क्षयरोग के जीवाणु प्रसुप्त अवस्था में अपने बाह्य आवरण में होने वाले परिवर्तन के कारण प्रतिजैविक (एंटीबायोटिक्स) से बच कर लंबे समय तक जीवित रह सकते हैं।

पिघले हुए प्लास्टिक को सुप्रवाही बनाते ‘नैनोटेट्रापॉड’

Mumbai
समुद्री लहरों की गति कम करते हुए समुद्र तट के क्षरण का प्रतिबंध करने वाले कंक्रीट के टेट्रापॉड  [श्रेय: Pexels]

‘प्लास्टिक’ पदार्थ विभिन्न आकार ले सकते हैं क्योंकि वे ढलने योग्य, तानने योग्य होते हैं, अतः वे बहुपयोगी है। प्लास्टिक, पॉलिमर, अर्थात बहुलक नामक लंबे अणुओं से बने होते हैं जिनकी संरचना उन्हें बहुपयोगी बनाती है। यद्यपि, भारी और लंबी आणविक श्रृंखलाओं से बने कई संश्लेषित (सिंथेटिक) प्लास्टिक पिघली हुई अवस्था में अत्यंत गाढ़े होते हैं। वैज्ञानिक इसे उच्च श्यानता (हाय विस्कॉसिटी) के रूप में वर्णित करते हैं। परिणामस्वरूप, ऐसे प्लास्टिक को प्रक्रिया के समय प्रवाहित करना कठिन, ऊर्जा-गहन और इसलिए महंगा हो सकता है।

एक आशाजनक सफलता के रूप में, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मुंबई, आईआईटी मद्रास, और आईआईटी कानपुर के शोधकर्ताओं के एक नवीनतम सहयोगात्मक अध्ययन से यह पता चला है कि टेट्रापॉड आकृति (चतुष्पादी आकृति) के अतिसूक्ष्म कणों (नैनोकण) को मिलाने से कुछ बहुलक अधिक सहज प्रवाहित हो सकते हैं। ये कण आकार में समुद्र की लहरों को तोड़ने के लिए उपयोग की जाने वाली चार-भुजाओं वाली (टेट्रापॉड) कंक्रीट संरचनाओं से मिलते-जुलते छोटे कण होते हैं। इन बहुलकों (पॉलिमर्स) का अणु भार (मॉलिक्यूलर वेट) उच्च एवं शृंखलाएँ सामान्यतः लंबी होती हैं जो गाँठें बनाने के लिए प्रवृत्त होती हैं, फिर भी ये टेट्रापॉड आकार के नैनोकण प्रवाह प्रतिरोध को कम करने में सहायता करते हैं। शोधदल ने पॉलीस्टाइरीन (पीएस) नामक बहुलक का उपयोग करके इस प्रभाव को प्रदर्शित किया। 

यह शोध आईआईटी मुंबई में ’लैब ऑफ़ सॉफ्ट इंटरफेसेस’ (अर्थात मृदु अंतरापृष्ठ पर कार्य करती प्रयोगशाला) के प्रमुख, प्राध्यापक मिठुन चौधुरी के नेतृत्व में किया गया, जिसमें प्राध्यापक अनिंद्य दत्ता (आईआईटी मुंबई), प्राध्यापक तारक के. पात्रा (आईआईटी मद्रास), और प्राध्यापक शिवसुरेंदर चंद्रन (आईआईटी कानपुर) का सहयोग सम्मिलित था। अधिकांश प्रायोगिक कार्य और विश्लेषण आईआईटी मुंबई के ज्योतिप्रिय सरकार, मिथुन मधुसूदनन, हर्षित यादव, डॉ. फ़रियाद अली एवं आईआईटी मद्रास के डॉ. सचिन एम. बी. गौतम द्वारा किया गया।

प्रा. चौधुरी ने अध्ययन के संभावित प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए कहा, “यह अध्ययन भविष्य में प्रक्रियाओं की ऊर्जा लागत को संभवतः कम करने का मार्ग प्रशस्त करता है। यदि हम सटीक-आकार के नैनोकणों का बड़े स्तर पर सतत रूप से संश्लेषण (सिंथेसिस) कर सकें तो यह संभव होगा।”

टेट्रापॉड आकार का यह उपयोग करने की प्रेरणा एक अनायास क्षण में प्राप्त हुई।

प्रा. चौधुरी याद करते हुए बताते हैं, “मरीन ड्राइव पर टहलते समय, हमने लहरों को तोड़ने के लिए उपयोग किए जाने वाले कंक्रीट की बड़ी टेट्रापॉड आकृतियों को देखा। इससे मन में एक सवाल उठा : क्या होगा यदि हम इन आकृतियों के छोटे स्वरूप का उपयोग गाढ़े बहुलक तरल पदार्थों में करें?”

उनके विशिष्ट आकार के कारण टेट्रापॉड आकार के कणों का परीक्षण करने के बारे में प्रा. चौधुरी ने सोचा। अन्य आकार के नैनोकण, जैसे कि गोल या दण्ड, श्यानता (विस्कॉसिटी) को कम करने के विपरीत उसे बढ़ाने के लिए ज्ञात हैं।

प्रा. चौधुरी इस जिज्ञासा को शीघ्र ही एक प्रयोग में परिवर्तित कर सके क्योंकि आईआईटी मुंबई में प्रा. दत्ता की प्रयोगशाला कुछ समय से ऐसे नैनोकणों का संश्लेषण कर रही थी। प्रा. चौधुरी और उनके पीएचडी छात्र ज्योतिप्रिय सरकार ने प्रा. दत्ता की प्रयोगशाला से कैडमियम-सेलेनियम के टेट्रापॉड नैनोकण प्राप्त किए और उन्हें पॉलीस्टाइरीन में सावधानीपूर्वक समाविष्ट करके उनका परीक्षण किया। पॉलीस्टाइरीन के भौतिक और प्रवाहिकीय (रियोलोजिकल—अर्थात् पदार्थ कैसे प्रवाहित होता है, दबाव में कैसे विकृत होता है, इत्यादि) गुणधर्म भली-भाँति ज्ञात हैं। इस प्रकार, पॉलीस्टाइरीन का उपयोग करने से शोधकर्ताओं को नैनोकणों को मिलाने के कारण प्रवाह व्यवहार में हुए परिवर्तनों को स्पष्ट रूप से पृथक करने में सहायता मिली। उन्होंने तुलना के लिए गोलाकार और दण्डाकार के कैडमियम-सेलेनियम नैनोकणों के साथ नियंत्रण प्रयोग भी किए एवं पाया कि केवल टेट्रापॉड नैनोकणों के उपयोग से ही प्रवाह में सुधार हुआ, जबकि अन्य आकृतियों से बहुलक अधिक गाढ़ा (श्यान) एवं प्रवाह-प्रतिरोधी बना। यह इंगित करता है कि श्यानता में देखी गई कमी विशिष्ट टेट्रापॉड ज्यामिति के कारण है। शोधकर्ताओं ने यह भी दर्शाया कि अतिसूक्ष्म टेट्रापॉड आकृतियों को मिलाने से बहुलक की यांत्रिक और ऊष्मीय स्थिरता प्रभावित नहीं हुई।

भिन्न आकर के नैनोकणों के कारण पाए गए इस अंतर के पीछे के भौतिक विज्ञान का परीक्षण करने हेतु, शोधकर्ताओं ने ‘क्रेमर-ग्रेस्ट बीड-स्प्रिंग’ मॉडल पर आधारित आणविक अनुरूपण (मॉलिक्यूलर सिम्युलेशन) का उपयोग किया, जो नैनो-स्तर पर बहुलक के व्यवहार को यथार्थवादी रूप से दर्शाता है। आईआईटी मद्रास में प्रा. पात्रा और डॉ. गौतम ने संबंधित अनुरूपण-आधारित अध्ययन किए।

प्रा. चौधुरी बताते हैं, “सिम्युलेशन से पता चला कि टेट्रापॉड आकृति में उपस्थित आंतरिक वक्रताएँ ऐसे क्षेत्र बनाती हैं जिनमें लंबी बहुलक श्रृंखलाओं का प्रवेश करना प्रतिकूल होता है। इससे अतिसूक्ष्म टेट्रापॉड आकृतियों के चारों ओर बहुलक की संख्या कम हो जाती है और इस प्रकार बहुलक शृंखलाएँ एक-दूसरे के ऊपर से अधिक सहजता से फिसल पाती हैं।”

उन्होंने हमें सतर्क किया कि ये परिणाम विशिष्ट बहुलकों में पाए जा सकते हैं एवं लघु-श्रृंखला बहुलक (शार्ट-चेन पॉलिमर) या सरल तरल पदार्थों में यह ज्यामिति-प्रेरित प्रभाव नहीं देखा जाता है।

A visualisation of how polymer molecules behave differently around different nanoparticle shapes.
दृश्य चित्रण: बहुलक अणु भिन्न-भिन्न नैनोकणों के आकारों के आस-पास भिन्न-भिन्न व्यवहार करते हैं। दृश्य में काले तंतु बहुलक की श्रृंखलाएँ एवं लाल आकार नैनोकण दर्शाते हैं। टेट्रापॉड आकृति के निकट बहुलक श्रृंखलाओं का घनत्व कम है। 

[श्रेय: अध्ययन के लेखक]

ये निष्कर्ष यह भी सुझाते हैं कि नैनोकण के आकार का उपयोग संभवतः प्लास्टिक के प्रवाह को बारीकी से समायोजित करने हेतु किया जा सकता है।

प्रा. चौधुरी बताते हैं, “लेपन (कोटिंग), गोंद (एडेसिव), या 3डी मुद्रण हेतु उपयोग होने वाले रेज़िन (3D प्रिंटिंग रेज़िन) जैसे कई अनुप्रयोगों में पदार्थ का आकार बनाये रखने (शेप रिटेंशन) अथवा भार वहन (लोड बेअरिंग) के लिए विशिष्ट श्यानता की आवश्यकता होती है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ नैनोकण श्यानता को बढ़ाते हैं, परंतु हमारा अध्ययन दर्शाता है कि यह विपरीत भी हो सकता है। गोले या दण्ड जैसे सघन कण पदार्थ को गाढ़ा बना सकते हैं, जबकि टेट्रापॉड जैसी शाखाबद्ध ज्यामितीय आकृतियाँ उन्हें पतला बना सकती हैं।"

यह शोधदल अब बहुलक-नैनोकण सम्मिश्र पदार्थ (पॉलिमर-नैनोपार्टिकल कॉम्पोज़िट) बनाने की प्रक्रिया का बड़े स्तर पर विस्तार करने हेतु पद्धतियाँ खोज रहा है और इसे विभिन्न प्रकार के बहुलकों के अनुकूल बनाने का प्रयास कर रही है। प्रमुख चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं, जिनमें विशाल मात्रा में नैनोकणों का संश्लेषण (सिंथेसिस) और कैडमियम जैसे विषैले पदार्थों के स्थान पर अधिक पर्यावरण-अनुकूल विकल्पों का उपयोग करना सम्मिलित है।

प्रा. चौधुरी आगे कहते हैं, “भविष्य के कार्य में इसे अन्य बहुलकों और अधिक जटिल नैनोकण ज्यामितियों तक विस्तारा जाएगा।”

भविष्य में, नैनोकण ज्यामिति के आधार पर बहुलक-नैनोकण सम्मिश्र पदार्थों के व्यवहार और प्रवाह पैटर्न का पूर्वानुमान करने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) या मशीन लर्निंग तकनीकों का उपयोग करके मॉडल विकसित करने का इस शोधदल का लक्ष्य है।

यह शोध विशिष्ट रूप से यह बात भी दर्शाता है कि कैसे जिज्ञासा-प्रेरित सहयोगात्मक कार्य विभिन्न आईआईटी संस्थानों के बीच औद्योगिक संभावनाओं वाली खोजों को जन्म दे सकता है।

प्रा. चौधुरी कहते हैं, “यह परियोजना वास्तव में सहयोग से आगे बढ़ी।” वह आगे बताते हैं, “आईआईटी मुंबई में, हमारी लैब ऑफ़ सॉफ्ट इंटरफेसेस ने प्रायोगिक और प्रवाहिकीय अध्ययनों का नेतृत्व किया, जिसका मुख्य संचालन मेरे पीएचडी छात्र ज्योतिप्रिय सरकार ने किया, जबकि नैनोकणों का संश्लेषण प्रा. अनिंद्य दत्ता की प्रयोगशाला में हुआ। आईआईटी मद्रास में प्रा. तारक पात्रा के समूह ने आणविक अनुरूपणों को संभाला, और आईआईटी कानपुर के प्रा. शिवसुरेंदर चंद्रन ने वैचारिक अंतर्दृष्टि का योगदान दिया। सटीक प्रयोगों और संगणनात्मक प्रतिरूपण (कम्प्यूटेशनल मॉडलिंग) के मध्य संतुलन आवश्यक था। इनमे से कोई अकेला कार्य, पूरा चित्र स्पष्ट नहीं कर सकता था।”

इस शोध यात्रा पर विचार करते हुए, प्रा. चौधुरी इस बात पर बल देते हैं कि ऐसा सामूहिक कार्य आपसी जिज्ञासा और विश्वास के वातावरण में समृद्ध होता है।

वह कहते हैं, “हम सहयोगी से अधिक मित्र हैं। जिज्ञासा-प्रेरित एवं बौद्धिक रूप से उत्तेजक कार्य के लिए एक मैत्रीपूर्ण और आनंददायक वातावरण की आवश्यकता होती है, जिसे हमने निश्चित रूप से बनाए रखने का प्रयास किया।”

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