आईआईटी मुंबई का IMPART नामक नवीन वेब एप्लिकेशन जल सतह के तापमान पर दृष्टि रखने में शोधकर्ताओं की सहायता करता है एवं जलवायु परिवर्तन पर दृष्टि रखने में सहायक है।

गुम हो गए बदलाव में ​!

Read time: 1 min
मुंबई
24 जुलाई 2018
Photo : Dr. K.G. Sreeja and Dr. C.G. Madhusoodhanan, IIT Bombay

शहरों में बढ़ती आबादी और जगह की कमी के चलते कई लोग शहरों के आस पास के ग्रामीण इलाक़ों में बस रहे हैं, जो ज़्यादातर ​शहरों की तुलना में किफ़ायती होते हैं। आम भाषा में इन क्षेत्रों को ‘पेरी-अर्बन’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है शहर के आस पास का ग्रामीण क्षेत्र। इन स्थानों में ग्रामीण और शहरी तत्त्वों ​ का अद्भुत​​ मिश्रण देखने को मिलता हैं। एक अध्ययन के माध्यम से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी मुंबई) के शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि मुंबई शहर के आसपास के क्षेत्रों में शहरीकरण के साथ बहुत बदलाव आया है, जिससे न केवल यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर अनुचित दबाव पड़ा है​,  ​आजीविका के साधन भी कृषि से गैर-कृषि की तरफ़ बदल रहे हैं।

​बिना किसी सोची समझी योजना के​ पेरी-अर्बन​ क्षेत्रों का विकास परेशानी खड़ी कर सकता है। जहाँ कभी खुले मैदान और खेत लहलहाते थे,वहीं आज इन ‘पेरी-अर्बन’ क्षेत्रों में अनियोजित रूप से आवासीय क्षेत्रों का विस्तार होता देखा गया है। इस प्रक्रिया में, न केवल पारिस्थितिक तंत्र क्षतिग्रस्त होता है और पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग होता है किंतु स्थानीय लोगों के प्राथमिक व्यवसाय में भी बदलाव आते हैं।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई, के सिविल इंजीनियरिंग विभाग में कार्यरत प्राध्यापक टी. आई.​ एलधो के नेतृत्व में यह ​अध्ययन सम्पन्न हुआ। शहरीकरण पर अध्ययन की महत्ता को दर्शाते हुए वह कहते हैं कि, “यह उपयुक्त समय है जब भारत में शहरीकरण का अलग से अध्ययन हो, एवं पेरि-अर्बन क्षेत्रों को मात्र शहरी प्रबंधन चुनौतियों के एक विस्तारित मुद्दे के रूप में ना देखा जाए।”

शोधकर्ताओं  ने अपना ध्यान इस अध्ययन में ग्रेटर मुम्बई के चार परिधीय गांवों- माणगाँव तर्फ़ वासारे, मुलगाँव तर्फ़ वासारे, कोंढणे, और सालपे, पर​ केंद्रित किया है, जो कर्जत उप-जिले में हैं। शोधकर्ताओं ने २००१ और २०११ वर्षों की जनगणना रिपोर्ट एवं विशेष रूप से बनायी गयी प्रश्नावली का प्रयोग करते हुए ४० प्रतिवादियों का सर्वेक्षण किया।इसके अतिरिक्त ग्राम प्रधानों एवं अन्य ग्रामीण लोगों से ​ जनसांख्यिकीय, आजीविका, भूमि, और पानी के उपयोग, के सम्बंध में सामूहिक चर्चा की ​गयी।

अध्ययन में देखा गया कि जहाँ वर्ष २००१ में २०% आबादी की मुख्य आजीविका कृषि थी वहीं २०११ में मात्र २०% ग्रामीण ही व्यावसायिक रूप से खेती कर रहे थे। आज के समय में, जब अधिकतर कृषि भूमि निजी पूँजीपतियों के हाथों में है, व्यावसायिक कृषि एक बहुत छोटे स्तर पर की जा रही है। इससे सबसे ज़्यादा प्रभावित वह किसान हैं, जो स्वयं अपनी भूमि पर पारम्परिक रूप से खेती करते थे या दूसरों के खेतों में मज़दूरी करते थे। वे अब ईंट भट्टों पर अनौपचारिक श्रमिकों ​की तरह कार्य एवं नदी किनारे में छोटे पैमाने पर रेत खनन करने के लिए मजबूर हैं। एक समय पर जो उनके खेत खलिहान थे वह आज होटेल एवं फ़ार्महाउस में बदल गए हैं।

ज़्यादातर अवैध रूप से चलने वाले ईंट भट्टियों में आज एक बड़ी संख्या में ग्रामीण लोग कार्यरत है। अध्ययन में पाया गया कि एक अनौपचारिक नियोक्ता के रूप में कार्य करने के अलावा, ईंट भट्टियाँ​ अब इन क्षेत्रों में बढ़ते निर्माण के लिए सामग्री की आपूर्ति करते हैं। इस प्रक्रिया में, वे पानी का अपव्यय कर पर्यावरण को दूषित करते हैं और शहरों के आस पास के ग्रामीण क्षेत्रों के अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव डालते हैं।

इस अध्ययन के लिए चयनित सभी चारोँ  क्षेत्रों में पानी की कमी देखी गयी है। राष्ट्रीय औसत से तीन गुणा अधिक, ३६९१ मिमी वर्षा होने के बावजूद भी इन गाँवों को पानी की कमी का सामना करना पड़ रहा है। इसका एक मुख्य कारण घरों, होटलों, एवं रिसॉर्ट्स में खोदे गए  निजी बोरवेल, जिनके कारण भूजल स्तर में भारी कमी आई है। खुले सामूहिक कुएँ जो एक समय पर स्थानीय लोगों के लिए पानी का मुख्य स्रोत थे आज सूख चुके हैं। अब इन गांवों में बाँध एवं जल दिक्परिवर्तन जैसे अनौपचारिक माध्यमों से जलापूर्ति​  की जा रही है, जो योजनाबद्ध तो हैं किंतु केवल शहरी जरूरतों को पूरा करते हैं, अतः ग्रामीणों की स्थिति बिगड़ती जा रही है।

प्रश्न यह है की क्या यह ग्रामीण स्वयं के लिए खड़े नहीं हो सकते?  प्राध्यापक एलधो, ​जिनका मानना है कि पेरी-अर्बन क्षेत्र इस ‘विकास’ के ‘निष्क्रिय प्राप्तकर्ता’ ​ ​नहीं हैं, ​​कहते हैं कि, “मौजूदा स्थानीय स्व-सरकारें कमजोर हैं और किसी भी निर्णय लेने के की स्थिति में मौजूदा वैधानिक प्रक्रिया को अक्सर नज़रंदाज कर दिया जाता है”। चूँकि ​​यह क्षेत्र शहर की प्रशासनिक सीमाओं के बाहर होते हैं, इसलिए यहाँ कई  प्रशासनिक हेर-फेर हो सकते हैं जिसमें ज़्यादातर ​सब एक दूसरे को ही दोषी ठहराते है। हम तभी​ इस समस्या को तभी सुलझा सकते हैं जब हम इन प्रशासनिक  ​गतिविधियों को ठीक तरह से समझ सकें।​

जिस तेज़ी से हमारे शहरों की जनसंख्या बढ़ रही है, आने वाले समय में सीमावर्ती गांवों का शहरीकरण होना निश्चित है। इस ​अध्ययन​​​ के शोधकर्ताओं का मानना है की हम पारंपरिक शहर केंद्रित नीतियों का प्रयोग न ​करते हुए शहरीकरण की प्रक्रिया को बेहतर ढंग से व्यवस्थित कर सकते हैं। इस सम्बंध में प्रोफेसर ​एलधो कहते हैं कि, “शहर-केंद्रित नीतियों का प्रमुख अवगुण ​यह है कि वे निहितार्थ रूप से मानते हैं कि सभी पेरी-अर्बन क्षेत्रों में शहरी योजना प्रबंधन के माध्यम से बेहतर संचालित हो सकती ​है। हमें इन गाँवों और शहरों के बीच दीर्घकालिक, परस्पर संवादात्मक, और विकेन्द्रीकृत तंत्र की आवश्यकता है जो ग्रामीण एवं शहरी इलाक़ों के बीच के अंतर को कम करने में सक्षम हों।”

भारत सरकार अपने नेशनल अर्बन मिशन के अंतर्गत पेरी-अर्बन इलाक़ों की इन सभी चिंताओं​ ​को दूर करने की माँग की है। किंतु प्रोफ़ेसर​ ​एलधो सावधानीपूर्वक आशावादी​ ​हैं। ​​वह कहते हैं, “यह सही दिशा में एक कदम है यदि मजबूत विकेंद्रीकरण हो और प्रशासन तंत्र में​ ​,​​ विशेषकर प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के संबंध में​​,​आम जनता की भागीदारी हो।”

शहरों का विस्तार होता रहेगा और हम इस बदलाव को देखते रहेंगे। हालाँकि, हमारी भलाई इसी में है कि हम स्वयं को इस बढ़ते शहरीकरण में न ​खो दें।