भारत में प्रति वर्ष जनसंख्या में लगभग 1% की वृद्धि के साथ तेल, प्राकृतिक गैस और कोयले जैसे ईंधन की मांग भी निरंतर बढ़ रही है। ऊर्जा के इन गैर-नवीकरणीय स्रोतों पर संपूर्ण अर्थव्यवस्था जीवित रहती है। लेकिन बिजली और उर्वरक उद्योगों का क्या होगा, जो केवल इन ईंधन पर निर्भर हैं, क्योंकि भारतीय प्राकृतिक गैस भंडार लगभग समाप्त हो गए हैं? एक नवीन अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने भारत में प्राकृतिक गैस के उपभोग एवं उत्पादन के रुझान और अर्थव्यवस्था एवं पर्यावरण पर घरेलू स्तर पर प्राकृतिक गैस के उत्पादन में ह्रास के प्रभाव को समझने का प्रयास किया है।
इस अध्ययन को एनर्जी पॉलिसी नामक पत्रिका में प्रकाशित किया गया है और यह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बॉम्बे (आईआईटी बॉम्बे) और मोनाश विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं के बीच एक सहयोगात्मक प्रयास था।
प्राकृतिक गैस वैश्विक ऊर्जा उपभोग में लगभग एक चौथाई योगदान देती है। हालांकि, भारत में, यह उपभोग की गई ऊर्जा का केवल 6% है, जबकि कच्चे तेल और कोयले का प्रभुत्व है। भारत सरकार ने 2030 तक प्राकृतिक गैस का योगदान 15% तक बढ़ाने का वादा किया है। "प्राकृतिक गैस वर्तमान समय में एक आशाजनक ऊर्जा स्रोत के रूप में मानी जा रही है क्योंकि यह उसी मात्रा में ऊर्जा उत्पादन हेतु कणिका (पर्टिकुलेट) पदार्थ, राख और ग्रीनहाउस गैसों के कम उत्सर्जन के कारण अपेक्षाकृत एक शुद्ध ईंधन है।” प्राध्यापक योगेंद्र शास्त्री बताते हैं । वे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान बॉम्बे में सह-प्राध्यापक और इस अध्ययन के वरिष्ठ शोधकर्ता हैं।
प्राध्यापक शास्त्री विस्तारपूर्वक बताते हैं, "हालांकि, प्राकृतिक गैस क्षेत्र में इसके उपयोग के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और साथ ही मूल्यीय रुझानों एवं इसके पर्यावरणीय लाभ के लिए मिलने वाली प्राथमिकता से प्रभावित होगी । हम अगले दो दशकों के अवधि काल अर्थात 2040 तक इन कारकों का अध्ययन करना चाहते हैं। इन विविध कारकों को ध्यान में रखते हुए, इस अध्ययन का लक्ष्य, भारतीय संदर्भ में प्राकृतिक गैस क्षेत्र के संभावित परिवर्तन को समझना था।" यह अध्ययन प्राकृतिक गैस के घरेलू भंडार कम होने पर प्रतिस्थापन ईंधन स्रोतों का भी प्रस्ताव रखता है।
शोधकर्ताओं ने प्राकृतिक गैस के उत्पादन के लिए आवश्यक ऊर्जा और संसाधनों का पता लगाया है और इसके उपभोग के परिणामस्वरूप होने वाले उत्सर्जन का पर्यावरण एवं अर्थव्यवस्था पर होने वाले प्रभाव का आकलन किया है। विश्लेषण की यह विधि नीति निर्माताओं को बाजार में प्राकृतिक गैस के आरंभिक परिचय के बारे में रणनीतिक निर्णय लेने में मदद कर सकती है। इन्होंने विभिन्न पर्यावरणीय समस्याओं जैसे ओजोन रिक्तीकरण, कणिका पदार्थ (पर्टिकुलेट मैटर), अम्लीकरण और वैश्विक तापमान वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) के प्रभाव और परिणाम स्वरुप मानव स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी तंत्र और संसाधन उपलब्धता पर होने वाली हानि पर विचार किया। इनके विश्लेषण ने तीन अलग-अलग कालक्रमों या दृष्टिकोणों पर प्रभाव को संज्ञान में लिया - 20 वर्ष की अवधि वाला व्यक्तिवादी दृष्टिकोण, 100 वर्ष की अवधि वाला पदानुक्रमवादी और 500 वर्ष की अवधि वाला समतावादी दृष्टिकोण।
“ये दृष्टिकोण विभिन्न व्यक्तियों, संगठनों, या सरकारों का प्रतिनिधित्व करने के लिए माने जाते हैं ; प्रत्येक को तीन दृष्टिकोणों में से किसी एक के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। तीनों दृष्टिकोणों के लिए प्रभावों की गणना करके, हम परिप्रेक्ष्य बहुरूपता के बारे में जानते हैं", प्राध्यापक शास्त्री समझाते हैं । “यह उपयोगी है क्योंकि भविष्य को अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग महत्व दिया जा सकता है। यहां, हम तर्क देते हैं कि एक समतावादी दृष्टिकोण वाला व्यक्ति, एक लंबे क्षैतिज काल पर विचार करने के अतिरिक्त , भविष्य को वर्तमान से अधिक महत्व देगा। एक पदानुक्रमित विचारक वर्तमान और भविष्य को समान रूप से महत्व देगा, जबकि एक व्यक्तिवादी भविष्य की तुलना में वर्तमान को अधिक महत्व देगा।"
यह अध्ययन भारत में गैस उत्पादन एवं उपभोग के गत रुझानों के आंकड़ों के आधार पर प्राकृतिक गैस के विभिन्न रूपों के उपयोग का पूर्वानुमान करता है। यह दर्शाता है कि 2040 तक भारत में प्राकृतिक गैस के भंडार लगभग खाली हो जाएंगे, और इसकी विरलता के कारण घरेलू स्तर पर उत्पादित गैस की कीमत दोगुनी हो जाएगी। वास्तव में, घरेलू गैस का उत्पादन 2011 से निरंतर घट रहा है। शोधकर्ताओं का सुझाव है कि ईंधन की कमी का सामना करने के लिए, सरकार को मालवाहक जहाजों के माध्यम से लाए जाने वाले आयातित तरलीकृत प्राकृतिक गैस यानि एलएनजी पर बहुत अधिक भरोसा करने की आवश्यकता होगी। ईंधन की बढ़ी हुई कीमतों के कारण, घरेलू प्राकृतिक गैस के बड़े उपभोक्ता जैसे बिजली, खाद और परिवहन क्षेत्र भी आयातित एलएनजी पर बहुत अधिक निर्भर हो जायेंगे । घरेलू गैस केवल शहर के उपभोक्ताओं के लिए उपलब्ध होगी जो भोजन पकाने के लिए इसका उपयोग करते हैं।
अध्ययन में यह भी पूर्वानुमान किया गया है कि पाइपों में प्रवाहित प्राकृतिक गैस (पीएनजी ) शहरी घरों में प्रतिस्थापित हो जाएगी क्योंकि यह तरलीकृत पेट्रोलियम गैस (एलपीजी) की तुलना में कम कार्बन उत्सर्जन करती है। इसी के अनुरूप सुधार स्वरुप , ग्रामीण उपभोक्ता जलाऊ लकड़ी के स्थान पर एलपीजी का उपयोग करना शुरू कर देंगे। भोजन पकाने के इन ईंधन को अपनाने से भविष्य में पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
वर्ष 2022–23 तक, भारत प्राकृतिक गैस का आयात देश सीमाओं के आर-पार बिछाई गई पाइपलाइनों के माध्यम से शुरू करने के लिए तैयार है। इससे एलएनजी के आयात में कमी आएगी क्योंकि शहरी घर पाइपलाइन गैस का उपयोग करने लग जाएंगे । चूंकि एलएनजी, जिसे पाइपलाइन गैस की तुलना में अधिक कार्यविधि की आवश्यकता होती है, महंगी होती है, इसके आयात में कमी अर्थव्यवस्था के लिए सहायक होगी, और प्राकृतिक गैस सस्ती दर पर शहरी उपभोक्ताओं के लिए उपलब्ध होगी। तथापि , 2040 तक आयातित पाइपलाइन गैस की आपूर्ति में भी कमी हो सकती है क्योंकि मांग में वृद्धि जारी रहेगी।
प्राकृतिक गैस जैसे शुद्ध किन्तु कार्बन उत्सर्जक ईंधन के बढ़ते उपयोग के परिणामस्वरूप पर्यावरण पर दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसलिए, ईंधन स्रोत के रूप में प्राकृतिक गैस के उपयोग के बावजूद, सुदूर भविष्य में ओजोन रिक्तीकरण और वैश्विक तापमान वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) के उच्च स्तर को देखा जा सकता है।
इस अध्ययन में ऊर्जा और उर्वरक क्षेत्र जैसे प्राकृतिक गैस के बड़े उपभोक्ताओं के लिए सस्ते प्रतिस्थापन ईंधन के रूप में कोयले की चर्चा है। औद्योगिक क्षेत्र में कोयले द्वारा प्राकृतिक गैस के प्रतिस्थापन से घरेलू उत्पादित गैस की कीमत कम हो जाएगी जो घरेलू आवश्यकताओं के लिए उपलब्ध होगी। इससे एलएनजी आयात करने की आवश्यकता में भी कमी आएगी। कम कीमत और आयातित गैस में कमी के साथ, प्रतिस्थापन ईंधन के रूप में कोयले का अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
तथापि, सकारात्मक प्रभाव पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभावों द्वारा नकारा जा सकता है। यद्यपि भारत में कोयला सस्ता और आसानी से उपलब्ध है, लेकिन यह प्राकृतिक गैस की तुलना में बहुत कम ऊर्जा उत्पन्न करता है। यह एलएनजी या पीएनजी से भी अधिक मात्रा में प्रदूषक उत्पन्न करता है। जैसे-जैसे अधिकांश उद्योग कोयले की ओर रुख करते हैं, पर्यावरण को अम्लीयता, वैश्विक तापमान वृद्धि और ओजोन रिक्तिकरण से भारी हानि हो सकती है।
ईंधन के रूप में प्राकृतिक गैस का सकारात्मक सामाजिक प्रभाव भी होगा। एलपीजी सिलिंडर, जिन्हें बार-बार भरने की आवश्यकता होती है, के विपरीत पाइपलाइन गैस शहरी घरों में स्वच्छ ईंधन की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करेगी। ग्रामीण घरों में एलपीजी का उपयोग न केवल एक स्वस्थ जीवन शैली सुनिश्चित करेगा, बल्कि लकड़ी एकत्रित करने और चूल्हा जलाकर खाना पकाने में लगने वाले बहुत अधिक समय को बचाएगा। प्राकृतिक गैस के बढ़ते उपयोग से एलएनजी वितरण केन्द्र (टर्मिनल), नगरीय गैस परियोजना (सिटी गैस प्रोजेक्ट) और पेट्रोरसायनिक संयंत्र (पेट्रोकेमिकल प्लांट) के रूप में रोजगार के नए अवसर सृजित होंगे।
लेकिन, प्राकृतिक गैस के उपयोग के साथ इसकी चुनौतियां भी हैं। जैसे ही भारत आयातित गैस पर निर्भर हो जाता है, हमारे ईंधन स्रोत भू-राजनीतिक मुद्दों की चपेट में आ सकते हैं। इसके अलावा, गैस पाइपलाइन बिछाने के लिए भूमि अधिग्रहण भी देश में एक कठिन चुनौती है। तरलीकृत पेट्रोलियम गैस और सस्ते कोयले की अनुवृत्तित दरें भी भारतीय गैस बाजार में प्राकृतिक गैस को अपनाने के प्रति कड़ी प्रतिस्पर्धा प्रस्तुत करती हैं।
इसके अतिरिक्त, अनुवृत्ति का मुद्दा भी है। उर्वरक क्षेत्र में प्राकृतिक गैस से यूरिया का उत्पादन लगभग 900 रु प्रति 45 किलोग्राम की लागत से होता है। हालांकि, सरकार इस लागत को 242 रु प्रति 45 किलोग्राम की लागत कीमत पर लगभग 70% तक अनुवृत्ति देती है। उत्पादन की वर्तमान दर पर, यूरिया पर दी जाने वाली अनुवृत्ति की राशि प्रति वर्ष 7.51 बिलियन अमरीकी डालर है। जैसे-जैसे प्राकृतिक गैस की कीमत बढ़ेगी, इन अनुवृत्तियों से होने वाला व्यय सरकार पर भारी पड़ेगा । शोधकर्ताओं ने सभी हितधारकों जैसे बिजली संयंत्र, उर्वरक उद्योग और उपभोक्ताओं पर (मूल्य निर्धारण तंत्र के माध्यम से) कार्बन कर लागू करने का सुझाव दिया है। उनका अनुमान है कि वायुमंडल में जारी कार्बन डाइऑक्साइड की प्रति टन मात्रा पर 10 अमरीकी डालर का कार्बन कर लगाने से प्रति वर्ष 3.31 बिलियन अमरीकी डालर का राजस्व एकत्रित होगा, जो प्रति वर्ष दी जाने वाली अनुवृत्ति का 44% भरपाई कर सकेगा।
शोधकर्ताओं का सुझाव है कि भारत को ईंधन बाजार में प्राकृतिक गैस को प्रतिस्थापित करने के लिए कुछ नीतिगत निर्णय लेने की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया में प्राकृतिक गैस के उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए यूरिया उत्पादन की विधि में परिवर्तन करना, विद्युत क्षेत्र में प्राकृतिक गैस के उपयोग को प्रोत्साहित करने के लिए गैस-आधारित विद्युत् संयंत्रों को अनुवृत्ति देना, और सभी अनुवृत्तियों का पुनर्भरण करने के लिए कार्बन कर को लागू करना शामिल होना चाहिए । उनके अनुसार, ये उपाय दीर्घकालिक आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ सुनिश्चित करेंगे क्योंकि भारत भविष्य में प्राकृतिक गैस को एक महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत के रूप में सम्मिलित करता है।
“कोई भी भविष्य का पूर्वानुमान नहीं कर सकता है। तथापि , निर्णय, विशेष रूप से नीतिगत निर्णय, इस विवेकपूर्ण आधार पर किए जाने चाहिए कि भविष्य कैसे अच्छा हो सकता है। इस संबंध में, प्रतिमान (मॉडल) नीति निर्माताओं को विभिन्न नीति विकल्पों का आकलन करने और उनकी तुलना करने के लिए एक उपकरण प्रदान करता है”, प्राध्यापक शास्त्री स्पष्ट करते हैं । शोधकर्ताओं का तर्क है कि महंगी प्राकृतिक गैस के आयात और उच्च गैस अनुवृत्ति (सब्सिडी) से अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ेगा। तथापि, प्राकृतिक गैस या एलएनजी के अधिक उपयोग से जैव द्रव्यमान (बायोमास) के कम उपयोग के मामले में लाभ होगा। “सरकार संभवतः इस उपकरण का उपयोग इस आर्थिक बोझ की सीमा को समझने और पर्यावरणीय लाभों के साथ तुलना करने के लिए कर सकती है। आशा है कि इससे अधिक सूचित नीतिगत निर्णय लिए जा पाएंगे, ” वे निष्कर्ष निकालते हैं ।