आईआईटी बॉम्बे के शोधकर्ताओं को महाराष्ट्र के पश्चिमी तट पर संभावित उच्च भू-तापीय तंत्र के प्रमाण मिले
महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र में स्थित आरवली के पास जब हम नानी के घर जाया करते थे तो गर्म पानी के झरने में नहाने और खेलने जरूर जाते थे। ये झरने स्थानीय लोगों के लिए गर्म पानी के स्रोत के रूप में थे और उस पानी को औषधीय माना जाता था। इस तरह के तापीय झरने, भू-तापीय तरल का एक हिस्सा होते है जो पृथ्वी की सतह से नीचे एक किलोमीटर की गहराई में स्थित होते है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी बॉम्बे) की डॉ. तृप्ति चंद्रशेखर ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान हैदराबाद, राजीव गाँधी इंस्टीट्यूट ऑफ पेट्रोलियम टेक्नॉलॉजी अमेठी और इटली के अन्य संस्थान के सहयोगियों के साथ मिलकर गर्म झरनों की उत्पत्ति के साथ-साथ पश्चिमी घाटों की भी खोजबीन की। उन्होंने पाया कि ये झरने लाखों सालों पुरानी चट्टानों से विकसित हुए हैं और समुद्री तलछटों ने इसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
गर्म झरनों के उपयोग उनके आसपास होनेवाले स्पा के अलावा और भी है। भू-तापीय तरल का उपयोग, सामान्य रूप में, एक्वा कल्चर, बागवानी, स्पेस हीटिंग और बिजली उत्पादन में किया जाता है। “भू-तापीय तरल पदार्थ भूगर्भीय विद्युत संयंत्रों के लिए स्रोत और फीडस्टॉक के रूप में इस्तेमाल हो सकते हैं जैसे कोयला बिजली संयंत्र के लिए कोयला या पवन ऊर्जा संयंत्र के लिए हवा। डॉ चंद्रशेखर कहती हैं, भारत में भू-तापीय संसाधन की विशाल क्षमता है और भू-तापीय संसाधनों का इस्तेमाल करके १०,००० मेगावाट बिजली का उत्पादन तक किया जा सकता है। इन तरल पदार्थों की गुणवत्ता, मात्रा, तापमान, दबाव और ग्रेडिंग से भू-तापीय विद्युत संयंत्रों के प्रकार का निर्धारण होता है और उसे बनाया जा सकता है।
भू-तापीय तरल बनते कैसे है? पृथ्वी की सतह पर पानी चट्टानों में फॉल्ट और फिशर्स के ज़रिए गहराई तक रिसता है। चूँकि धीरे-धीरे सतह के नीचे तापमान गर्म होता चला जाता है तो यह पानी गर्मी और दबाव के चलते चट्टानों से रास्ता तलाशते हुए फिर से सतह पर झरनों के रूप में बाहर आता है। पानी के परिसंचरण का रास्ता, और ये किन चट्टानों के से गुजरता है, इस पर निर्भर होता है कि यह पानी कौनसे विशिष्ट रासायनिक गुणों को प्राप्त करता है जो इसके विकास और उत्पत्ति की विशेषता बतलाते हैं।
भू-तापीय तरल पदार्थों में कार्बोनेट्स, नाइट्रेट्स, ज़िंक, कॉपर और बोरॉन समेत विभिन्न प्रकार के घटक होते हैं। इन घटकों का अध्ययन करके वैज्ञानिकों ने मूलभूत प्रक्रियाओं जैसे पानी-चट्टान की परस्पर क्रिया, भू-तापीय तरल पदार्थ की उत्पत्ति और उनके दोहन के पर्यावरणीय प्रभावों को भी समझा।
ज्वालामुखी के कारण लाखों सालों पहले बने दख्खन पठार पर बेसाल्ट की एक मोटी परत है। बेसाल्ट चट्टान एक प्रकार से ज्वालामुखी की उत्पत्ति से बनती है। इसके नीचे बलुआ पत्थर की तलछटी परतें हैं जिसे कडलगी तलछटें कहा जाता है। इनके नीचे बनी चट्टानें अरबों सालों पहले निर्मित हुई थीं जिन्हें प्रीकैम्बरियन ग्रेनाइट और नाइस कहा जाता है। महाराष्ट्र के कोकण क्षेत्र में उत्तर-दक्षिण दिशा में दख्खन ज्वालामुखीय प्रवाह के लंबे टेक्टोनिक भ्रंश पश्चिमी तट के लगभग समानांतर हैं। सातिवली, मंडणगड, आरवली, अंजनेरी, राजापुर और अन्य जैसे स्थानों में गर्म पानी के झरने, इन चट्टानों में पाए गए गर्म झरनों का समूह बनते हैं।
डॉ. चंद्रशेखर बताती हैं कि, “महाराष्ट्र के पश्चिमी तट के साथ भू-तापीय झरने पश्चिमी तट के समानांतर रेखीय दोषों के साथ बहते हैं, जो लगभग ६५ लाख वर्ष पहले तब निर्मित हुए थे जब पूरे पश्चिमी भारत में तीव्र ज्वालामुखीय गतिविधियाँ हुईं थीं।”
इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने ३५० किमी के फैलाव में स्थित १५ तापीय झरनों के पानी के नमूने, आठ भूजल के नमूने और दो नदी के पानी के नमूने प्राप्त किए। इसके बाद उन्होंने तापीय तरल पदार्थ के बहाव को समझने के लिए नमूनों की रासायनिक संरचना, तापमान, लवणता और विद्युत चालकता का अध्ययन किया। उन्होंने पृथ्वी के अंदर गहरे चट्टान और पानी की प्रतिक्रिया को समझने के लिए, उच्च तापमान और दबाव पर, प्रयोगशाला में चट्टान और पानी की परस्पर क्रियाओं को सिमुलेट किया। शोधकर्ताओं ने भारतीय तापीय झरनों पर पहली बार बोरॉन आइसोटोप्स की भी जांच की।
अध्ययन में पाया गया कि पश्चिमी तट के साथ दख्खन बेसाल्ट, कडलगी तलछटें और प्रीकैम्ब्रियन ग्रेनाइट, तापीय झरनों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कैल्शियम, सोडियम और क्लोरीन जैसे तत्वों के रासायनिक विश्लेषण और बोरान आइसोटोप्स के अध्ययन से पता चलता है कि राजापुर और मठ के अलावा अन्य सभी स्थानों से जो तापीय झरने निकलते हैं वे लाखों सालों पहले जमी समुद्री तलछटों से प्रभावित है ।
यह अध्ययन महाराष्ट्र में भू-तापीय विद्युत परियोजना की संभावना की ओर इशारा करता है और ये अल्पावधि, मध्यावधि और दीर्घावधि की योजनाएँ हो सकती हैं। अल्पावधि योजना – स्पेस-हीटिंग, खाद्य उत्पादों का निर्जलीकरण, एक्वाकल्चर या प्राकृतिक स्वास्थ्य सम्बंधी स्पा पर केन्द्रित हो सकती है जिससे छोटे या मध्यम व्यवसायों को बढ़ावा मिल सकता है।
डॉ. चंद्रशेखर का निष्कर्ष है कि, “मध्यम और दीर्घावधि विकास की योजना में चयनित जगहों पर १० से १५ फीट गहरी खुदाई करके भू-तापीय ऊर्जा के इस्तेमाल से सस्ती, साफसुथरी और मूलभूत ऊर्जा उत्पादित की जा सकती है।”