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तैरते हुए प्लास्टिक के टुकड़े : ख़तरे की घंटी

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मुंबई
3 फ़रवरी 2020
तैरते हुए प्लास्टिक के टुकड़े : ख़तरे की घंटी

अध्ययन दर्शाता है कि कैसे समुद्र में बहता हुआ प्लास्टिक का कचरा समुद्र की भौतिक क्रियाओं को प्रभावित कर सकता है।

‘२०१७ नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ीयम वाइल्ड फ़ोटोग्राफ़र ओफ़ द ईयर’ प्रतियोगिता में जस्टिन हाफ़्मन अंतिम दौर में पहुँचने वालों में से एक थे।  उनके छायाचित्र ‘सुएज सर्फ़र ‘ में एक अश्वमीन (सी हॉर्स) को इंडोनेशिया के सुम्बरा द्वीप के पास के समुद्र में एक गुलाबी ईअर बड के सहारे बहते हुए दिखाया गया था। हालाँकि देखने में अश्वमीन का छायाचित्र बहुत सुन्दर लग रहा था पर इसने दुनिया का ध्यान समुद्री प्रदूषण की ओर खींचा। हाफ़्मन ने भविष्य को सामने रखकर दुखी मन से कहा, “काश, यह चित्र एक हक़ीक़त नहीं होता।” प्लास्टिक, जो केवल हम एक बार उपयोग में लाते हैं, और फिर लापरवाही से फेंक देते हैं, के दुष्प्रभाव को अश्वमीन ही नहीं, व्हेल, डॉल्फिन, कछुए, मछलियाँ और समुद्री पक्षी भी झेल रहे हैं।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुम्बई (आइआइटी मुम्बई) और राष्ट्रीय ध्रुवीय एवं समुद्री अनुसंधान केन्द्र (एनसीपीओआर), गोवा के शोधकर्ताओं के द्वारा किए अध्ययन के अनुसार प्लास्टिक के उपयोग का जोखिम केवल समुद्री जीवन तक सीमित नहीं है। इस अध्ययन में, जो कि ‘मरीन पोल्यूशन बुलेटिन’ में प्रकाशित हुआ है, दिखाया गया है कि कैसे तैरते हुए प्लास्टिक के टुकड़े समुद्र की भौतिक प्रक्रियाएँ को प्रभावित करने के साथ जलवायु पर भी असर करते हैं। इस अध्ययन को ‘विज्ञान और इंजीनियरी अनुसंधान बोर्ड’ द्वारा आंशिक रूप से वित्त पोषित किया गया।

“प्लास्टिक जल स्रोतों में सब जगह पाए जाते हैं और जब भी हम किसी समुद्र तट पर जाते हैं, हमें ढेर सारा मलबा नज़र आता है जिसमें अधिकतर प्लास्टिक होता है।”,  इस प्रदूषण से चिंतित आइआइटी मुंबई के शोधकर्ता डॉक्टर रेंजित विष्णुराधन का कहना है। डॉक्टर विष्णुराधन ने इस अध्ययन पर प्राध्यापक टी आइ एलधो (अध्ययन के प्रमुख ) और एनसीपीओआर की टी दिव्या डेविड के साथ काम किया है। हालाँकि समुद्र तटों की साफ़ सफ़ाई करने की कुछ कोशिशें की गई हैं, “ उनकी वर्तमान दशा पर्यावरण के एक गम्भीर संकट की ओर इशारा करती है”, वे  कहते हैं। 

अगर हम समुद्र तट पर पड़े प्लास्टिक की रंगत पर नज़र डालें तो इसकी यात्रा की पूरी कहानी सामने आ जाएगी। “तट पर पड़े हुए प्लास्टिक के ज़्यादातर मलबों का रंग अलग अलग तरह का पीला रंग लिए हुए होगा। इसका मतलब है कि ये प्लास्टिक के पदार्थ तट पर फेंके हुए नहीं बल्कि धारा में बहते हुए अंत में यहाँ आकर जमा हुए हैं,” डॉक्टर विष्णु राधन समझाते हैं। काफ़ी कुछ ज्वार और भाटे के समय समुद्र में आ मिलते हैं। ऐसा अनुमान है कि समुद्रों के  कचरों का लगभग ८० प्रतिशत प्लास्टिक होता है और इस प्लास्टिक प्रदूषण से पिछले कुछ वर्षों में ७०० समुद्री प्रजातियों पर असर पड़ा है।

पिछले कई अध्ययनों से पता चला है कि समुद्र की सतहों पर पाए जाने वाले खरबों माइक्रो आल्गे और दूसरे तैरने वाले कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ, निचली सतह पर पहुँचने वाले सौर विकिरण की प्रबलता को या तो कम कर देते हैं और या एकदम रोक देते हैं। आल्गे पूरित समुद्र की सतह, आल्गे रहित सतह के मुक़ाबले, ताप को अधिक संग्रहीत करती है। इससे सतह का तापमान गरम हो जाता है जब कि निचली सतह का तापमान ठंडा हो जाता है। तापमान के इस अंतर से, भिन्न भिन्न खारेपन, ऑक्सिजन और घनत्व की पानी की कई सतहें बन जाती हैं,जिससे पानी ठीक से घुलमिल नहीं पाता।  

प्रस्तुत अध्ययन में शोधकर्ताओं का कहना है कि तैरते हुए प्लास्टिक के टुकड़े समुद्री प्लवक (plankton) के समान होते हैं। “उनकी बहुतायत, दूर दूर तक भौगोलिक विस्तार, दृष्टिगत रूप से क्रियाशीलता, आकार और बनावट की विविधता के चलते, पादप प्लवक (फ़ायटोप्लैंक्टन), भौतिक रूप से बहुत कुछ समुद्र में पाए जाने वाले प्लास्टिक जैसे ही होते हैं,” ऐसा प्राध्यापक  एलधो का कहना है। इस प्लास्टिक की बढ़ती हुई मात्रा सौर विकिरण की समुद्री सतह पर पहुँचने वाली मात्रा पर असर डालती है जिससे नीचे के पानी के कॉलम पर कई तरह के बदलाव आते हैं।

ऐसे बदलावों के दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। “पानी और हवा की सतह पर सामान्य रूप से होने वाले गैस के विनिमय पर असर पड़ता है जिससे घुली हुई ऑक्सिजन की मात्रा कम हो जाती है और सतह पर बहने वाली हवाओं में भी बदलाव आते हैं,” डॉक्टर विष्णुराधन समझाते हैं। क्योंकि सतह को भेदकर समुद्र की गहराई पर पहुँचने वाले प्रकाश और ताप का परिमाण कम हो जाता है और  प्रकाश-संश्लेषण (फ़ोटोसिन्थिसस )  और वाष्पीकरण पर असर पड़ता है।  “ ऐसे सोपानी क्रियाओं और उनके फ़ीड्बैक को मूल स्थानों पर परीक्षण करके, कार्यक्षेत्रों से डेटा  एकत्रित करके और मॉडल सिम्युलेशन करके आँकना होगा,” उन्होंने आगे बताया। 

हालाँकि प्लास्टिक के उपयोग और दुरुपयोग के कारण भविष्य अन्धकारमय नज़र आता है, विशेषकर एकल उपयोग के लायक़ प्लास्टिक, शोधकर्ताओं को एक आशा की किरण नज़र आ रही है। “कई देशों ने एकल उपयोग वाले प्लास्टिक के उपयोग को प्रतिबंधित करना चालू कर दिया है और प्लास्टिक प्रदूषण को कम करने की दिशा में कई क़दम उठा रहे हैं। यह एक प्रेरणादायक  क़दम है,” प्राध्यापक एलधो कहते हैं।

मगर नागरिकों, नीति निर्माता और शासन प्रणाली का सामूहिक प्रयास अत्यावश्यक है। “केवल नियामक नियंत्रण ही काफ़ी नहीं है, पर्यावरण के अनुकूल आचरण के साथ साथ, खपत व्यवहार में बदलाव से ही प्लास्टिक के ख़तरे से हम जूझ पाएँगे,” उनका विचार है। प्लास्टिक के उपयोग की आसानी को नकारना मुश्किल है पर समय की पुकार कहती है कि अब इसे छोड़ना होगा। इस संकट से जूझने के लिए कचरे का पृथक्करण, इस बारे में जागरूकता अभियान और नागरिकों द्वारा प्लास्टिक के उपयोग का नियंत्रण आवश्यक हैं। 

ये अध्ययन बतलाता है कि प्लास्टिक प्रदूषण कैसे न केवल पृथ्वी के जीवों पर असर करता है बल्कि पारिस्थितिक परितंत्र की भौतिक प्रक्रियाओं में भी बाधा उत्पन्न करता है। 

डॉक्टर विष्णुराधन को आशा है कि “हमारे परिणामों के आधार पर न केवल और अधिक विस्तृत खोज बीन करने में सहायता मिलेगी, बल्कि प्लास्टिक प्रदूषण के कारण समुद्र के जल के कॉलम की भौतिक प्रक्रियाएँ में बदलाव और जलवायु के परिवर्तन को समझने में भी मदद मिलेगी।”