
माइक्रो एवं नैनो प्लास्टिक,अर्थात केश से भी अधिक कृष प्लास्टिक के सूक्ष्म कण, आज हमारे पर्यावरण के लिए एक बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। इनकी उपस्थिति गहरे समुद्री तलछट से लेकर मनुष्यों के अंगों तक सर्वत्र देखी गई है। स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की हानि संबंधी अनेकों साक्ष्यों के उपरांत भी दैनिक जीवन एवं व्यावसायिक अनुप्रयोगों में प्लास्टिक का त्याग कर पाना प्रायः असंभव सा है। यह माइक्रो एवं नैनो प्लास्टिक कणों के पर्यावरण में निरंतर स्रावित (लीक) होते रहने का कारण बनता है। अत: प्लास्टिक अपशिष्ट के समुचित प्रबंधन तथा इनके सूक्ष्म कणों के निर्माण एवं उत्सर्जन का निवारण अत्यावश्यक हो जाता है। माइक्रो एवं नैनो प्लास्टिक के उत्पादन की प्रक्रिया को समझना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), मुंबई के प्राध्यापक कुमारस्वामी गुरुस्वामी एवं विवेक शर्मा ने अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय, वर्मोंट विश्वविद्यालय एवं टेनेसी नॉक्सविल विश्वविद्यालय तथा स्पेन के बास्क कंट्री यूपीवी/इएचयू विश्वविद्यालय एवं बास्क फाउंडेशन फॉर सायंस के वैज्ञानिकों के सहयोग के साथ, प्लास्टिक अपशिष्ट की प्रतिदिन होने वाली पर्यावरणीय क्षति से उत्पन्न हो रहे माइक्रो एवं नैनो प्लास्टिक कणों की उत्पत्ति का अध्ययन किया है। यह अध्ययन प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के विज्ञान सम्मत अभ्यास का महत्व बताता है एवं प्लास्टिक सामग्री में कुछ संरचनात्मक परिवर्तन का निर्देश देता है, ताकि माइक्रो एवं नैनो प्लास्टिक (MNPLs) कणों की उत्पादन दर को घटाया जा सके।
वैज्ञानिकों के अनुसार व्यावसायिक रूप से उपलब्ध अधिकांश प्लास्टिकों की संरचना अर्ध क्रिस्टलाइन होती है। यह एक के ऊपर एक स्थित प्लास्टिक अणुओंके क्रिस्टलीय (अणुओं की आवर्ती संरचना, जैसे नमक की क्रिस्टल) आस्तरों से निर्मित होती है जिसमें प्लास्टिक के तंतु (थ्रेड) इन आस्तरों के मध्य विभिन्न दिशाओं में (इन एंड अक्रॉस दि शीट) स्थित होते हैं। यह आस्तर लमेले के नाम से जाने जाते हैं। बहुधा ये तंतु आस्तर को संगठित रखने वाले एक सेतु के रूप में कार्य करते हैं। आईआईटी मुंबई एवं उनके सहयोगी दलों ने सर्वाधिक उपयोग किये जाने वाले पाँच प्लास्टिकों में से पॉलीप्रोपिलीन (PP), पॉलीइथिलीन टेरेफ्थेलेट (PET) एवं पॉलीस्टिरीन (PS) नामक तीन प्लास्टिकों को अपने अध्ययन में सम्मिलित किया। उन्होंने ठोस अपशिष्ट (लैंडफिल्स) क्षेत्रों जैसे वास्तविक वातावरण की क्षरण एवं भंजन (वियर एंड टिअर) प्रक्रिया का अनुकरण (मिमिक) करने वाली नियंत्रित प्रयोगशाला परिस्थितियों में शोध करते हुए प्लास्टिक के क्षय (डिग्रेडेशन) के सिमुलेशन का अध्ययन किया। इस प्रकार प्लास्टिक की क्षरण प्रक्रिया को गति देते हुए वर्षों का समय लेने वाली इस घटना का निरीक्षण वे कुछ दिनों में ही कर पाए।
शोधकर्ताओं ने अध्ययन में पाया कि तीनों प्रकार के प्लास्टिकों में तंतु (थ्रेड) का क्षय सर्वप्रथम होता है। जब ये तंतु भंग हो जाते हैं, तब एक के ऊपर एक स्थित अणुओं की लैमिले संरचना अस्थिर होकर सूक्ष्म कणों में खंडित होने लग जाती है। यहाँ तंतुओं का अपघटन तो तीव्रता से हो जाता है किंतु सूक्ष्म लैमिलार खंड अर्थात माइक्रो एवं नैनो प्लास्टिक कण दीर्घ काल तक अस्तित्व में रहते हैं एवं पर्यावरण तथा स्वास्थ्य संकट की संभावना को जन्म देते हैं।
प्रा. गुरुस्वामी के कथनानुसार, “नैनो प्लास्टिक के कण अस्तित्व में आने एवं वातावरण में विसरित (डिस्पर्स) होने के पश्चात इसमें हस्तक्षेप कर पाना प्राय: असंभव होता है। साथ ही नैनो प्लास्टिक को एकत्र कर पर्यावरण को स्वच्छ कर पाना भी नितांत अवास्तविक है।”
अध्ययन प्रस्ताव देता है कि तंतुओं से युक्त आणविक सेतुओं की संख्या को बढ़ाकर प्लास्टिक को सुदृढ़ता प्रदान करना इन सूक्ष्म प्लास्टिक कणों को न्यूनीकृत करने की एक संभावित रणनीति हो सकती है। यद्यपि इससे सूक्ष्म प्लास्टिक कणों की उत्पादन दर को केवल कम किया जा सकता है, पूर्णरूप से रोका नहीं जा सकता। अर्ध क्रिस्टलाइन प्लास्टिक बहुपयोगी होने के कारण इसका पूर्ण निषेध भी नहीं किया जा सकता। अत: सूक्ष्म कणों से उत्पन्न प्रदूषण (पार्टीकुलेट पोल्यूशन) को रोकने हेतु एक प्रभावशाली अपशिष्ट प्रबंधन रणनीति की आवश्यकता है।
प्रा. गुरुस्वामी के अनुसार “जैसी हमारी धारणा है कि प्लास्टिक निरंतर टिके रहने एवं क्षय न होने वाला पदार्थ है, ऐसा कुछ भी नहीं है। उदाहरण हेतु सूर्य के प्रकाश में रखी हुई एक प्लास्टिक की कुर्सी भंगुरता एवं क्षरण से होकर गुजरती है, एवं वातावरण में माइक्रो-नैनो प्लास्टिक श्रावित (रिलीज़) करती है। श्रेष्ट होगा कि इस प्रकार की अनियंत्रित अवस्था प्राप्त करने के पूर्व ही ऐसे पदार्थों को एकत्र कर वैज्ञानिक रूप से इनका पुनर्चक्रण (रीसायकल) अथवा निवारण कर लिया जाए।”
इस अध्ययन का अन्य प्रमुख निष्कर्ष यह है कि प्लास्टिक के क्षरण द्वारा निर्मित इन माइक्रो-नैनो प्लास्टिक कणों के आकार एवं आकृति में बहुत अंतर होता है। यह माइक्रो-नैनो प्लास्टिक की विषाक्तता के विभिन्न अभ्यासों में चुनौती उत्पन्न करता है, क्योंकि इन अभ्यासों में विभिन्न आकार के वास्तविक नैनो प्लास्टिक के स्थान पर समान आकार एवं आकृति वाले नैनो प्लास्टिक कणों का उपयोग प्रतिनिधि स्वरूप किया जाता है।
प्रा. गुरुस्वामी के शब्दों में “[माइक्रो एवं नैनो प्लास्टिक के प्रभाव का अध्ययन करने हेतु किया जाने वाला प्रयोगशाला अनुकरण (मिमिक)] सर्फेस केमिस्ट्री तथा आकार एवं आकृति की भिन्नता की दृष्टि से क्षरण एवं भंजन के द्वारा उत्पन्न वास्तविक नैनोप्लास्टिक से बहुत पृथक होता है। एवं ये अंतर विषाक्तता एवं इसके वातावरण पर होने वाले प्रभाव को समझने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं।”
इस अध्ययन की परिकल्पना प्रा. गुरुस्वामी एवं उनके दीर्घकालिक सहयोगी, कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रा. सनत कुमार ने की थी। इस अंतर्राष्ट्रीय सहयोग ने इस अध्ययन की गहराई एवं व्यापकता को भी संशोधित किया। प्रा. सनत कुमार आईआईटी मुम्बई में ‘राजेश एवं निशा चेयर’ विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं। अध्ययन कार्य में आईआईटी मुंबई समूह ने पॉलीप्रोपिलीन एवं पॉलीस्टिरीन पर, जबकि कोलंबिया समूह ने पॉलीइथिलीन टेरेफ्थेलेट पर कार्य किया। वर्तमान में प्रा. गुरुस्वामी एवं उनके सहयोगी अपने निष्कर्षों के प्रभाव का प्लास्टिक के पुनर्चक्रण (रीसायकलिंग) पर परीक्षण कर रहे हैं।
“पुनर्चक्रण के समय पॉलिमर का आणविक क्षरण हो सकता है, जिससे वे नैनो प्लास्टिक्स के निर्माण के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकते हैं,” प्रा. गुरुस्वामी इस विशिष्ट समस्या पर कार्य करने के पीछे का कारण बताते हैं।
यद्यपि माइक्रो एवं नैनो प्लास्टिक के वास्तविक प्रतिरूपों (रियल वर्ल्ड सैम्पल) का अध्ययन अभी नहीं किया जा रहा है, किंतु भविष्य के लिए यह शोध का एक प्रमुख क्षेत्र सिद्ध होगा। यद्यपि महासागरों एवं लैंडफिल्स से इन कणों का एकत्रीकरण किसी चुनौती से कम नहीं है। संभवतः और अधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं विस्तृत शोध कार्यों के साथ, हम इन सूक्ष्म प्लास्टिक कणों द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का प्रभावी रूप से सामना करने में सक्षम होंगे, जो सामान्य माइक्रोस्कोप से दिखाई भी नहीं देते।