शोधकर्ताओं ने द्वि-आयामी पदार्थों पर आधारित ट्रांजिस्टर निर्मित किये हैं एवं ऑटोनॉमस रोबोट हेतु अत्यंत अल्प-ऊर्जा के कृत्रिम तंत्रिका कोशिका परिपथ निर्मित करने में इनका उपयोग किया है।

एटोसेकंड भौतिकी में भारतीय योगदान

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Mumbai
21 नवंबर 2023
Attosecond

जब से मनुष्य ने सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म चीजों को और त्वरित से अतित्वरित घटनाओं को देखने की क्षमता हासिल की है तब से उसने एक नए आश्चर्यजनक संसार की खोज कर ली है। ऐसा कहा जाता है कि ब्रम्हांड एक अरब अरब वर्षों से अस्तित्व में है, लेकिन कभी आपने सोचा है कि एक सेकंड के एक अरब-अरबवें हिस्से में क्या हो रहा होगा? एक सेकंड के एक अरब-अरबवें हिस्से को “एटोसेकन्ड” कहा जाता है। और आज हम प्रकाश की कुछ दस-एटोसेकन्ड के अंतराल की स्पंद पैदा करने में सक्षम हैं। मनुष्य की इस क्षमता के पीछे आन ल’उईलिए, पियरे एगोस्टिनी, और फेरेंस क्रॉस्ज़ की अग्रणी वैज्ञानिक खोज का हाथ है, जिसके लिए उन्हें वर्ष २०२३ के नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित किया गया है।

ये हर्ष की बात है कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुम्बई (आईआईटी मुम्बई) के प्राध्यापक श्री गोपाल दीक्षित एटोसेकन्ड भौतिकी के क्षेत्र में सक्रिय योगदान दे रहे हैं।

उनका कहना है कि, “मुझे पूर्ण विश्वास था कि आज-नहीं-तो-कल एटोसेकन्ड भौतिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार दिया जायेगा। यह प्रकृति का एक आधारभूत विषय है और साथ ही इसमें क्वांटम प्रौद्योगिकियों की प्रगति में बढ़ावा देने की प्रबल संभावनाएं भी हैं।”

प्राध्यापक दीक्षित और उनके साथी एटोसेकन्ड भौतिकी के कई सैद्धांतिक और व्यावहारिक आयामों पर कार्य कर रहे हैं। वे ऐसी भौतिक समस्याओं का हल खोज रहे हैं जिनका समाधान नोबेल पुरस्कार विजेता व उनके सहयोगी एवं अन्य शोधकर्ता भी खोज रहे है।

एटोसेकन्ड स्पंदन: कैसे उत्पन्न किये जा सकते हैं, और वे क्या कर सकते हैं

१९९० के दशक में आन ल’उईलिए ने कुछही दोलनों वाले के प्रकाश के छोटे स्फुरण, जो कि कुछ सौ-एटोसेकन्ड लम्बे थे, बनाने की आधारशिला रखी। इस के लिए उन्होंने नियॉन जैसे निष्क्रिय गैस के परमाणुओं पर लेसर से प्रहार किया। जब लेसर परमाणुओं से टकराती है तब वह निष्क्रिय गैस के इलेक्ट्रॉनों को ऊर्जा प्रदान करती है। जब इलेक्ट्रॉन अवशोषित ऊर्जा का उत्सर्जन करते हैं तब विकिरित प्रकाश की आवृत्ति, प्रारंभिक लेसर की आवृत्ति से कई गुना अधिक होती है। परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनों द्वारा विकिरित प्रकाश की आवृत्तियों को सावधानी पूर्वक नियोजित करके एटोसेकन्ड स्पंदन बनाने में आन ल’उईलिए सफल रहीं। वर्ष २००१ में, इस शोध का उपयोग कर पियरे एगोस्टिनी ने स्पंदनों की एक शृंखला बनाने की तकनिकी विकसित की, जिसमें हर स्पंदन २५० एटोसेकन्ड का था। फेरेंस क्रॉस्ज़ ने स्वतंत्र रूप से ६५० एटोसेकन्ड का केवल एक स्पंदन विकसित किया।

प्रकाश के एक छोटे से स्पंदन को उत्पन्न करने की क्षमता कई संभावनाओं को जन्म देती है। जैसे, किसी पदार्थ में इलेक्ट्रॉनों के व्यवहार एवं उनके विचरण करने के बारे में जानकारी प्राप्त करना। आइन्स्टाइन ने पूर्वानुमान लगाया था कि जब किसी परमाणु पर प्रकाश पड़ता है, तो उसमें से इलेक्ट्रॉन मुक्त होते हैं। इस प्रक्रिया को फोटोआयनाइजेशन कहा जाता है। ऐसा माना जाता था कि जब इलेक्ट्रॉन प्रकाशीय ऊर्जा अवशोषित करता है तो वह तुरंत मुक्त हो जाता है। वर्ष २०१० में क्रॉस्ज़ ने एटोसेकन्ड स्पंदन के माध्यम से यह स्थापित किया कि इलेक्ट्रॉन को नियॉन के परमाणु से मुक्त होने में कुछ समय लगता है। उन्होंने पाया कि न केवल इलेक्ट्रॉनों के मुक्त होने की घटना तात्कालिक नहीं है - इलेक्ट्रॉन कुछ एटोसेकंड बाद मुक्त होते हैं - बल्कि यह भी पाया कि इलेक्ट्रॉनों के मुक्त होने में लगने वाला समय उनकी प्रारंभिक ऊर्जा पर भी निर्भर करता है। वर्ष २०११-१२ में आन ल’उईलिए ने यह प्रयोग आरगॉन हे साथ किया।

सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक परिणामों की तुलना

प्रयोगों के कुछ समय बाद तक, भौतिक विज्ञानी सिद्धांतों के आधार पर प्रयोगात्मक परिणामों की व्याख्या करने में असफल रहे थे। सन २०१३ में प्राध्यापक दीक्षित एवं उनके सहयोगियों के द्वारा प्रस्तावित सैद्धांतिक विधि से प्राप्त परिणाम, तीन में से दो प्रायोगिक परिणामों, जो आन ल’उईलिए ने प्राप्त किये थे, के समीप थे। इस तुलनात्मक अध्ययन से भौतिक विज्ञानियों में एक आत्मविश्वास पैदा हुआ कि प्रयोग से प्राप्त परिणाम सही हैं।

जैसे प्रकाश के स्पंदन से एक इलेक्ट्रॉन ऊर्जा अवशोषित कर उच्च ऊर्जा अवस्था में चला जाता है (फोटोआयनाइजेशन), उसी प्रकार यह ऊर्जा को प्रकाश के रूप में मुक्त भी कर सकता है (फोटोउत्सर्जन (एमिशन)), और एक परमाणु से जुड़ भी सकता है (फोटोपुनर्संयोजन (रीकॉम्बिनेशन))। वर्ष २०१४ में, एगोस्टिनी ने गैसीय आर्गन में इलेक्ट्रॉनों के फोटो उत्सर्जन और फोटो पुनर्संयोजन में लगने वाले समयों को मापा था। माप के दौरान उन्होंने ऐसा माना था कि फोटोआयनाइजेशन साधारण तौर पर फोटोपुनर्संयोजन की मात्र एक समय-उलट प्रक्रिया है। मौजूदा सैद्धांतिक रूपरेखा इन परिणामों को केवल आंशिक रूप से समझा सकती थी। प्राध्यापक दीक्षित के वर्ष २०१५ के आर्गन पर किये गए सैद्धांतिक शोध ने सफलतापूर्वक यह स्थापित किया कि वास्तव में फोटोआयनाइजेशन और फोटोरीकॉम्बिनेशन एक ही प्रक्रिया है जो समय को विपरीत दिशा में ले जाने से उलट जाती हैं।

प्राध्यापक दीक्षित बताते हैं, “एगोस्टिनी के प्रयोग की वैधता के पुष्टिकरण से एटोसेकंड-भौतिकी के समुदाय को एक विश्वास मिला कि फोटोआयनाइजेशन और फोटोरीकॉम्बिनेशन की प्रक्रियाओं में बीते समय को मापा जा सकता है।”

आण्विक प्रक्रियाओं के छायाचित्र एवं चलचित्र

एटोसेकंड स्पंदनों का उपयोग करके उप-परमाण्विक क्रियाओं के छायाचित्र निकालने के लिए वैज्ञानिक “पंप-प्रोब” विधि का इस्तेमाल करते हैं। एटोसेकंड-स्पंदन पैदा करने के लिए इलेक्ट्रॉनों को ऊर्जा देने के लिए जिस प्रकाशीय स्पंदन का प्रयोग किया जाता है उसे “पंप” स्पन्दन कहा जाता है। इसके बाद शोधकर्ता जिन परमाणुओं का अध्ययन करना चाहते हैं, उनके इलेक्ट्रॉनों द्वारा मुक्त या विकिरित किये गए प्रकाश से बने नमूने का अध्ययन करने के लिए प्रकाश के एक और स्पंदन का उपयोग करते हैं, जिसे “प्रोब” स्पन्दन कहा जाता है। फिर वे प्रयोग से संबंधित घटनाओं और प्रक्रियाओं के विषय में जानकारी एकत्र करने के लिए इस स्पन्दन की व्याख्या करते हैं।

प्राध्यापक दीक्षित टिप्पणी करते हैं कि, “एटोसेकंड पंप-प्रोब प्रयोग, इलेक्ट्रॉन की गति के बारे में समय अथवा आवृत्ति के रूप में जानकारी देते हैं। हालाँकि, शोधकर्ताओं का स्वप्न है कि वे इलेक्ट्रॉन की गति को त्री-आयामी चलचित्र की भांति वास्तविक समय में देख सकें। इसमें एक्स-रे हमारी मदद कर सकती है क्योंकि वह ठोस पदार्थों कि सतहों को भेद कर अंदर तक पहुँच सकती है। समय के आधार पर नमूनिकृत एक्स-रे विवर्तन एक बहु उपयोगी विधि है जो हमें समय के साथ होने वाले परिवर्तनों का निरीक्षण करने में मदद करती है। यह एक चलचित्र को संभव बनाती है।”

क्योंकि एक्स-रे इलेक्ट्रॉन के साथ परस्पर क्रिया करते हैं इसलिए वह चलचित्र में त्रुटि पैदा कर देती है। प्राध्यापक दीक्षित के द्वारा प्रस्तावित विधि इन त्रुटियों की क्षतिपूर्ति करके एक सही एवं साफ़ चलचित्र बनाने में मदद करती है जो खींची गयी छवियों को संकलित करके बनायी जा सकती है।

प्राध्यापक दीक्षित ने एक विधि भी स्थापित की है जो उत्पन्न एटोसेकंड स्पन्दन के ध्रुवीकरण की स्थिति का पूर्वानुमान लगा सकती है (ध्रुवीकरण की स्थिति वास्तव में प्रगमन की दिशा के सापेक्ष विद्युतीय और चुंबकीय दोलनों के अभिविन्यास को दर्शाता है)। पंप स्पन्दन के ध्रुवीकरण की स्थिति की जानकारी के माध्यम से किसी भी कण जैसे इलेक्ट्रॉन के बारे में विशिष्ट बातें पता चल सकती हैं। उदाहरण के लिए - यह पता लगाना कि किसी अणु में परमाणुओं की व्यवस्था दाएं हाथ कि है या बायें हाथ की। कुछ अणुओं (जिन्हें काईरल अणु कहा जाता है) में उन्हें बनाने वाले परमाणु दो अलग-अलग तरीकों से व्यवस्थित हो सकते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारे बाएँ और दाएँ हाथों की तरह, जो एकदूसरे के प्रतिबिम्ब हैं, इन्हें एक-के-ऊपर- एक रखकर जोड़ा नहीं जा सकता है। सटीक व्यवस्था को जानना महत्वपूर्ण है क्योंकि जहां एक व्यवस्था बहुत उपयोगी हो सकती है, जैसे कि औषधियों में, वहीं दूसरी अप्रभावी या विषाक्त।

एक अन्य कार्य में, प्राध्यापक दीक्षित और सहयोगियों ने पंप-प्रोब तकनीक के जरिये एक अणु के अंदर विद्युतीय आवेश के वितरण का अध्ययन किया जिससे अणुओं में इलेक्ट्रॉनों की गति को देखने में मदद मिलती है। इस खोज से जानकारी मिलती है कि जटिल रासायनिक अभिक्रिया में होने पर इलेक्ट्रॉनों का आदान-प्रदान कैसे होता है।

प्राध्यापक दीक्षित ने हाल ही में इस बात का अन्वेषण किया है कि पांच अणुओं वाली कार्बन और अन्य परमाणुओं से बनी वलयकारी सरंचनाओं से बने यौगिकों में विद्युतीय आवेशों की चाल कैसी होती है।

एटोसेकंड स्पन्दन के स्रोतों में सुधार

शुरुआती दौर के गैसों पर आधारित एटोसेकंड स्पन्दन के स्रोत जटिल प्रक्रिया का उपयोग करते थे और बहुत ही महँगे एवं विशाल थे। एटोसेकंड स्पंदनों को उपयोग में लाने के लिए उनके समयांतर, आवृत्ति, एवं ध्रुवीकरण पर अधिक नियंत्रण की आवश्यकता थी। प्रकाश के स्रोतों का भी सुवाहय़ (पोर्टेबल) होना आवश्यक था।

प्राध्यापक दीक्षित एवं उनके सहयोगी ठोस पदार्थों का उपयोग करके एटोसेकंड स्पन्दन उत्पन्न करने की योजना पर काम कर रहे हैं।

“ठोस पदार्थों का उपयोग करके एटोसेकंड स्पन्दन उत्पन्न करना एटोसेकंड भौतिकी और फोटोनिक्स के लिए क्रन्तिकारी है क्योंकि प्रयोग के उपकरण एवं सम्बद्ध व्यवस्स्था छोटी होगी और तीव्र एटोसेकंड स्पन्दन उत्पन्न किया जा सकेगा। भविष्य में, किसी विक्रेता से छोटा एटोसेकंड लेजर जनित्र खरीदना संभव हो सकता है, जैसे अभी अन्य लेजर स्रोत खरीदने संभव हैं, ” प्राध्यापक दीक्षित ने ऐसी आशा व्यक्त की।

साथ ही, उन्होंने एक सिद्धांत प्रस्तुत किया है जो प्रकाश के वांछित ध्रुवीकरण के साथ स्पंदन उत्पन्न करने में सक्षम हो सकता है।

एटोसेकंड-संचालित क्वांटम प्रौद्योगिकी

भले ही कंप्यूटर और अधिक तेज़ होते जा रहे हैं, “क्लॉक-स्पीड” (कंप्यूटिंग में प्रत्येक चरण जिस गति से होता है) एक सीमा तक पहुंच गई है। माना जाता है कि क्वांटम कंप्यूटिंग तकनीक वर्तमान की क्लॉक-स्पीड की सीमाओं को पार कर सकती है और गणना की गति में कई गुना वृद्धि कर सकती है।

प्राध्यापक दीक्षित के सहयोगियों ने सैद्धांतिक रूप से स्थापित किया है कि घूर्णन (स्पिन) नामक इलेक्ट्रॉनों का गुणधर्म, जो “ऊपर”; या “नीचे” हो सकता है, का उपयोग संभावित रूप से बहुत उच्च आवृत्ति दोलन उत्पन्न करने के लिए किया जा सकता है। इसका कंप्यूटर की क्लॉक के रूप में उपयोग किया जा सकता है। जिस तरह सिलिकॉन में नियंत्रित अशुद्धियों को मिलाने से जटिल और उच्च गति वाले इलेक्ट्रॉनिक परिपथ संभव हो गए, उसी तरह विशिष्ट पदार्थों में विशिष्ट दोष पैदा करने से पदार्थों के घूर्णन की स्थिति में बदलाव लाया जा सकता है। जब ऐसे पदार्थों पर प्रकाश डाला जाता है, तो इलेक्ट्रॉन मूल प्रकाश की तुलना में बहुत अधिक आवृत्तियों के दोलन उत्पन्न करते हैं।

प्रोफ़ेसर दीक्षित कहते हैं, “पहली बार, हमने दिखाया है कि इलेक्ट्रॉनों के स्पिन का उपयोग कर उनके दोलनों को वर्तमान की आवृत्तियों से बहुत अधिक आवृत्तियों पर नियंत्रित किया जा सकता है। इस विधि से, चतुराई से दोष पैदा किये गए पदार्थ पर लेजर के स्पन्दन से प्रोसेसर की क्लॉक-स्पीड को कम से कम एक हजार गुना बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है।”

उनके समूह का एक नवीनतम शोध इलेक्ट्रॉनों के एक अन्य गुणधर्म का पता लगाने और उसे नियंत्रित करने के लिए एक प्रकाशीय विधि को विकसित करने से संबंधित है, जिसे “वैली स्टेट्स” कहा जाता है। वैली स्टेट्स का उपयोग क्वांटम कंप्यूटिंग में गणना की इकाइयों या क्यूबिट्स को नापने में किया जा सकता है। क्यूबिट्स की अधिक गति से जानकारी और उसके नियंत्रण से क्वांटम कंप्यूटिंग की गति को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है।

अंत में प्राध्यापक दीक्षित कहते हैं कि, “किसी भी शोध का परम ध्येय मानव के जीवन स्तर में सुधार करना है। एटोसेकंड भौतिकी रसायनज्ञों को नए अणुओं की रचना करने में मदद कर सकती है, सामान्य तापमान पर टेबलटॉप क्वांटम कंप्यूटिंग को संभव बना सकती है तथा प्रारंभिक चरण में कैंसर का पता लगाने में भी मदद कर सकती है।”