पृथ्वी एवं मंगल ग्रह का जन्म एक ही ब्रह्मांडीय धूल के मेघ से हुआ और इन दोनों ग्रहों ने लगभग ४.५ अरब वर्ष पहले अपने ग्रहीय जीवन की शुरुआत एक साथ की थी। परंतु उनके विकास के मार्ग (इवोल्यूशनरी पाथ) में विलक्षण रूप से अंतर आ गया है। आज जहाँ पृथ्वी एक ऐसा नीला ग्रह है जो तरल जल और जीवन से भरा हुआ है, वहीं मंगल एक ठंडा, लाल मरूस्थल है। तथापि, मंगल के पृष्ठतल को बारीकी से देखने पर यह हमारे पृथ्वी के अतीत की भूवैज्ञानिक (जियोलॉजिकल) समानताओं को दर्शाता है। मंगल के उच्च प्रदेशों (हाइलैंड्स) में उपस्थित घाटियों के जटिल जाल (कॉम्प्लेक्स वैली नेटवर्क्स), प्राचीन डेल्टा एवं अवसादी भू-आकृतियाँ (सेडिमेंट्री लैंडफॉर्म्स) इस बात के संभावित प्रमाण हैं कि एक समय इस लाल ग्रह पर पानी का प्रवाह, हिमनद (ग्लेशियर) और यहाँ तक कि भूवैज्ञानिक सक्रियता (जियोलॉजिकल एक्टिविटी) भी उपस्थित थी।
“इन दोनों ग्रहों का प्रारंभ एक जैसी संरचनाओं और वायुमंडलों के साथ हुआ था। तो सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक यह है कि (मंगल का) वह सारा पानी कहाँ गया, और मंगल ने पृथ्वी की ही दिशा में विकास क्यों नहीं किया? इसलिए हम यह खोजना चाहते थे कि मंगल ने किस चरण में अपना पानी खो दिया था,” भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मुंबई के प्राध्यापक आलोक पोरवाल बताते हैं।
एक नए अध्ययन में प्रा. पोरवाल और उनके छात्र ने, अन्य महत्वपूर्ण संस्थानों के सहयोगियों के साथ कार्य करते, मंगल ग्रह के अतीत को समझने हेतु उसकी भूवैज्ञानिक विशेषताओं का परीक्षण किया। उनका अध्ययन मंगल ग्रह के एक प्राचीन क्षेत्र, थौमासिया हाइलैंड्स (उच्च प्रदेश) पर केंद्रित था। यह अध्ययन मंगल पर एक उष्ण-आर्द्र भूतकाल से ठंडे, हिममय भविष्य की ओर जलवायु में क्रमिक परिवर्तन को इंगित करता है। इन घाटियों के जालों का उपयोग भूवैज्ञानिक तापमानमापक और कालसूचक के रूप में करते हुए, उन्होंने इस क्षेत्र की भूवैज्ञानिक रूपरेखा मंगल के भूमध्य रेखा (इक्वेटर) से दूरी और समय के साथ कैसे परिवर्तित हुई इस विषय की खोज की।
“थौमासिया हाइलैंड्स एक ऐसा क्षेत्र है जो कुछ सीमा तक भारतीय उपमहाद्वीप जैसा है। यह भूमध्य रेखा से लेकर उच्च अक्षांशों तक विस्तारित है, इसलिए इसमें विभिन्न प्रकार की जलवायु और भौगोलिक स्थितियाँ उपस्थित हैं। इसमें बहुत प्राचीन भूवैज्ञानिक संरचनाएँ और अपेक्षाकृत नवीनतम विशेषताएँ दोनों ही सम्मिलित हैं, जिससे ग्रह का संपूर्ण दृश्यावलोकन संभव होता है,” प्रा. पोरवाल स्पष्ट करते हैं।
शोधकर्ताओं ने थौमासिया हाइलैंड्स में घाटियों के १५० से अधिक जटिल जालों का विश्लेषण करने के लिए अब तक के हाय-रिज़ॉल्यूशन ऑर्बिटल इमेजेस एवं एलीवेशन मॉडल्स का उपयोग किया। उन्होंने इसरो के मंगलयान (मार्स ऑर्बिटर मिशन) पर लगे मंगल ऑर्बिटर कैमरा के साथ-साथ नासा और ईएसए के ऑर्बिटर, अर्थात कक्षा यान से प्राप्त डेटा का भी उपयोग किया। इसके पश्चात् शोधदल ने सटीकता सुनिश्चित करने और प्राकृतिक स्थलाकृतिक भिन्नताओं (टोपोग्राफिक वेरिएशन्स) के कारण होने वाली त्रुटियों से बचने के लिए घाटियों की श्रमपूर्वक पहचान की और उनका मानचित्रण (मैपिंग) किया। तत्पश्चात, उन्होंने अपक्षरण के कारकों को समझने हेतु कई गुणात्मक और मात्रात्मक (क्वालिटेटिव और क्वांटिटेटिव) मापदंडों को वर्गीकृत किया।
शोधकर्ताओं ने गुणात्मक विशेषताओं की खोज की, उदाहरणस्वरूप, पंखे के आकार के निक्षेप (फैन डिपॉज़िट्स, जो प्रायः पर्वतपदीय स्थान पर त्रिकोणीय या पंखे के आकार का तलछट का संचयन होते हैं) एवं शाखाओं में विभाजित होते और पुनः जुड़ते पैटर्न, जिन्हें अनास्टोमोजिंग अर्थात जालकरूप पैटर्न कहा जाता है। ये पैटर्न्स नदीय या जल अपक्षरण के स्पष्ट प्रमाण हैं। इसके विपरीत, हिमोढ़ जैसी विशेषताएँ (मोरेन-लाइक फीचर्स), जो चट्टान, मिट्टी और अन्य वस्तुओं से बने हिमनदीय मलबे से बने भूखंड होते हैं, साथ ही श्यान प्रवाह से जुडी विशेषताएँ और पसलियों वाला भूभाग (रिब्ड टेरेन), हिमनदीय प्रक्रियाओं को दर्शाते हैं। मात्रात्मक विश्लेषण हेतु उन्होंने वी-सूचकांक (V-इंडेक्स) जैसे मापकों का उपयोग किया, जो अंग्रेजी ‘V’ एवं ‘U’ आकार की घाटियों की रुपरेखा के मध्य अंतर दर्शाता है। ‘V’ आकार की घाटियाँ प्रायः जल अपक्षरण से बनती हैं, एवं ‘U’ आकार की घाटियाँ बहुधा हिमनदीय या कभी-कभी रिसन (सैपिंग) प्रक्रियाओं से जुड़ी होती हैं।
इन प्रक्रियाओं के विषय में समझाते हुए अध्ययन के प्रमुख लेखक दिब्येंदु घोष बताते हैं, “जब पानी प्रवाहित होता है, तो भारी सामग्री पानी में नीचे बहती है और पानी तल को लंबवत काटता है। इसलिए, जो आकृति वह खोदता है, वह ‘V’ आकार की घाटी होती है। हिमनद (ग्लेशियर), जिनमें हिम एवं मलबे का मिश्रण होता है, वे अधिक भारी होते हैं। जब वे गतिमान होते हैं, तो वे पृष्ठतल पर फिसलते हैं जिससे ‘U’ आकार की घाटी बनती है।”
शोधकर्ताओं ने एक अन्य महत्वपूर्ण मापदंड का उपयोग किया : संधि कोण (जंक्शन एंगल), अर्थात वह कोण जिस पर दो घाटियाँ मिलती हैं।
“जब पानी प्रवाहित होता है, तो वह ढलान की दिशा का अनुसरण करता है, इसलिए दो घाटियाँ एक-दूसरे के समानांतर होंगी एवं एक न्यून कोण पर मिलेंगी। हिमनद पार्श्व रूप से (लैटरली) चल सकते हैं, इसलिए उनकी घाटियाँ अधिक कोण में मिलती हैं,” दिब्येंदु बताते हैं।
इस प्रकार, कम संधि कोण (लगभग ५० डिग्री) बहता हुआ पानी दर्शाते हैं, जबकि उच्च संधि कोण हिमनदीय प्रवाह दर्शाते हैं।
शोधदल ने पाया कि मंगल के भूमध्य रेखा के सबसे निकट की घाटियाँ, यानी थौमासिया के निम्न-अक्षांशीय क्षेत्रों में एक उष्ण जलवायु व्यवस्था के प्रमाण मिलते हैं। यहाँ की विशेषताएँ मुख्य रूप से नदीय प्रक्रियाओं (फ्लुवियल प्रोसेसेस) द्वारा निर्मित हुई थीं, जिसका अर्थ है कि वे पृष्ठतल पर बहते हुए पानी द्वारा खोदी गई थीं। यद्यपि, जैसे-जैसे शोधदल उच्च अक्षांशों की ओर दक्षिण दिशा में देखता गया, वैसे-वैसे जल-हिमनदीय (फ्लुवियोग्लेशियल) प्रक्रियाओं के बढ़ते हुए प्रमाण मिले, जहाँ हिम और हिमनद घाटियों का निर्माण करते हैं या उन्हें परिवर्तित करते हैं।
यह अध्ययन इस बात की भी पुष्टि करता है कि मंगल ग्रह पर घाटियों के अधिकांश जालों को मुख्य रूप से ग्रह के सबसे प्रमुख प्रारंभिक भूवैज्ञानिक युग, नोआकियन काल (लगभग ४.१ से ३.७ अरब वर्ष पहले) के समय पृष्ठतल के जल द्वारा खोदा गया था। जैसे ही मंगल पर नोआकियन-हेस्पेरियन काल का प्रारंभ हुआ, घाटी का निर्माण कम होने लगा, और जल-हिमनदीय प्रक्रियाऍं बढ़ गई, जिसमें जल और हिमनदीय हिम दोनों ने मिलकर भूभाग को आकार देने में योगदान दिया।
हेस्पेरियन काल (लगभग ३.७ से ३ अरब वर्ष पहले) तक घाटी का निर्माण और भी कम हो गया था। घाटियों में भूजल अपक्षरण (ग्राउंडवॉटर इरोजन) और हिमनदीय प्रक्रियाओं द्वारा परिवर्तन के संकेत अधिक दिखाई दिए। इनका स्रोत संभवतः पृष्ठतल के नीचे स्थित हिममंडल (सबसरफेस क्रायोस्फीयर) या हिमशीतित (फ्रोज़न) भूमि थी। अध्ययन में मिले इन प्रमाणों का यह अनुक्रम मंगल ग्रह पर एक क्रमिक जलवायु परिवर्तन का सुझाव देता है, जो नोआकियन काल में उष्ण और आर्द्र प्रारंभ हुआ एवं हेस्पेरियन काल तथा उसके पश्चात उत्तरोत्तर ठंडा और हिममय होता गया।
“मंगल ग्रह पर उल्कापिंड के गड्ढों (इम्पैक्ट क्रेटर्स) को देखे तो कुछ समझ सकते है। यदि कोई उल्कापिंड पृष्ठतल के नीचे हिम (सबसर्फेस आइस) की परतों वाले तल से टकराता है, तो बहुत अधिक गाद (स्लरी) उत्पन्न होता है, जो ऊपर की ओर फेंका जाता है। इससे गड्ढे के चारों ओर कीचड़ के छींटे या श्यान प्रवाह जैसा एक विशिष्ट मलबे का पैटर्न बनता है। यदि यह भूमि हिमरहित एवं ठोस होती, तो गड्ढे के किनारे के आसपास कोई गाद नहीं होती। मंगल पर इन दोनों प्रकार के गड्ढे दिखाई देते हैं। इसलिए, मंगल के कुछ भागों के पृष्ठतल के नीचे, जमा हुआ पानी (फ्रोजन) रहा होगा, जैसे पृथ्वी की स्थायी रूप से हिमशीतित भूमि (परमाफ्रॉस्ट)। यह हमें किंचित अनुमान देता है कि मंगल का कुछ पानी कहाँ चला गया होगा,” प्रा. पोरवाल समझाते हैं।
भिन्न अक्षांशों और भिन्न भूवैज्ञानिक युगों में क्रमबद्ध रूप से इस संक्रमण का विश्लेषण करके, यह अध्ययन मंगल ग्रह के जलवायु परिवर्तन की एक अधिक ठोस कहानी प्रस्तुत करता है। यद्यपि, शोधकर्ता यह स्वीकार करते हैं कि घाटी जालों, अंतर्निहित संरचनात्मक विशेषताओं और उन घटनाओं के सटीक भूवैज्ञानिक काल के मध्य एक स्पष्ट संबंध स्थापित करना अभी भी एक बड़ी चुनौती है।
मंगल ग्रह के इतिहास का अधिक आकलन करने हेतु अपनी आगे की योजनाओं के बारे में बताते हुए प्रा. पोरवाल टिप्पणी करते हैं, “अगर मेरे पास (भविष्य के मंगल मिशन के लिए) सुझाव देने का अवसर होता, तो मैं अधिक भूभौतिकीय डेटा प्राप्त करने के लिए एक लैंडर (अवरोहण यान) की अनुशंसा करता। भूवैज्ञानिक इतिहास का पूरा अध्ययन करने के लिए उच्च-रिज़ॉल्यूशन वाली इमेजिंग और अवरक्त (इन्फ्रारेड) इमेजिंग क्षमताओं वाला एक कक्षा यान का भी मैं सुझाव देता।"