने के लिए सभी निदान प्रक्रियाओं का सत्यापन करने कि आवश्यकता का दृढ़ता से समर्थन करता है। "हम दृढ़ता से मानते हैं कि डेमियन फाउंडेशन इंडिया ट्रस्ट द्वारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की सीमित संख्या में किए गए सत्यापन अभ्यास ने एक महत्वपूर्ण परिचालन समस्या की पहचान करने में मदद की है, और इसलिए इसे भारत के अन्य सभी जिलों और राज्यों में किया जाना चाहिए", लेखकों ने अंत में ऐसा निष्कर्ष निकाला है ।