क्षयरोग के जीवाणु प्रसुप्त अवस्था में अपने बाह्य आवरण में होने वाले परिवर्तन के कारण प्रतिजैविक (एंटीबायोटिक्स) से बच कर लंबे समय तक जीवित रह सकते हैं।

ग्रीष्मकालीन सौर ऊर्जा को संचित कर, शीतकाल में ताप उत्पन्न करने का विलक्षण सुझाव

Mumbai
ग्रीष्मकालीन सौर ऊर्जा को संचित कर, शीतकाल में ताप उत्पन्न करने का विलक्षण सुझाव

प्रायः एक चौथाई वर्ष के लिए शीतलतर हिमालय के उत्तरी भाग में तापमान हिमांक से बहुत नीचे तक आ जाता है। गर्म रहने के लिए लेह जैसे हिमाच्छादित स्थानों के निवासी डीजल तापित्र (हीटर) पर निर्भर होते हैं, जो कार्बन-उत्सर्जक होने के साथ-साथ महंगे ईंधन पर चलने वाले उपकरण हैं, साथ ही इस ईंधन को ट्रकों द्वारा कठिन मार्गों से लाना होता है। किंतु कितना अच्छा हो, यदि पहाड़ों को अपनी ऊष्ण रश्मियों से स्नान कराने वाली, ग्रीष्म की तीव्रतम धूप का संग्रहण (कैप्चर) किया जा सके एवं भविष्य के उपयोग के लिए इसे सुरक्षित भी किया जा सके, ताकि ग्रीष्मकाल के उपरांत कई महीनों तक ये घरों को गर्म कर सके। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी मुंबई) के शोधकर्ताओं के एक दल की मान्यता है कि रसायन विज्ञान की शक्ति से यह संभव है।

एक नव्यसा अध्ययन में ऋतु के अनुसार ताप आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु शोधदल ने स्ट्रॉन्शियम ब्रोमाइड नामक एक पदार्थ का उपयोग करने का प्रस्ताव दिया है, जो ऊष्मा-रासायनिक भंडारण (थर्मो-केमिकल स्टोरेज) के सिद्धांत पर कार्य करता है। पूर्व में स्ट्रॉन्शियम ब्रोमाइड पर ऊष्मा-रासायनिक भंडारण संबंधी बहुत से अध्ययन किये गए हैं। विद्युत ऊर्जा का संग्रहण करने वाली एक बैटरी के समान ही, ऊष्मा-रासायनिक भंडारण में गर्मी को रासायनिक ऊर्जा के रूप में संग्रहित किया जाता है। स्ट्रॉन्शियम ब्रोमाइड में उच्च ऊर्जा घनत्व (एनर्जी डेन्सिटी) एवं रासायनिक स्थिरता पायी जाती है, तथा स्ट्रॉन्शियम ब्रोमाइड विष एवं विस्फोट रहित होने के कारण इसे पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से चुना गया है।

शोधकर्ताओं ने सौर ताप वायु संग्राहकों (सोलर थर्मल एयर कलेक्टर) से सुसज्जित एक प्रतिरूप (प्रोटोटाइप) विकसित किया है, जो सौर ऊर्जा का उपयोग कर वायु को गर्म करता है। ग्रीष्मकाल में इस गर्म वायु का उपयोग कर हाइड्रेटेड स्ट्रॉन्शियम ब्रोमाइड के एक रूप (हेक्साहाइड्रेट) को गर्म किया जाता है। इस रूप में स्ट्रॉन्शियम ब्रोमाइड क्रिस्टल की संरचना के अंदर पानी के अणु होते हैं। गर्म होने पर यह पदार्थ ऊष्माशोषी (एंडोथर्मिक) निर्जलीकरण (डीहाइड्रेशन) अभिक्रिया से गुजरता है, अर्थात ऊष्मा अवशोषित की जाती है एवं पदार्थ की क्रिस्टल संरचना से पानी के अणुओं का निष्कासन होता है। परिणामी मोनोहाइड्रेट लवण, अवशोषित सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा के रूप में संचय कर लेता है। शीत ऋतु में जब रासायनिक ऊर्जा से संग्रहित इस लवण में से आर्द्र वायु प्रवाहित की जाती है तब एक विपरीत अभिक्रिया अर्थात पदार्थ का पुनर्जलीकरण (रिहाइड्रेशन) प्रारंभ होता है। पानी के अणु ऊष्माक्षेपी (एक्ज़ोथर्मिक) अभिक्रिया के माध्यम से पदार्थ की संरचना में पुनः जुड़ जाते हैं, जिससे संग्रहित ऊर्जा मुक्त होती है एवं स्थल को गर्म करती है।

दीर्घकाल तक हिम शीत का सामना करने वाले हिमालयी क्षेत्रों के लिए यह तकनीक एक स्थायी समाधान है। सामुदायिक क्षेत्रों में स्थायी तापीय विकल्प सीमित हैं तथा ये सामान्यतः डीजल या जलाऊ लकड़ी पर निर्भर करते हैं। अतः महीनों तक ऊर्जा धारण किये रखने की विशेषता, ऊष्मा-रासायनिक भंडारण को इन क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त बनाती है।

एक पोस्ट डॉक्टोरल अध्येता के रूप में इस परियोजना पर कार्य कर चुके आईआईटी मुंबई के लेखक डॉ. रुद्रदीप मजुमदार जो वर्तमान में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज (NIAS) में कार्यरत हैं, कहते हैं कि शैक्षिक स्वरूप की यह तकनीक उनके लिए अपने आप में उतनी ही व्यक्तिगत भी है।

“मैंने चोपता-तुंगनाथ-चंद्रशिला की दुर्गम ट्रेक की तथा शिविरों में रुका। तारों से सुसज्जित हिमालय की रात्रि निराली होती है, किन्तु यहॉं का रात्रि का विश्राम अत्यंत कठिन हो सकता है.” उनका कहना है “मैंने यहाँ के लोगों का संघर्ष देखा है, जिन्हें केवल जलाऊ लकड़ी एकत्र करने हेतु दस किलोमीटर तक चलना होता है। डीजल ही यहाँ एकमात्र समाधान दिखाई देता है, किन्तु यह एक भारी प्रदूषक है।”

हिमालयी समुदायों के सहायतार्थ एक मॉड्यूल विकसित किया गया है जो 500 किलोवाट-आवर के सन्निकट ऊर्जा संग्रह करने में सक्षम है। शोधदल के अनुसार यह ऊर्जा एक छोटे हिमालयी घर को चार माह तक गर्म रख सकती है। सम्पूर्ण व्यवस्था एक सरल मॉड्यूलर उपकरण के रूप में है, जिसे सरलतम परिवहन एवं संचालन की दृष्टि से निर्मित किया गया है। इसमें एक सौर ताप संग्राहक (सोलर थर्मल कलेक्टर) होता है जो ग्रीष्म ऋतु में वायु को गर्म करता है, स्ट्रॉन्शियम ब्रोमाइड नामक लवण से भरा एक रिएक्टर कक्ष होता है, तथा वायु परिसंचरण की एक लघु प्रणाली (एयर सर्कुलेशन सिस्टम) होती है जो निर्जलीकरण एवं पुनर्जलीकरण चक्रों (डिहायड्रेशन एवं रीहायड्रेशन सायकल) को सक्रिय करती है। रिएक्टर घटकों को विशिष्टतः हिमालयी परिस्थितियों के लिए निर्मित किये गए सुसंहत एवं ऋतु के परिणामरोधी (वेदरप्रूफ) 

“सौर संग्राहक तो भलीभांति प्रमाणित हैं ही, स्टील की टंकियों का निर्माण भी दीर्घकाल से हो रहा है। नया पहलू है तो वह है ऊष्मा-रासायनिक (थर्मो-केमिकल) पदार्थ को स्थिरता प्रदान करना एवं दैनिक उपयोग के लिए इसका संवेष्टन (पैकेजिंग)। इस प्रकार का ऋतु संबंधी एवं दीर्घकालिक भंडारण संभव होने के पीछे जो मुख्य कारण है, वह है पदार्थ में संग्रहित ऊर्जा का अत्यधिक स्थायी होना। यह पदार्थ समय के साथ अपक्षीण (डिग्रेड) नहीं होता,” डॉ. मजुमदार बताते हैं।

माध्यम आकार के इस मॉड्यूल को एक सम्पूर्ण कक्ष की भी आवश्यकता नहीं होती। इस अध्ययन के नेतृत्वकर्ता आईआईटी मुंबई के डॉ. संदीप कुमार साहा के अनुसार, "इसे सुवहनीय (पोर्टेबल) रूप से निर्मित किया गया है एवं प्रत्येक भंडारण मॉड्यूल प्रायः दो एलपीजी (घरेलू) सिलेंडरों से अधिक आकार नहीं लेता है। ग्रीष्मकाल में इन्हें गुजरात या राजस्थान जैसे सौर-तीव्र क्षेत्रों में पुनः ऊर्जित (रीचार्ज) किया जा सकता है, एवं शीत ऋतु आने के पूर्व हिमालयी क्षेत्रों तक ट्रकों के माध्यम से पहुंचाया जा सकता है।"

प्रस्तावित ऋतु आधारित सौर तापीय तंत्र एवं वायु-प्रवाह का आरेखीय निरूपण (A.S. Pujari et al., Applied Thermal Engineering 269 (2025) 126090)
प्रस्तावित ऋतु आधारित सौर तापीय तंत्र एवं वायु-प्रवाह का आरेखीय निरूपण (A.S. Pujari et al., Applied Thermal Engineering 269 (2025) 126090)

“एक बार इस पदार्थ को उपयोग में ले लेने पर इसमें परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं पड़ती,” डॉ. मजुमदार का कहना हैं। “रिएक्टर को मूलभूत सावधानियों के साथ उपयोग करने पर इसकी संचालन एवं अनुरक्षण (मेंटिनेंस) लागत भी कम हो जाती है। ये रिएक्टर अत्यधिक दृढ़ हैं। “

वैज्ञानिकों द्वारा पूर्व में ही चार्जिंग एवं डिसचार्जिंग के छह पूर्ण चक्रों में इसका परीक्षण किया जा चुका है, जिसके परिणामी प्रदर्शन में किसी प्रकार का ह्रास (डिग्रेडेशन) नहीं देखा गया। स्ट्रॉन्शियम ब्रोमाइड जैसे ऊष्मा-रासायनिक लवण 500 से 600 चार्जिंग एवं डिसचार्जिंग चक्रों के लिए सैद्धांतिक रूप से सक्षम है, अर्थात प्रत्येक उपकरण कई वर्षों तक चल सकती है, शोधकर्ता स्पष्ट करते हैं।

यद्यपि डीजल तापित्रों की तुलना में प्रारंभिक निवेश अधिक हो सकता है, किन्तु अध्ययन से स्पष्ट है कि ऊष्मा-रासायनिक तंत्र (थर्मोकेमिकल सिस्टम) समय के साथ अधिक लाभदायक सिद्ध होते हैं। विशेषकर सुदूरवर्ती क्षेत्रों में लाभ अधिक है क्योंकि दूरस्थ क्षेत्रों में परिवहन लागत के कारण डीजल का मूल्य तो अधिक होता ही है, साथ ही पर्यावरणीय प्रभाव या कार्बन उत्सर्जन से संबंधित दंड शुल्क, समग्र व्यय में अतिरिक्त रूप से जुड़ते हैं।

डॉ. मजुमदार के अनुसार “आज यदि हमें डीजल से विद्युत् उत्पादन करना हो तो इसका व्यय ₹50 प्रति यूनिट (kWh) होगा। यदि हम इसमें कार्बन उत्सर्जन दंड शुल्क भी जोड़ें तो यह व्यय ₹78 प्रति यूनिट हो जाता है। जबकि ऊष्मा-रासायनिक समाधान इससे आधे मूल्य में संभव होगा।” 

अध्ययन में इस ऊष्मा-रासायनिक तंत्र की लेवलाइज्ड कॉस्ट ऑफ हीटिंग (एलसीओएच; LCOH) की गणना की गई। यह एक ऊष्मा तंत्र के जीवनकाल में, उपयोगी गर्मी उत्पन्न करने की औसत लागत होती है। विभिन्न हिमालयी नगरों में यह लागत ₹33-₹51 प्रति किलोवाट आवर के मध्य है। दैनिक उपयोग हेतु, यह लागत इसे डीजल तापित्र के समान या अधिक लाभकर बनाती है, विशेष रूप से जब ईंधन में परिवहन एवं पर्यावरणीय लागत भी सम्मिलित हो। विशेषकर लेह में तो एलसीओएच ₹31/किलोवाट अवर तक नीचे आया, जो अध्ययन में सम्मिलित ऐसे समस्त स्थानों (दार्जिलिंग, शिलांग, देहरादून, शिमला, जम्मू, श्रीनगर, मनाली तथा लेह) में सबसे कम है।

“कठोर जलवायु परिस्थितियों में रहने वाली भारतीय सेना के दृष्टिगत, स्थल को गर्म करने हेतु इस प्रकार के सौर-तापीय ऊर्जा समाधान, शून्य से नीचे के तापमान पर सफलतापूर्वक परीक्षण किए गए हैं। अत्यधिक ऊँचाई पर नियुक्त हमारे सैन्य शिविरों के लिए पूरे वर्ष भर धुँआ रहित तापन सुनिश्चित करने हेतु, हम तापीय भंडारण का समाधान विकसित करने की प्रक्रिया में हैं,” इस अध्ययन पर कार्य करने वाले आईआईटी मुंबई के डॉ. चंद्रमौलि सुब्रमण्यम का कहना है।

आशाजनक परिणामों के उपरांत भी, बड़े स्तर पर किये जाने वाले वास्तविक उपयोग से पूर्व प्रणाली के सम्मुख कई बाधाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऊष्मा-रासायनिक भंडारण, केवल जर्मनी जैसे स्थानों में संचालित है। यद्यपि बड़े स्तर पर स्वीकार्यता की दर वहाँ भी सीमित ही है। भारतीय घरों में अभी इसका व्यावहारिक परीक्षण नहीं किया गया है, प्रारंभिक लागत भी डीजल तापित्र की तुलना में अधिक है। साथ ही यह प्रणाली लवण को "ऊर्जित" करने हेतु गर्मियों की पर्याप्त धूप, तथा संग्रहित गर्मी को मुक्त करने हेतु शीतकाल की पर्याप्त आर्द्रता जैसे कारकों पर निर्भर करती है। ये कारक हिमालयी क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न होते हैं। तथापि शोधकर्ताओं का मानना है कि क्षेत्रीय परीक्षणों, नीतिगत समर्थन एवं स्थानीय सहयोग के साथ, यह प्रौद्योगिकी अधिक स्थायी एवं समावेशी ऊर्जा भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है।

“ऊर्जा एवं जीवन की गुणवत्ता में गहन संबंध है,” डॉ. मजुमदार कहते हैं। “21वीं सदी में ऊर्जा-दरिद्रता नहीं होनी चाहिए। हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि देश के सर्वाधिक दूरस्थ क्षेत्रों में भी ऊर्जा उपलब्ध हों।"

Hindi

Search Research Matters