क्षय रोग के प्रसार को नियंत्रित करना भारत के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती रही है, क्योंकि क्षय रोग के विश्व के एक चौथाई से ज़्यादा मामले यहाँ मिलते हैं। क्षय रोग बैक्टीरिया में तेज़ी से दवा-प्रतिरोध के चलते यह स्थिति और ज़्यादा बढ़ गई है। २०१७ तक, भारत में, बहुदवा-प्रतिरोधी क्षय रोग के १,४७,००० मामले दर्ज किए गए। हालाँकि सरकार ने इसे नियंत्रित करने के उद्देश्य से संशोधित राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण जैसे कार्यक्रम की पहल की है लेकिन संतोषजनक परिणाम नहीं मिले हैं। दवा-प्रतिरोधी क्षय रोग का सामना कर रहे प्रति व्यक्ति की बाधाओं को समझकर इस बीमारी के प्रसार से निपटने का एक नया रास्ता मिल सकता है।
हाल ही के एक अध्ययन में मुंबई के मेडिकल रिसर्च फाउंडेशन के शोधकर्ताओं ने क्षय रोग से ग्रस्त प्रत्येक व्यक्ति को उपचार प्रक्रियाओं के दौरान सामना की जाने वाली विभिन्न चुनौतियों को समझने की कोशिश की है। शोधकर्ताओं ने क्षय रोग की देखभाल के लिए विशेषीकृत मुंबई में १५ नगरपालिका वार्डो से दवा-प्रतिरोधी क्षय रोग से पीड़ित ४६ रोगियों का साक्षात्कार लिया। इस अध्ययन को बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन द्वारा वित्त सहायता मिली थी और अध्ययन के निष्कर्ष प्लास वन पत्रिका में प्रकाशित हुए थे।
शोधकर्ताओं ने पाया कि अक्सर बहु-दवा प्रतिरोधी क्षय रोगियों को निजी और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बीच झूलना पड़ता है और प्रत्येक रोगी की अपनी अलग कहानी थी। उनमें से कईयों के लिए क्षय रोग एक अज्ञात बीमारी नहीं थी। हालाँकि इन लोगों ने इलाज कराने की बजाय क्षय रोग के लक्षणों को नज़रअंदाज़ किया, और स्थिति खराब होने तक इन्तज़ार किया। हैरानी की बात उन लोगों की भी थी जिन्हें पहले क्षय रोग था, उन्होंने भी ऐसी ही स्थिति खराब होने तक इन्तज़ार किया था।
अध्ययन में पाया गया कि इस बीमारी के लिए कई रोगियों ने अपने पास के अस्पताल या अपने परिचित चिकित्सक से सम्पर्क किया क्योंकि यह उनके लिए ज़्यादा सुविधाजनक था। हालाँकि अधिकांश पड़ोसी चिकित्सक दवा-प्रतिरोधी क्षय रोग के मामलों को सम्भालने और उपचारित करने के लिए पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं होते हैं इस वजह से इलाज मिलने में देरी हो जाती है। अंत में इन रोगियों को उचित देखभाल के लिए कई स्वास्थ्य सुविधाओं और प्रयोगशालाओं में जाना पड़ता है जिसकी वजह से उपचार में देरी होती है।
शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि समय और सहनशीलता की कमी, काम का दबाव, निजी अस्पतालों के महंगे इलाज और चिकित्सकों में उचित मार्गदर्शन की कमी ऐसे रोगियों को अलग-अलग जगहों से मदद लेने के लिए मजबूर करती है। इस वजह से भी आगे उपचार और निदान में देरी हो सकती है।
अध्ययन में पाया गया कि हालाँकि सरकारी अस्पतालों में दवा-प्रतिरोधी क्षय रोग का इलाज मुफ्त में होता है लेकिन अधिकांश रोगी उपचार प्रक्रिया से सहज नहीं थे। इसका कारण यह है कि उन्हें दवा-प्रतिरोधी क्षय रोग के निदान और उपचार से जुड़ी जटिलताओं के बारे में नहीं बताया जाता है और साथ ही दवा से होने वाले दुष्प्रभाव के बारे में भी नहीं बताया जाता है।
लेखकों का सुझाव है कि संशोधित क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम जैसे कार्यक्रमों को लागू किया जाना चाहिए ताकि रोगी अपने पड़ोस में उपलब्ध उपचार के विकल्पों और इलाज पर खर्च होने वाली लागत को समझे। भले ही उनका उपचार निजी या सरकारी अस्पताल में हो या सामान्य चिकित्सक या विशेषज्ञ द्वारा किया जा रहा हो।
हमें मज़बूत स्वास्थ्य तंत्र की ज़रूरत है जिसमें निजी और सार्वजनिक क्षेत्र सहायक और पूरक के तौर पर एक-दूसरे के साथ समान रूप से भागीदारी से काम करें। उनका कहना है कि समुदाय को क्षय रोग के इलाज के विकल्पों के बारे में शिक्षित करना निहायत ज़रूरी है।
इस अध्ययन के निष्कर्ष २०२५ तक भारत से क्षय रोग का सफाया करने के सरकार के लक्ष्य में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
प्रशंसा की बात है कि यह अध्ययन न केवल मुंबई शहर में या न ही महाराष्ट्र राज्य में बल्कि बड़े पैमाने पर पूरे देश में क्षय रोग नियंत्रण में सुधार लाने में मदद करने की क्षमता रखता है।