“भारत में मानसिक रोगों की व्याप्तता वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक में से है। हमारे राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2016 में पाया गया कि भारत की लगभग 14% आबादी को सक्रिय मानसिक स्वास्थ्य हस्तक्षेप की आवश्यकता थी। लगभग 2 प्रतिशत गंभीर मानसिक विकारों से पीड़ित थे। हर वर्ष लगभग 200,000 भारतीय अपनी जान ले लेते हैं। यदि आत्महत्या के प्रयास वाले मामले शामिल किये जाएँ तो संख्या और अधिक बढ़ जाती है ... ये चिंताजनक आँकड़े हैं ... यह एक संभावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी का संकेत है।"
राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने 2017 में मानसिक स्वास्थ्य की विश्व कांग्रेस (वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ मैन्टल हैल्थ) के उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए यह गंभीर चिंता व्यक्त की थी। यध्यपि तेजी से बढ़ते शहरीकरण और आर्थिक उछाल की मज़बूत पकड़ ने भारत को दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना दिया है, आंकड़े बताते हैं कि यहाँ अवसाद की दर भी उच्चतम दरों में से एक है। सात में से एक भारतीय किसी न किसी मानसिक पीड़ा से त्रस्त है, और यह संख्या 1990 से 2017 की अवधि में दोगुनी हो गई है।
किसी देश पर रोग के प्रभाव को कैसे परिमाणित किया जाता है? इसकी गणना करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन दो प्रकार के डाटा पर निर्भर करता है: वर्षों की संख्या जो रोग के परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की शीघ्र मृत्यु के कारण जीवन काल में से कम हुई (वाईएलएल या जीवन काल के वर्षों में कमी); और व्यक्ति की रोग के साथ जिए गए वर्षों की संख्या (वाईएलडी या विकलांगता के साथ जिए गए वर्ष)। इन दोनों का योग विकलांगता-समायोजित जीवन वर्ष (डीएएलवाई) देता है , जहां एक डीएएलवाई अस्वस्थता के एक वर्ष के बराबर होता है। इस विधि को रोग का भार (बर्डन ऑफ डिज़ीज़) कहा जाता है।
द लांसेट में प्रकाशित शोध में भारत में मानसिक विकारों के राज्यवार भार का वर्णन है। अध्ययन में राज्यों को उनके सामाजिक-जनसांख्यिकीय सूचकांक के अनुसार वर्गीकृत किया गया, जो प्रत्येक राज्य के प्रगति स्तर को दर्शाता है। शोधकर्ताओं ने आय, शिक्षा और प्रजनन दर का उपयोग करते हुए सूचकांक की गणना की। अध्ययन से पता चला कि अधिक आबादी वाले अधिकांश भारतीय राज्य प्रगति सूचकांक में पिछड़े हुए हैं। इसमें प्रत्येक राज्य के सामाजिक-जनसांख्यिकीय सूचकांक के अनुसार देश के भीतर मानसिक विकारों को वर्गीकृत किया गया।
अध्ययन में पाया गया कि लगभग साढ़े चार करोड़ (पैंतालीस मिलियन) भारतीयों को 2017 में अवसादग्रस्तता संबंधी विकारों का सामना करना पड़ा, जिनमें कुछ राज्यों की स्थिति और राज्यों से अधिक बुरी थी। महाराष्ट्र और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों-सहित, अधिकांश दक्षिणी राज्यों में मध्य और उत्तर भारत की तुलना में अवसाद के रोगियों की संख्या अधिक थी। अध्ययन में बताया गया कि केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मणिपुर, और पश्चिम बंगाल में चिंता विकारों की व्याप्तता सबसे अधिक थी।
यह अध्ययन दक्षिणी और पूर्वोत्तर भारत के आर्थिक रूप से अग्रगामी क्षेत्रों में अवसाद और चिंता के रोगियों की अधिक संख्या की ओर इंगित करता है (चित्र 1 और 2)। यद्दपि यह वास्तविकता का प्रतिबिम्ब हो सकता है, परन्तु विचार करने वाली बात यह है कि क्या उत्तर और मध्य भारत की घनी आबादी वाले राज्यों में अवसादग्रस्तता और चिंता विकारों के रोगियों की कम संख्या इन क्षेत्रों में जागरूकता और गहन निदान की कमी के कारण है।
एक लिंग-आधारित विश्लेषण से पता चला कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में अवसादग्रस्तता और चिंता विकारों की व्याप्तता अधिक थी। अध्ययन में यह भी पाया गया कि 45 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में अवसादग्रस्तता संबंधी विकारों का खतरा अधिक था। लगभग 3% महिलाएं और 3.8% पुरुष उत्पीड़न के शिकार होने के कारण अवसाद से पीड़ित थे। जबकि 8.3% महिलाएं और 5% पुरुष बचपन में यौन शोषण के कारण अवसाद से पीड़ित थे। महिलाओं में खाने के विकार की व्यापकता पर भी लेखक चर्चा करते हैं। यद्दपि इस डेटा के पीछे के कारण बुरी आत्म-छवि या सहकर्मी दबाव होते हैं, परन्तु रूढ़िवादी सांस्कृतिक मानदंड, जैसे परिवार में सबसे अंत में महिलाओं का भोजन करना , भी योगदान कारक हो सकते हैं।
चित्र 1: जनसंख्या के साथ-साथ भारत का सामाजिक-जनसांख्यिकीय सूचकांक। द लांसेट द्वारा भारत के विभिन्न राज्यों में मानसिक विकारों के बोझ पर किये गये शोध के डेटा से लेखकों द्वारा बनाई गयी छवि।
चित्र 2: भारत के विभिन्न राज्यों में मानसिक विकारों के बोझ पर द लांसेट द्वारा अनुसंधान के माध्यम से डेटा।
देश के अपेक्षाकृत गरीब राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और असम में एक और चिंताजनक मानसिक विकृति बच्चों को चपेट में ले रही है - विकास संबंधी बौद्धिक विकलांगता। द लांसेट में प्रकाशित शोध के अनुसार इन राज्यों में 10.8% बच्चों के मस्तिष्क के विकास में कमी पायी गयी। इस विकार के लिए सीसा धातु की विषाक्तता ही एकमात्र कारक है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य पोर्टल पर चेतावनी दी गयी है कि कम मात्रा (5 ug/dL) में भी सीसा धातु बच्चों में सीखने की अक्षमता के विकार का कारण बन सकता है। एक अन्य अध्ययन में कहा गया है कि भारत में बच्चों के रक्त में सीसे का स्तर 6.55–7.26 ug / dL के बीच था, जिससे दस वर्ष तक के बच्चों की प्रज्ञा लब्धि (आईक्यू) में चार अंकों तक की कमी आई थी।
जहाँ छोटे बच्चे सीसा धातु के विषाक्तीकरण से प्रभावित हैं, वहीं वयस्क मादक द्रव्यों के सेवन, शराब और अवैध दवाओं के संकटमय दुरुपयोग से पीड़ित हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के एक विभाग, नेशनल ड्रग डिपेंडेंस एंड ट्रीटमेंट सेंटर ने भारत में मादक द्रव्यों के सेवन का सर्वेक्षण किया। उन्होंने देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 4.7 लाख घरों से जानकारी एकत्रित की । इसके अतिरिक्त , उन्होंने अवैध दवाओं के दुरुपयोग की लत से पीड़ित लगभग सत्तर हजार व्यक्तियों का सर्वेक्षण किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि 14.6% भारतीय शराब का सेवन करते हैं, जिनमें से 5.2 % अर्थात अनुमानित 5.7 करोड़ लोग शराब पर गंभीर रूप से निर्भर हैं।
द लांसेट में प्रकाशित एक अन्य शोध से पता चलता है कि कम उम्र में शराब का उपयोग शराब निर्भरता विकारों की संभावना को बढ़ाता है। प्रत्येक राज्य में 4000 घरों को लक्षित करते हुए एक देशव्यापी सर्वेक्षण किया गया। सर्वेक्षण में पाया गया कि लगभग 2.8% आबादी भांग के विभिन्न रूपों का, 1.14% हेरोइन का, 0.52% अफीम का, 0.96% कृत्रिम नशीले पदार्थ (सिंथेटिक ओपिओइड) का, और 1.08% शामक का दुरुपयोग करती है। किशोरों की आबादी ( 1.17 %), वयस्कों की तुलना (0.58%) में कश खींचनेवाले द्रव्यों का अधिक प्रयोग करती है। अन्य दवाओं, जैसे कोकीन (0.1%), एम्फ़ैटामीन (0.18%), और मतिभ्रामकों (हैलूसिनोजैन) (0.12%) का दुरुपयोग भारत में अति अल्प है। रिपोर्ट में इंजेक्शन के द्वारा सेवन किये जाने वाली नशीली दवाओं की एक अलग श्रेणी भी सूचीबद्ध की गई। आबादी का यह अंश न केवल नशीली दवाओं के प्रतिकूल प्रभावों से ग्रस्त है, बल्कि त्रुटिपूर्ण विधि से इंजेक्शन लगाने से उत्पन्न होने वाली अन्य बीमारियों के जोखिम से भी पीड़ित है। हमने चित्र 3 में विभिन्न प्रकार के मादक द्रव्यों के सेवन के कारण सबसे अधिक विपत्ति-ग्रस्त राज्यों को दिखाया है।
चित्र 3: भारत में मादक द्रव्यों के सेवन से सबसे अधिक प्रभावित राज्य। मादक द्रव्यों के सेवन पर राष्ट्रव्यापी रिपोर्ट के डेटा से लेखकों द्वारा बनाई गई छवि।
द लांसेट में प्रकाशित शोध में निष्कर्ष निकला कि गरीबी, अशिक्षा और शहर में निवास, भारत में मादक द्रव्यों के सेवन के मुख्य कारक हैं। अध्ययन के लेखकों का कहना है कि उच्च आय वाले देशों के विपरीत, जहां विवाह के परिणामस्वरूप मानसिक विकारों की घटनाएं कम होती हैं , भारतीय महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों में विवाह भी है। इस विशेष अंतर के कारणों पर चर्चा करते हुए, लेखक लिखते हैं,
“यह अंतर भारतीय परिवारों में महिलाओं के पारंपरिक रूप से निम्न सामाजिक पद और भारत में विवाहिताओं के साथ व्यापक स्तर पर घरेलू हिंसा (लगभग 40%), जो महिलाओं में सामान्य मानसिक विकारों से जुड़ा एक मुख्य जोखिम कारक है, से संबंधित हो सकता है। पति द्वारा शराब का अत्यधिक सेवन और ससुराल वालों के साथ समस्याएं, विवाहित महिलाओं में सामान्य मानसिक विकारों से संबंधित अन्य कारकों में शामिल हैं। आपस में जुड़े कारकों का यह समूह एक ऐसा वातावरण बना सकता है जो विवाहित भारतीय महिलाओं में सामान्य मानसिक विकार उत्पन्न होने में योगदान देता है।”
कई भारतीय महिलाओं के लिए विवाह संताप का स्रोत हो सकता है, किन्तु बुढ़ापा सभी की पीड़ा बढ़ा देता है। भारत लंबे समय से एक पारंपरिक समाज रहा है जिसमें परिवार के कई सदस्य मिल कर घर के बड़ों की जिम्मेदारी संभालते थे। तेजी से बढ़ते शहरीकरण, एकल परिवारों और व्यावसायिक काम के अनियमित समय काल ने परिवार पर से ध्यान केन्द्र हटा दिया है, जिससे हमारे बुजुर्ग उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। भारत में बुजुर्ग आबादी लगातार बढ़ रही है, जहां 8.6% आबादी या 10.4 करोड़ (104 मिलियन) लोग 60 वर्ष से अधिक आयु के हैं।
2011 में सात भारतीय राज्यों- हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा , महाराष्ट्र, केरल और तमिलनाडु में किए गए एक अध्ययन से पता चला कि 60 साल से ऊपर के 40% बुजुर्ग किसी न किसी मनोवैज्ञानिक संकट से पीड़ित हैं, जिनमें 61.6% मामलों में शारीरिक या भावनात्मक शोषण मुख्य कारक है। गोवा में बुजुर्गों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में बच्चों पर निर्भरता के बोध के कारण चिंता विकारों की उपस्थिति रिपोर्ट की गई। दिल्ली में हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि बच्चों पर अत्यधिक वित्तीय और भावनात्मक निर्भरता के कारण बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार का खतरा बढ़ जाता है।
इन सभी अध्ययनों का कड़वा सच यह है कि हम बुजुर्गों के मनोवैज्ञानिक दबाव पर बहुत कम ध्यान देते हैं। कुछ चुनिंदा राज्यों तक सीमित छोटे सर्वेक्षणों की छिटपुट रिपोर्टों से पता चलता है कि हम बुजुर्ग आबादी में मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी करते हैं। एक देश के रूप में हम मानसिक तनाव के कारणों के बारे में जानकारी की कमी से भी ग्रस्त हैं, जो 2011 की डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट से स्पष्ट है, जहां हेल्पएज इंडिया की शुभा सोनेजा लिखती हैं,
“प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ताओं के साथ चर्चा से यह उजागर हुआ है कि वे बुजुर्ग रोगियों के साथ दुर्व्यवहार पर ध्यान नहीं देते हैं। वे इसे स्वास्थ्य संबंधी मुद्दा नहीं मानते हैं और न ही उन्हें उसमें हस्तक्षेप करने की आवश्यकता महसूस होती है और न ही वे इस दुर्व्यवहार को कम करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि वे इसे स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे की बजाय सामाजिक समस्या मानते हैं।”
युवा आबादी विकासात्मक विकारों से पीड़ित हो रही है, और बुजुर्ग आबादी अवसाद और चिंता का शिकार हो रही है। अच्छे स्वास्थ्य का रखरखाव अभी भी देश में विलासिता का द्योतक है। भारत की आबादी 130 करोड़ है, जबकि संसाधन सीमित हैं। दुनिया में सबसे बड़ी और वैविध्यपूर्ण आबादी में से एक की मानसिक स्वास्थ्य देखभाल के लिए हमें नीतियों और अवसंरचनात्मक सुविधाओं की आवश्यकता है। इस श्रृंखला के अगले भाग में हम भारत में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल सेवा के बुनियादी ढांचे और सरकारी कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करेंगे।