पार्किंसन रोग का उसके प्रारंभिक चरण में पता लगाने हेतु, चलने की शैली के गणितीय विश्लेषण का उपयोग करता एक नवीन अध्ययन।

भारतीय रसोईघरों में केरोसीन से क्षय रोग को बढ़ावा मिल सकता है

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पुणे
23 अप्रैल 2019
भारतीय रसोईघरों में केरोसीन से क्षय रोग को बढ़ावा मिल सकता है

हमारे शहरों में प्रदूषण का स्तर सदा सुर्खियों में रहता है, परन्तु घरों के अंदर का खतरनाक प्रदूषण शायद ही कभी किसी का ध्यान आकर्षित करता है। घर में वायु प्रदूषण दैनिक गतिविधियों के कारण होता है जैसे कि जलाऊ लकड़ी से खाना बनाना, धूम्रपान करना, धूल उड़ाना या मिट्टी के तेल के चूल्हे का उपयोग करना। हाल ही के एक अध्ययन में, जॉन्स हॉपकिन्स स्कूल ऑफ मेडिसिन, और बायरामजी जीजीभॉय सरकारी मेडिकल कॉलेज, पुणे के शोधकर्ताओं ने यह समझने की कोशिश की है कि घरेलू वायु प्रदूषण क्षय रोग को कैसे प्रभावित कर सकता है। अध्ययन को ऑक्यूपेशनल एंड एनवीरोमेन्टल मेडिसिन पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।

घर में जलती हुई लकड़ी, तंबाकू, बायोमास और अन्य ईंधनों से निकलने वाले धुएँ से दमा, श्वसन संक्रमण और फुफ्फुसीय रोगों सहित कई विकृतियाँ पैदा होती हैं। 2012 में प्रकाशित एक अध्ययन की मानें तो भारत में अभी भी लगभग तीन-चौथाई घरों में खाना पकाने के लिए ईंधन के रूप में बायोमास का उपयोग किया जाता है और देश में दस करोड़ से अधिक धूम्रपान करने वाले लोग हैं। इसलिए ऐसे प्रदूषकों से उत्पन्न होने वाले स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तत्वों का आकलन करना अत्यंत आवश्यक है। दूसरी ओर, 2016 के आंकड़ों के हिसाब से दुनिया में सबसे ज़्यादा क्षय रोग के मरीज़ (27 लाख उनासी लाख क्षय रोग) भारत में ही हैं।

इस दोहरी दुविधा का सीधा असर सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों पर पड़ता हैं और इसी बात को समझने की कोशिश इस अध्ययन में की गई है। लेखकों का कहना है कि "जहाँ तक हमको मालूम है, यह पहला अध्ययन है जिसमें घरेलू पार्टिकुलेट मैटर (पीएम-2.5) को नापकर घरेलू वायु प्रदूषण और क्षय रोग के बीच के संबंध का विस्तार पूर्वक आकलन किया गया है।" अध्ययन को आंशिक रूप से जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डी बी टी) और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आई सी एम आर) द्वारा वित्त पोषित किया गया था।

वैज्ञानिकों ने 192 व्यक्तियों को इस अध्ययन के लिए चुना जिनमें वयस्क और बच्चे दोनों शामिल थे। जिनमें से कुछ को क्षय रोग था और कुछ को नहीं। ये व्यक्ति ज़्यादातर 10,000 से कम मासिक आय वाले घरों से थे और उनके घरों में औसतन केवल दो कमरे थे। उनमें से लगभग आधे लोगों ने खाना पकाने के लिए लकड़ी और मिट्टी के तेल का इस्तेमाल किया और एक अलग रसोईघर के बिना, रहने की जगह में ही खाना पकाया। वैज्ञानिकों ने पार्टिकुलेट मैटर की सांद्रता मापी, जो आकार में 2.5 माइक्रॉन से कम व्यास (1μm = एक मीटर का दस लाखवां हिस्सा) वाले थे। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि खाना पकाने के ईंधन के अलावा, प्रदूषक के अन्य स्रोत भी थे जैसे पड़ोस में कचरे का जलना, धूपबत्ती और मच्छर कॉइल का उपयोग करना। फिर उन्होंने इन प्रदूषकों और क्षय रोग से ग्रसित या बीमारी रहित व्यक्तियों के बीच के संबंध का सांख्यिकीय विश्लेषण किया।

अध्ययन में पाया गया  है कि क्षय रोगियों और स्वस्थ लोगों के घरों में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम-2.5) की सान्द्रता, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सुझाई गई मात्रा की तुलना में पांच से सात गुना अधिक थी। हालांकि अन्य देशों में पिछले कई अध्ययनों ने इस प्रदूषण को क्षय रोग के बढ़ते जोखिम के साथ जोड़ा है, लेकिन इस अध्ययन में दोनों के बीच कोई महत्वपूर्ण संबंध नहीं पाया गया है। हालांकि, उन्होंने पाया कि मिट्टी के तेल के उपयोग का क्षय रोग के साथ सकारात्मक संबंध था। "इस अध्ययन के परिणाम पिछले कई सारे सबूतों से मिलते हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि घरेलू प्रदूषण विशेष रूप से मिट्टी के तेल से होने वाला प्रदूषण जो की ईंधन के रूप में खाना बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, क्षय रोग के लिए एक बड़ा जोखिम का कारण बन सकता है", ऐसा लेखकों का कहना है।

दिलचस्प बात यह है कि नेपाल में एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि जिन घरों में खाना पकाने के लिए मिट्टी के तेल का इस्तेमाल होता है उनमें क्षय रोग होने की सम्भावनाएँ, रसोई गैस का इस्तेमाल करने वाले घरों की तुलना में तीन गुना अधिक होती है। लेखक विस्तार  से बताते हुए कहते हैं कि " मिट्टी के तेल केदहन द्वारा उत्सर्जित अत्यंत महीन कण फेफड़ों में गहराई से जमा हो जाते हैं क्योंकि वे फेफड़ों की निकासी तंत्र से आसानी से बचकर निकल सकते हैं", और वो यह भी बताते हैं की यह अत्यंत महीन कण जानवरों में ऊतक सूजन और ऑक्सीडेटिव तनाव का कारण होते हैं। "(डब्ल्यूएचओ) विश्‍व स्वास्थ्‍य संगठन ने खाना पकाने के ईंधन के रूप में मिट्टी के तेल के उपयोग के खिलाफ सिफारिश की है क्योंकि मिट्टी के तेल के दहन से नाइट्रस ऑक्साइड, पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन और सल्फर डाइऑक्साइड बहुत भारी  मात्रा में उत्पादित होते हैं जो विश्‍व स्वास्थ्‍य संगठन के अंतर्राष्ट्रीय मानकों से कहीं ज्यादा अधिक है और इसीलिए प्रतिकूल श्वसन बिमारियों का कारण बनते हैं"

यद्यपि वर्तमान अध्ययन में घरों में पार्टिकुलेट मैटर (पीएम-2.5) की सान्द्रता और क्षय रोग के बीच सांख्यिकीय रूप से किसी महत्वपूर्ण संबंध का पता नहीं चलता है, परन्तु फिर भी इन घरेलू प्रदूषकों का उचित मूल्यांकन तथा उनसे जुड़े संभावित बिमारियों की विस्तृत जानकारी का होना ज़रूरी है। "क्षय रोग के जोखिम कारकों को समझने से क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रमों को उन लोगों की पहचान करने में मदद मिलेगी जो सबसे ज़्यादा बीमारी के जोखिम में हैं",  लेखकों ने निष्कर्ष निकाला।